Tuesday, 26 September 2017

ऑक्सीजन पाइप लाइन का बजट भी रोके रहे अधिकारी

(रणविजय सिंह : पार्ट फोर, 14 अगस्त)

गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में वार्डों तक ऑक्सीजन की पाइप लाइन बिछाने के लिए जारी बजट भी चिकित्सा शिक्षा विभाग के अधिकारी अपने स्तर पर रोके रहे। अधिकारी ऑक्सीजन और वार्डों तक उसकी आपूर्ति को लेकर किस कदर लापरवाह थे, इसका अंदाजा कॉलेज के महानिदेशक और प्रमुख सचिव के बीच करीब एक साल तक चले पत्राचार को देखकर लगाया जा सकता है। सूत्रों के मुताबिक, आला अफसरों ने पैथोलॉजी, ओटी और लेबोरेट्री के मद में आया बजट भी समय रहते जारी नहीं किया।
बीआरडी मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन गैस पाइप लाइन उच्चीकरण और वार्डों तक उसे बिछाने का प्रस्ताव पिछले साल शासन को भेजा गया था। तत्कालीन प्रिंसिपल आरके मिश्रा की तरफ से 16 फरवरी 2016 को तत्कालीन महानिदेशक डॉ़  बीएन त्रिपाठी को पत्र भेजा गया था। इसके मुताबिक, बीआरडी में ऑक्सीजन गैस पाइप लाइन उच्चीकरण के लिए 4 करोड़ 99 लाख रुपये मांगे गए थे। शासन की तरफ से इस मद में बजट आवंटित हो गया लेकिन कॉलेज को जारी नहीं किया जा सका। नतीजा हुआ कि एक साल बाद भी इसका काम शुरू नहीं हो सका। लिहाजा, प्रिंसिपल की तरफ से रिमाइंडर दिए जाने के बाद तत्कालीन महानिदेशक डॉ़  बीएन त्रिपाठी ने आठ फरवरी 2017 को अपर मुख्य सचिव को बजट जारी करने के लिए पत्र लिखा। पत्र के बाद भी बजट नहीं मिला और पाइप लाइन बिछाने का काम जहां का तहां ठप पड़ा रहा। जानकारों के मुताबिक, अगर वार्डों तक पाइप लाइन बिछाने का काम पूरा हो चुका होता तो हालात को संभालने में आसानी होती।
ओटी, पैथोलॉजी और लेबोरेट्री तक को बजट नहीं
बीआरडी मेडिकल कॉलेज की ओटी, पैथोलॉजी और लेबोरेट्री के निर्माण व इनके उच्चीकरण को लेकर मांगा गया बजट भी जारी नहीं किया गया। ऑक्सीजन मामले में आला अधिकारियों की लापरवाही सामने आने के बाद बाकी प्रॉजेक्ट्स के लिए बजट न मिलने पर सवाल उठने लगे हैं। भ्रष्टाचार मुक्त भारत के शारिक खान के मुताबिक, बिना कमिशन लिए किसी भी कॉलेज को बजट जारी नहीं किया जा रहा है।

बीआरडी के इन प्रॉजेक्ट्स को चाहिए बजट :
प्रॉजेक्ट रकम कार्यदायी संस्था
मेडिकल गैस पाइप लाइन 4 करोड़ 99 लाख यूपीसिडको
मेडिकल गैस पाइप लाइन 13 करोड़ 19 लाख सीएंडडीएस
कॉमन हॉल (गर्ल्स एंड ब्वायज) 1 करोड़ 21 लाख सीएलडीएफ
पैथोलॉजी में ग्रास रूम, सेमिनार 1 करोड़ 74 लाख सीएलडीएफ
परीक्षा हॉल 1 करोड़ 20 लाख सीएलडीएफ
हेमेटोलॉजी लैब 71 लाख सीएलडीएफ
केमिकल एंड प्रोक्टिकल लैब 87 लाख सीएलडीएफ
साइटोलॉजी लैब 1 करोड़ 8 लाख सीएलडीएफ
हिस्टोपैथालॉजी लैब 1 करोड़ 90 लाख सीएलडीएफ
सेंट्रल रिसर्च लैब 3 करोड़ 85 लाख सीएलडीएफ
इम्यूनोहिस्टोकेमेस्ट्री लैब 1 करोड़ 63 लाख सीएलडीएफ
ओटी को मॉड्यूलर ओटी बनाना 9 करोड़ 60 लाख सीएंडडीएस
माइक्रोबायोलॉजी लेबोरेट्री 10 करोड़ सीएंडडीएस
फॉर्माकोलॉजी विभाग उच्चीकरण 9 करोड़ 26 लाख सीएंडडीएस
कम्युनिटी मेडिसिन उच्चीकरण 2 करोड़ 14 लाख सीएंडडीएस

यह काम जिस एजेंसी को दिया गया था, उसपर संदिग्ध दस्तावेज लगाने के आरोप हैं। बीआरडी समेत कई मेडिकल कॉलेजों में पाइप लाइन का काम पाने वाली एजेंसियों की भूमिका की भी जांच हो रही है। अच्छा हुआ कि इनके हाथ में बजट नहीं पहुंचा, वरना बड़ा आर्थिक घोटाला होता। मामले की जांच चल रही है और हर मेडिकल कॉलेज में पारदर्शी तरीके से एजेंसी का चयन कर पाइप लाइन बिछवायी जाएगी।
डॉ़ केके गुप्ता, महानिदेशक
चिकित्सा शिक्षा

31 मार्च को 90 करोड़ रुपया 'लैप्स' हो गया लेकिन बकाया नहीं चुकाया

(रणविजय सिंह : पार्ट थ्री, 14 अगस्त)

गोरखपुर मेडिकल कॉलेज (बीआरडी) में ऑक्सीजन सप्लाई ठप होने से हुई मौतों ने चिकित्सा शिक्षा विभाग में कमीशनखोरी से पर्दा उठा दिया है। आलम यह है कि चिकित्सा शिक्षा विभाग का 90 करोड़ रुपये इस साल 31 मार्च को वापस (लैप्स हो गया) चला गया लेकिन जिम्मेदार अधिकारियों ने समय रहते इस बजट से ऑक्सीजन सप्लाई का बकाया भुगतान नहीं किया गया। आला अधिकारियों ने अपने इन्हीं तौर तरीकों का इस्तेमाल करते हुए पांच अगस्त को शासन से जारी हुआ बजट 10 अगस्त तक रोके रखा लेकिन ऑक्सीजन सप्लाई करने वाली एजेंसी का भुगतान नहीं किया।
भ्रष्टाचार मुक्त भारत के अधिवक्त मोहम्म्द शारिक खान का आरोप है कि मेडिकल कॉलेजों के लिए बजट आवंटित करने से पहले आला अधिकारियों ने पांच फीसदी कमीशन तय कर दिया था। यही वजह है कि 31 मार्च को बजट बिना इस्तेमाल हुए वापस चला गया लेकिन मेडिकल कॉलेजों को उनके लिए जरूरी बजट नहीं दिया गया। इस संबंध में भ्रष्टाचार मुक्त भारत की तरफ से मुख्य सचिव और पीएमओ तक में शिकायत दर्ज करायी गई थी। इसके बाद पीएमओ ने इस मामले में मुख्य सचिव को जांच के लिए आदेश जारी हुआ और तत्कालीन मुख्य सचिव ने आरोपों की जद में आ रहे अधिकारियों को भी जांच कमिटी में शामिल कर लिया। नतीजा हुआ कि मामले की जांच अब तक शुरू नहीं हो सकी। इस बीच मेडिकल कॉलेजों के लिए शासन से इस साल जारी हुए बजट को पुराने तौर तरीकों का इस्तेमाल करते हुए आवंटित किया जा रहा था। यही वजह है कि पिछले वित्तीय वर्ष में जहां 90 करोड़ रुपये बिना इस्तेमाल हुए वापस चले गए थे, वहीं इस बार आवंटित बजट भी कॉलेजों को भेजने में जानबूझकर लेटलतीफी जारी है।

70 लाख चाहिए था, 75 लाख लैप्स हुआ :
बीआरडी कॉलेज के लिए पिछले वित्तीय वर्ष के बजट में 75 लाख रुपये का प्राविधान था। शासन से आए बजट में इसको मंजूरी भी मिल गयी थी और 10 मार्च को वित्त विभाग ने बजट जारी कर दिया। आरोप है कि कमीशन न मिलने से कई कॉलेजों का बजट आला अधिकारी रोके रहे, जिसमें बीआरडी कॉलेज के लिए आया बजट भी था। नतीजा हुआ कि 31 मार्च को लैप्स हुए बजट के साथ बीआरडी के लिए आवंटित रकम भी वापस चली गई। यह रकम लगभग उतनी ही है, जितना ऑक्सीजन सप्लाई करने वाली एजेंसी का बकाया है। यानी अधिकारी चाहते तो अगस्त में हालात भयावह होने से चार महीने पहले ही बकाए का एक बड़ा हिस्सा भुगतान कर सकते थे।

बड़ों को बख्शा, छोटे जिम्मेदार पर कार्रवाई :
बजट होने के बावजूद भुगतान न होने के लिए प्रिंसिपल डॉ़ आरके मिश्रा के अलावा सीधे तौर पर महानिदेशक और प्रमुख सचिव भी जिम्मेदार हैं। पिछली सरकार में महानिदेशक रहे डॉ़ बीएन त्रिपाठी के कार्यकाल में ही बजट लैप्स हुआ था। इसके बाद वर्तमान महानिदेशक डॉ़ केके गुप्ता भी बजट जारी करने के पांच दिन तक भुगतान नहीं करा सके। इस बीच दोनों सरकारों में महकमे की प्रमुख सचिव अनीता भटनागर जैन थीं। उन्हें पिछली और वर्तमान सरकार के दौरान बीआरडी मेडिकल कॉलेज के हर डिवेलपमेंट की जानकारी थी।

यूं जारी होता है बजट :
वित्त विभाग हर विभाग के प्रमुख सचिव से उनके अधीन आने वाले विभागों के लिए जरूरी बजट मांगता है। इसके बाद प्रमुख सचिव महानिदेशक सभी प्रिंसिपलों से उनकी जरूरत का ब्योरा मांगते हैं। प्रिंसिपलों की तरफ से आने वाले प्रस्ताव महानिदेशक प्रमुख सचिव को सौंपते हैं और वहां कॉलेजों की डिमांड से वित्त विभाग को अवगत करा दिया जाता है। इसके बाद बजट जारी होता है, जिसे प्रमुख सचिव महानिदेशक के जरिए कॉलेजों को आवंटित कर देते हैं। यह बजट ट्रेजरी से प्रिंसिपल प्राप्त कर सकते हैं।

ऑक्सीजन सप्लाई से जुड़ी सभी बिंदुओं की जांच चल रही है। कमीशनखोरी के लिखित आरोप मिलें तो उनकी भी जांच करायी जाएगी। पीएमओ से कमीशनखोरी की जांच के लिए आए पत्र की जानकारी मुझे नहीं है। ऐसा कोई पत्र आया है तो उसका संज्ञान लेकर जांच करायी जाएगी।
आशुतोष टंडन, चिकित्सा शिक्षा मंत्री

5 अगस्त को जारी हो गया था 484 करोड़, 60 लाख बकाया नहीं चुका सके

(रणविजय सिंह : पार्ट टू, 13 अगस्त)

गोरखपुर मेडिकल कॉलेज (बीआरडी) में ऑक्सीजन गैस का 60 लाख रुपये बकाया न चुकाने वाले चिकित्सा शिक्षा विभाग के लिए पांच अगस्त को ही 484 करोड़ 12 लाख 29 हजार रुपये का बजट जारी हो गया था। इसके बावजूद प्रमुख सचिव डॉ़ अनीता भटनागर जैन, महानिदेशक डॉ़ केके गुप्ता और प्रिंसिपल डॉ़ राजीव कुमार मिश्रा समेत दूसरे जिम्मेदार अधिकारी 10 अगस्त तक ऑक्सीजन का बकाया नहीं चुका सके। इससे भी चौंकाने वाली बात यह है कि इस साल 31 मार्च को मेडिकल कॉलेजों के लिए मिला 90 करोड़ रुपये इस्तेमाल न हो सकने के कारण वापस (लैप्स हो गया) चला गया। इसमें से गोरखपुर मेडिकल कॉलेज को 75 लाख रुपये आवंटित हुए थे। आला अधिकारी चाहते तो वापस गए इस बजट से समय रहते ऑक्सीजन का बकाया चुका सकते थे। आरोप है कि चिकित्सा शिक्षा विभाग के आला अधिकारियों को तय कमीशन न मिलने के चलते शासन से मिले बजट का आवंटन मेडिकल कॉलेजों को नहीं हुआ।
गोरखपुर मेडिकल कॉलेज (बीआरडी) में ऑक्सीजन सप्लाई ठप होने से हुई मौतों ने चिकित्सा शिक्षा विभाग में कमीशनखोरी से पर्दा उठा दिया है। भ्रष्टाचार मुक्त भारत के अधिवक्त मोहम्म्द शारिक खान का आरोप है कि मेडिकल कॉलेजों के लिए बजट आवंटित करने से पहले आला अधिकारियों ने पांच फीसदी कमीशन तय कर दिया था। यही वजह है कि बजट बिना इस्तेमाल हुए वापस चला गया लेकिन मेडिकल कॉलेजों को उनके लिए जरूरी बजट नहीं दिया गया। इस संबंध में भ्रष्टाचार मुक्त भारत की तरफ से मुख्य सचिव और पीएमओ तक में शिकायत दर्ज करायी गई थी। इसके बाद पीएमओ ने इस मामले में मुख्य सचिव को जांच के लिए आदेश जारी हुआ और मुख्य सचिव ने आरोपों की जद में आ रहीं प्रमुख सचिव डॉ़ अनीता भटनागर जैन को ही जांच का आदेश दे दिया। मामले की जांच अब तक शुरू नहीं हो सकी। इस बीच मेडिकल कॉलेजों के लिए शासन से जारी हुए बजट को पुराने तौर तरीकों का इस्तेमाल करते हुए आवंटित किया जा रहा था। यही वजह है कि पिछले वित्तीय वर्ष में जहां 90 करोड़ रुपये बिना इस्तेमाल हुए वापस चले गए थे, वहीं इस बार आवंटित बजट भी कॉलेजों को भेजने में जानबूझकर लेटलतीफी जारी है।

ऑक्सीजन का बकाया था तो क्यों वापस चला गया 90 करोड़ :
गोरखपुर मेडिकल कॉलेज (बीआरडी) में ऑक्सीजन गैस का 60 लाख रुपए बकाया था इसके बावजूद चिकित्सा शिक्षा विभाग से 90 करोड़ रुपये बिना इस्तेमाल हुए वापस चले गए। ऐसे में सवाल यह है कि चिकित्सा शिक्षा विभाग के आला अधिकारियों ने इस बजट का इस्तेमाल करते हुए बकाया भुगतान क्यों नहीं किया? सूत्रों के मुताबिक 31 मार्च तक महानिदेशालय और विभाग के दूसरे आला अधिकारी यह बजट कॉलेजों को भेजने का फैसला नहीं कर सके। मेडिकल कॉलेजों में निर्माण से जुड़े कई मदों का बजट शासन ने 10 मार्च को जारी कर  दिया गया था। इसके बाद महकमे के अधिकारियों ने इसे समय रहते आवंटित करने में कोई तेजी नहीं दिखायी।

यूं जारी होता है बजट :
वित्त विभाग हर विभाग के प्रमुख सचिव से उनके अधीन आने वाले विभागों के लिए जरूरी बजट मांगता है। इसके बाद प्रमुख सचिव महानिदेशक सभी प्रिंसिपलों से उनकी जरूरत का ब्योरा मांगते हैं। प्रिंसिपलों की तरफ से आने वाले प्रस्ताव महानिदेशक प्रमुख सचिव को सौंपते हैं और वहां कॉलेजों की डिमांड से वित्त विभाग को अवगत करा दिया जाता है। इसके बाद बजट जारी होता है, जिसे प्रमुख सचिव महानिदेशक के जरिए कॉलेजों को आवंटित कर देते हैं। यह बजट ट्रेजरी से प्रिंसिपल प्राप्त कर सकते हैं।

बात करने से बचते रहे :
हादसे के बाद चिकित्सा शिक्षा विभाग की प्रमुख सचिव अनीता भटनागर जैन और महानिदेशक डॉ़ केके गुप्ता बात करने से बचते रहे। कई बार फोन करने के बावजूद इन अधिकारियों ने फोन नहीं उठाया। इसके बाद इन्हें एसएमएस करके बजट आवंटित होने के बावजूद भुगतान होने का कारण जानने की कोशिश हुई। इसके बावजूद अधिकारी चुप्पी साधे रहे। मामले को लेकर चिकित्सा शिक्षा के कैबिनेट मंत्री आशुतोष टंडन से भी संपर्क की कोशिश बेकार साबित हुई।

ये हैं जिम्मेदार :
प्रमुख सचिव : अनीता भटनागर जैन
महानिदेशक : डॉ़ केके गुप्ता
पूर्व महानिदेशक : डॉ़ बीएन त्रिपाठी
प्रिंसिपल : डॉ़  राजीव कुमार मिश्रा

जिनके पास ऑक्सीजन प्लांट ही नहीं, वे कर रहे अस्पतालों में सप्लाई

(रणविजय सिंह : पार्ट वन, 12 अगस्त)

राजधानी के सरकारी अस्पतालों में पिछले दो साल से ऐसी एजेंसी ऑक्सीजन सप्लाई कर रही है, जिसके पास इस समय मैनुफैक्चरिंग प्लांट ही नहीं है। सूत्रों के मुताबिक एजेंसी अपने प्लांट में ऑक्सीजन बनाने के बजाय उड़ीसा के राउरकेरा जिले से टैंकरों में ऑक्सीजन खरीदकर बाराबंकी में लाती है और वहां इसे सिलेंडरों में भरकर अस्पतालों तक पहुंचाया जाता है। ऐसे में अगर उड़ीसा या वहां तक पहुंचने के रास्ते में कोई बाधा हो जाए तो सप्लाई ठप हो जाएगी। इसके बावजूद आला अधिकारी पिछले दो साल से बिना टेंडर कराए अपनी चहेती एजेंसी से ही ऑक्सीजन सप्लाई करवा रहे हैं। आरोप है कि अधिकारी और एजेंसी के बीच गठजोड़ के चलते अस्पतालों में फर्जी सप्लाई दिखाकर पिछले दो वर्ष के दरम्यान हर महीने लाखों के वारे न्यारे किए जाते रहे, जिसका खुलासा एनबीटी ने इस साल जनवरी में ही कर दिया था। जांच में इसकी पुष्टि होने के बावजूद अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हो सकी है।
स्वास्थ्य महानिदेशालय की तरफ से सरकारी अस्पतालों में ऑक्सीजन सप्लाई के लिए टेंडर कराए जाने का नियम है। आखिरी बार वर्ष 2014 में टेंडर हुआ था। सिविल अस्पताल के लिए हुए टेंडर में जिस एजेंसी का चयन हुआ, उसने मैन्यूफैक्चरिंग लाइसेंस दिखाया था। इसके बाद वर्ष 2015 और 2016 में टेंडर हुआ, जिसमें कई कंपनियों ने काफी कम दर पर ऑक्सीजन सप्लाई देने की इच्छा जतायी लेकिन किसी न किसी बहाने टेंडर निरस्त कर दिए गए। टेंडर निरस्त होने के बाद पुरानी कंपनी को तय रेट पर ऑक्सीजन सप्लाई का काम दिया जाता रहा। इस बीच एजेंसी अस्पतालों में जितने सिलेंडर की सप्लाई दिखा रही थी, उसका 50% तक ही सप्लाई हो रही थी। एनबीटी ने राजधानी के तीन बड़े अस्पतालों सिविल, लोहिया और बलरामपुर अस्पताल में स्टिंग कर इसे बड़े फर्जीवाड़े का खुलासा किया था। इसके बाद तत्कालीन प्रमुख सचिव अरुण सिन्हा ने महानिदेशक डॉ पद्माकर सिंह को जांच कराने का आदेश दिया। महानिदेशक को जून महीने में ही जांच रिपोर्ट मिल गई थी लेकिन अब तक एजेंसी और अस्पताल के जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो सकी। इस बीच नया खुलासा यह हुआ है कि इस एजेंसी के पास मैन्युफैक्चरिंग प्लांट ही नहीं है। सूत्रों के मुताबिक बाराबंकी में इस एजेंसी का प्लांट था, जिसे काफी पहले ही बंद किया जा चुका है।

पता ही नहीं था कि प्लांट है या नहीं :
एनबीटी से बात करते हुए उन्होंने पहले तो दावा किया कि इस समय ऑक्सीजन सप्लाई करने वाली एजेंसी के पास मैन्युफैक्चरिंग प्लांट है लेकिन एक घंटे बाद उन्होंने इसकी पुष्टि न होने की बात कही। महानिदेशक यह बताने में भी असमर्थ थे कि तीन साल पहले किन शर्तों के आधार पर ऑक्सीजन सप्लाई का टेंडर हुआ था। इसके बाद लगातार दो साल से क्यों टेंडर रद करना पड़ रहा है? इसकी जानकारी भी अधिकारी नहीं दे सके।

हादसा हुआ तो ई टेंडरिंग की याद आयी :
बीआरडी मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन सप्लाई में गड़बड़ी के चलते हुई मौतों के बाद स्वास्थ्य विभाग को ई टेंडरिंग की याद आयी है। महानिदेशक डॉ पद्माकर सिंह ने सभी अस्पतालों में ऑक्सीजन सप्लाई के लिए ई टेंडरिंग करवाने का दावा किया। उन्होंने कहा कि इस संबंध में सभी को आदेश जारी किया जा चुका है। जल्द ही ई टेंडरिंग कर ऑक्सीजन सप्लाई के लिए एजेंसियों का चयन किया जाएगा।

दाखिलों में धांधली का आरोप, एडमिशन ऑडिट कराने की मांग

(रणविजय सिंह : पार्ट थ्री, 25 सितंबर)

खेल कोटे से हुए दाखिलों पर सवाल उठने के बाद लविवि के छात्र नेता और छात्र संगठनों ने एडमिशन ऑडिट कराए जाने की मांग शुरू कर दी है। छात्रसंघ और दूसरी मांगों को लेकर पिछले एक सप्ताह से धरने पर बैठे आंदोलनकारी छात्रों ने फर्जी दाखिलों के लिए सीधे तौर पर कुलपति और प्रवेश समन्वयक को जिम्मेदार ठहराया है। छात्र संगठनों के मुताबिक इस साल पहले पीएचडी फिर एलएलएम और अब खेल कोटे से स्नातक और पीजी में हुए 30 संदिग्ध दाखिलों ने इस मामले में आला अधिकारियों की मिलीभगत से पर्दा उठा दिया है।

आज दाखिले तो सत्यापन 30 दिन बाद क्यों ?
एसएफआई के विवि प्रभारी वैभव देव ने एथलेटिक असोसिएशन और प्रवेश समन्वयक की भूमिका पर सवाल उठाया है। उन्होंने पूछा कि जब दाखिले सितंबर में हुए हैं तो मूल दस्तावेजों का सत्यापन अक्टूबर में कराने के पीछे क्या मकसद है? वैभव के मुताबिक पिछले वर्षों में फर्जी खेल सर्टीफिकेट बनाकर दाखिले होने के मामले आ चुके हैं। ऐसे में इस साल मामला खुलने के बाद अधिकारियों ने संदिग्ध छात्रों को सर्टीफिकेट बनवाने का समय दिया है, ताकि गड़बड़ी पर पर्दा डाला जा सके।

स्नातक में विषय आवंटन में भी फर्जीवाड़ा :
एबीवीपी के प्रांत संगठन मंत्री सत्यभान सिंह भदौरिया ने स्नातक दाखिलों में विषय आवंटन किए जाने पर गंभीर आरोप लगाए हैं। उनके मुताबिक काउंसलिंग के वक्त टॉप मेरिट वाले  छात्रों को डिमांड वाले विषय खतम होने की भ्रामक सूचना दे दी गई और बाद में अधिकारियों ने अपने चहेतों को यह विषय आवंटित कर दिए। आरोप है कि शाम को काउंसलिंग खतम होने के बाद गुपचुप तरीके से विषय आवंटन किए गए।

विभागाध्यक्षों ने चहेतों को करायी पीएचडी :
सपा छात्रसभा की छात्रनेता पूजा शुक्ला ने इस साल पीएचडी में फर्जी तरीके से दाखिलों के आरोप लगाए। उन्होंने कहा कि इस साल दाखिले खतम होने के बाद गुपचुप तरीके से सोशल वर्क, हिंदी और पालीटिकल साइंस में विभागाध्यक्षों ने अपने स्तर से दाखिले कर लिए। तीन महीने पहले इसका खुलासा होने के बावजूद अब तक आला अधिकारी इन दाखिलों को लेकर कोई भी जवाब देने को तैयार नहीं हैं।


खेल कोटे से दाखिलों को लेकर मामला जानकारी में आया है। छात्रों की तरफ से एडमिशन ऑडिट का मांगपत्र अभी मुझे मिला नहीं है। इस बारे में कुलपति से बात करके ही कोई फैसला हो सकता है।
प्रो़ एनके पांडेय, प्रवक्ता
लविवि

अधिकारियों ने माना नहीं हुआ सत्यापन, 30 दिन बाद करेंगे जांच

 (रणविजय सिंह, 22 सितंबर : पार्ट टू)

बिना मूल दस्तावेजों की जांच कराए खेल कोटे से लविवि में हुए दाखिलों में नया खुलासा हुआ है। लविवि एथलेटिक असोसिएशन के पदाधिकारियों ने अभ्यर्थियों के मोबाइल पर दस्तावेजों की व्हाट्सऐप फोटो देखकर ही अप्रूवल दे दिया था। दाखिलों में गड़बड़ी का खुलासा होने के बाद एथलेटिक असोसिएशन और प्रवेश से जुड़े अधिकारियों में हड़कंप मच गया। एथलेटिक असोसिएशन के महासचिव डॉ़ आरबी सिंह ने काउंसलिंग से पहले कुछ अभ्यर्थियों के दस्तावेजों का सत्यापन ना होने की बात मानते हुए बताया कि इन अभ्यर्थियों ने व्हाट्सऐप पर फोटो दिखायी थी। हालांकि अब इन्हें मूल दस्तावेज प्रस्तुत करने के लिए 30 दिन का समय दिया गया है।
लविवि के स्नातक और पीजी पाठ्यक्रमों में काउंसलिंग से पहले दस्तावेजों के सत्यापन के दो मानक हैं। प्रवेश से जुड़े अधिकारी बिना सिफारिश के आने वाले अभ्यर्थियों से काउंसलिंग के वक्त ही सभी मूल दस्तावेज लाने को कहते हैं और एक भी कागज कम होने पर दाखिला निरस्त कर दिया जाता है। वहीं खेल कोटे से सिफारिशी दाखिलों के लिए यह सख्ती गायब हो जाती है। इस साल खेल कोटे से हुए 30 दाखिलों में गड़बड़ी का खुलासा होने के बाद मानकों मे यह दोहरापन खुलकर सामने आ गया है। आलम यह है कि सिफारिशी दाखिलों के दस्तावेजों का सत्यापन व्हाट्सऐप पर भी कर दिया गया। यही नहीं इसके बाद मूल दस्तावेजों की जांच करने की जहमत भी नहीं उठायी गई। अब मामले का खुलासा हुआ तो उसके बाद भी तुरंत जांच कराने के बजाय संदिग्ध अभ्यर्थियों को एक महीने का समय दे दिया गया। इस बीच दाखिलों में फर्जीवाड़ा का खुलासा होने पर एबीवीपी के प्रांत संगठन मंत्री सत्यभान भदौरिया ने एलयू कुलपति डॉ़ एसपी सिंह और प्रवेश समन्वयक प्रो़ अनिल मिश्रा की भूमिका पर गंभीर सवाल उठाए हैं। उनका आरोप है कि एलयू प्रशासन फर्जी खेल सर्टीफिकेट के सहारे दाखिला पाए कुछ छात्रों को बचाने में जुट गया है।

यह बात सही है कि सभी छात्रों के मूल दस्तावेजों का सत्यापन नहीं हो सका था। इनमें से कुछ ने व्हाट्सऐप पर अपने दस्तावेज दिखाए थे। कहीं भी गड़बड़ी की आशंका नहीं है। हालांकि ऐसे अभ्यर्थियों को एक महीने का समय दिया गया है।
डॉ़ आरबी सिंह, महासचिव
लविवि  एथलेटिक असोसिएशन

केवल फोटोकॉपी देखकर लगा दिया गया स्पोर्ट्स कोटा, हो गए 30 दाखिले

 (रणविजय सिंह, 20  सितंबर : पार्ट वन)

लखनऊ विश्वविद्यालय में स्पोर्ट्स कोटे से बिना प्रवेश प्रक्रिया और मेरिट के किए गए 30 दाखिलों पर सवाल उठने लगे हैं। एलयू एथलेटिक असोसिएशन के अधिकारियों ने इन अभ्यर्थियों के ओरिजनल सर्टीफिकेट देखने की जरूरत तक नहीं समझी और केवल फोटो कॉपी देखकर कर सत्यापन कर दिया। इसके बाद फोटो कॉपी को ही सही मानते हुए दाखिले भी हो गए। चौंकाने वाली बात यह है कि एलयू में 20 अगस्त के बाद दाखिले खतम हो गए थे लेकिन इन अभ्यर्थियों ने 5 से 7  सितंबर के बीच कैशियर में फीस जमा की है।
खेल कोटे से हुए दाखिलों में गड़बड़ी का खुलासा होने के साथ ही एलयू एथलेटिक असोसिएशन के अधिकारियों को जवाब नहीं सूझ रहा है। एनबीटी की पड़ताल के मुताबिक जिन 30 अभ्यर्थियों को खेल कोटे से सीधे दाखिला दिया गया है, उनमें तीन अभ्यर्थियों के दस्तावेज फर्जी होने की आशंका हैं। बाकी कई अभ्यर्थियों ने जो दस्तावेज लगाए हैं, उनमें से कईयों के पास सीधे दाखिले लायक योग्यता नहीं है इसके बावजूद अधिकारियों ने उन्हें इसका लाभ दे दिया। एक अभ्यर्थी को केडी सिंह स्टेडियम में प्रैक्टिस करने के नाते दाखिला दे दिया गया, जबकि ऐसी सुविधा केवल साई जैसे संस्थान के खिलाड़ियों को मिलती है।
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कुलपति कार्यालय में अलग से लिए गए थे आवेदन :
खेल कोटे के तहत सीधे दाखिले के लिए कुलपति कार्यालय ने आवेदन लिए थे। यहां से अभ्यर्थियों की सूची और आवेदन फॉर्म एथलेटिक असोसिएशन को भेजे गए। नियमों के तहत यहां इन अभ्यर्थियों के मूल दस्तावेजों की जांच होनी चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पिछले साल तक खेल कोटे में गड़बड़ी के आरोपी एक शिक्षक ने इसमें अहम भूमिका निभायी और सभी आवेदन फॉर्म बिना दस्तावेजों का सत्यापन कराए आगे बढ़ा दिए गए। यहां से यह फॉर्म वापस कुलपति कार्यालय भेजे गए और वहां से दाखिले पर मुहर लगाकर प्रवेश समन्वयक को भेज दिया गया। यहां भी किसी अभ्यर्थी के मूल दस्तावेज नहीं देखे गए और सभी को उनके पसंदीदा विषय अलॉट कर दिए गए।

खेल कोटे के तहत जिन भी अभ्यर्थियों को सीधे दाखिला दिया गया, उनके मूल दस्तावेज मेरे सामने नहीं आए और ना ही मैने इनकी जांच की। एथलेटिक असोसिएशन से अप्रूवल हो चुका था लिहाजा दाखिला दे दिया गया।
प्रो़ अनिल मिश्रा, प्रवेश समन्वयक
लविवि

कुलपति कार्यालय से 30 अभ्यर्थियों की सूची और फॉर्म मेरे पास अप्रूवल के लिए आए थे। मैने अप्रूवल दे दिया लेकिन किसी भी फॉर्म में मूल सर्टीफिकेट नहीं थे। मैने काउंसलिंग से पहले इनकी जांच का नोट लगा दिया था। मेरे सामने अब तक इन अभ्यर्थियों के मूल दस्तावेज नहीं आए हैं।
प्रो़ संजय गुप्ता, चेयरमैन
एलयू एथलेटिक असोसिएशन

Tuesday, 8 August 2017

अपनों के लिए दिल्ली आईआईटी से पीएचडी अभ्यर्थी भी खारिज


  (रणविजय सिंह, आठ अगस्त, पार्ट टू)
लविवि की इंजीनियरिंग फैकल्टी के इंटरव्यू के लिए आईआईटी दि से पीएचडी कर चुके अभ्यर्थियों को कॉल लेटर नहीं भेजा गया। नेट, जेआरएफ, एसआरएफ, अपने नाम पेटेंट तक करा चुके और कई अंतर्राष्ट्रीय पेपर प्रकाशित करा चुके अभ्यर्थी भी दरकिनार कर दिए गए। इंटरव्यू में न बुलाए गए अभ्यर्थियों का आरोप है कि इंटरव्यू के लिए जिन 15 अभ्यर्थियों को बुलाया गया है, उनमें से कई ऐसे हैं जो सामान्य पीएचडी किए हुए हैं। लविवि प्रशासन पारदर्शी तरीके से कॉल लेटर भेजे जाने का दावा कर रहा है लेकिन निराश अभ्यर्थियों के मुताबिक शॉर्ट लिस्ट करने का क्राइटेरिया से लेकर मामूली जानकारियां तक ना तो वेबसाइट पर डाली जा रही हैं और ना ही पूछने पर बतायी जा रही हैं।
इंजीनियरिंग फैकल्टी के लिए शुक्रवार तक चले इंटरव्यू को लेकर मनमानी और गड़बड़ियों के आरोप तेज हो गए हैं। कैमिस्ट्री और फिजिक्स के लिए हुए इंटरव्यू में शामिल किए गए अभ्यर्थियों और इससे वंचित हुए अभ्यर्थियों की योग्यता लेकर सवाल उठ रहे हैं। आईआईटी दिल्ली से पीएचडी करने वाले ज्ञानेंद्र ने बताया कि जेआरएफ के बाद पीएचडी के अलावा गेट भी क्लियर किया है। इसके अलावा कई अंतर्राष्ट्रीय जनरल में रिसर्च पेपर प्रकाशित हो चुका है। इसके बावजूद लविवि ने इंटरव्यू के लिए कॉल नहीं किया। आईआईटी दिल्ली से ही पीएचडी करने वाले एक अन्य अभ्यर्थी ने नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर बताया कि उसने भी फिजिक्स विभाग के लिए आवेदन किया था। उन्हें भी इंटरव्यू के लिए कॉल लेटर नहीं भेजा गया। इन दोनों अभ्यर्थियों ने चयनित हुए अभ्यर्थियों की सूची मांगी तो अधिकारी आनाकानी करने लगे। ज्ञानेंद्र ने बताया कि शॉर्ट लिस्टिंग का पूरा क्राइटेरिया लविवि ने गोपनीय रखा। इंटरव्यू के लिए चयनित अभ्यर्थियों का एपीआई भी सार्वजनिक नहीं किया गया। इससे जुड़ी जानकारियां वेबसाइट पर भी नहीं डाली गईं। कैमिस्ट्री विभाग के लिए आवेदन करने वाले अभ्यर्थी देवेंद्र मिश्रा ने किसी तरह लिस्ट प्राप्त की तो उसमें कई अभ्यर्थी ऐसे भी चयनित हुए हैं, जिन्होंने बिना जेआरएफ के ही पीएचडी कर रखी है।

अदालत जाने की तैयारी में परेशान अभ्यर्थी :
मनमानी और गड़बड़ी के आरोपों के बीच अभ्यर्थियों को अपना एपीआई स्कोर तक जानने के लिए दर दर भटकना पड़ रहा है। देवेंद्र मिश्रा ने बताया कि एलयू के रजिस्ट्रार, कुलपति और कुलाधिपति को इस गड़बड़ी से अवगत कराया जा चुका है। इसके बावजूद इंटरव्यू पूरे करवा दिए गए। ऐसे में इस मामले को हाईकोर्ट में चुनौती देने की तैयारी कर ली गई है।

सभी अभ्यर्थियों का मूल्यांकन हमने जिस प्रारूप पर किया है, उसका ब्योरा कुलपति को भेजा जा चुका है। वेबसाइट पर जानकारी नहीं दी गई है लेकिन इसका मतलब गड़बड़ी होना नहीं है। शिकायतें होने की जानकारी है लेकिन सभी का निराकरण किया जाएगा।
डॉ़ आरएस गुप्ता, इंचार्ज
इंजीनियरिंग फैकल्टी

लविवि में इंजीनियरिंग फैकल्टी शुरू, भर्तियों में खेल

(रणविजय सिंह, तीन अगस्त, पार्ट वन)

लविवि के इकोनॉमिक्स, कॉमर्स और संस्कृत विभाग में शिक्षकों की नियुक्तियां खारिज होने के बाद अब इंजीनियरिंग फैकल्टी के लिए हो रहे इंटरव्यू पर भी विवाद खड़ा हो गया है। इस साल शुरू हो रही बीटेक कक्षाओं के लिए शिक्षकों का इंटरव्यू गुरुवार को शुरू हुआ लेकिन इसमें शामिल होने से वंचित रहने वाले एक अभ्यर्थी ने पूरी प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए रजिस्ट्रार, कुलपति और राजभवन से बड़े पैमाने पर गड़बड़ी के आरोप लगा दिए हैं। अभ्यर्थी के मुताबिक इंटरव्यू के लिए अभ्यर्थियों का चयन करने का कोई पारदर्शी मानक नहीं तय किया गया और नेट, पीएचडी और अनुभवी अभ्यर्थियों को मनमाने तरीके से बाहर कर ऐसे अभ्यर्थियों को इंटरव्यू के लिए बुला लिया गया जो बिना नेट किए पीएचडी हैं।

एपीआई स्कोर 49 था लेकिन दिए गए 48 :
राजभवन में शिकायत दर्ज कराने वाले देवेंद्र के मुताबिक वह सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ प्लास्टिक इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी में नियुक्त हैं। लविवि कंट्रैक्चुअल शिक्षकों की भर्ती का विज्ञापन देख उन्होंने आवेदन किया। इंटरव्यू से पहले उन्हें कोई जानकारी नहीं दी गई। अचानक दो अगस्त को इंटरव्यू की सूचना मिली लेकिन उन्हें कोई कॉल लेटर या सूचना नहीं दी गई। पूछने पर बताया गया कि केवल उन्हीं अभ्यर्थियों को बुलाया गया है, जिनके एपीआई स्कोर 48 से ज्यादा हैं। देवेंद्र का दावा है कि उन्होंने दबाव डालकर अपना एपीआई स्कोर दोबारा गिनवाया तो उनके नंबर 49 आए लेकिन अधिकारी इसे संशोधित करने को तैयार नहीं थे। अधिकारियों ने उनके पेटेंट के लिए एक नंबर दिया ही नहीं था। देवेंद्र ने बताया कि हर सीट के लिए आठ अभ्यर्थियों को बुलाया गया था लेकिन केवल कैमिस्ट्री में ही एक सीट पर सात अभ्यर्थी बुलाए गए।

इंजीनियरिंग फैकल्टी के लिए इंटरव्यू शुक्रवार तक चलेगा। यह सही है कि एक सीट के लिए आठ अभ्यर्थियों को बुलाया गया है। सवाल उठाना अभ्यर्थियों का अधिकार है, वह इसका इस्तेमाल कर सकते हैं।
प्रो़ राजकुमार सिंह, रजिस्ट्रार
लविवि

मैं इंजीनियरिंग के डीन, एलयू के कुलपति और रजिस्ट्रार के पास गया। उन्हें सारी जानकारी दी लेकिन इन सभी ने अब कुछ न होने की बात कह पल्ला झाड़ लिया। डीन ने माना कि एपीआई स्कोर में गलती हो गई है लेकिन वह इसमें सुधार करने को तैयार नहीं थे। अब मेरे पास अदालत जाने के अलावा कोई चारा नहीं है।
देवेंद्र मिश्रा, अभ्यर्थी

नहीं चली मनमानी, सभी नियुक्तियां खारिज

(रणविजय सिंह, 19 जून, पार्ट टू)

एलयू के कई विभागों में प्रोफेसर, असिस्टेंट प्रोफेसर और असोसिएट प्रोफेसरों की नियुक्तियों को कार्य परिषद ने हरी झंडी देने से इंकार कर दिया है। पिछले महीने इंटरव्यू के बाद इन पदों के लिए नियुक्ति का प्रस्ताव सोमवार को कार्य परिषद के सामने मंजूरी के लिए रखा गया था, जिन्हें खारिज कर दिया गया। एनबीटी ने 30 मई को खबर प्रकाशित करते हुए संस्कृति विभाग समेत कुछ विभागों में मानकों की अनदेखी कर अभ्यर्थियों को इंटरव्यू के लिए बुलाए जाने का खुलासा किया था। सोमवार को कार्य परिषद ने एनबीटी की खबर पर मुहर लगाते हुए शिक्षक भर्ती से जुड़े सभी विज्ञापन और इंटरव्यू को खारिज कर दिया। साथ ही नए सिरे से विज्ञापन कर भर्तियों की कवायद शुरू करने का फैसला लिया है। कार्य परिषद के इस फैसले का असर उन विभागों पर भी पड़ेगा, जिनपर भर्ती के लिए जल्द ही इंटरव्यू होने का इंतजार किया जा रहा था।

जिसने कभी पीएचडी नहीं करायी, उन्हें भेज दिया था कॉल लेटर :
एलयू के संस्कृत विभाग में असेस्टेंट प्रोफेसर डॉ़ प्रयाग नारायण मिश्रा ने असोसिएट प्रोफेसर के लिए आवेदन किया था लेकिन उन्हें कॉल लेटर नहीं भेजा गया था। इस पद के लिए जिन्हें कॉल लेटर भेजा गया, उनमें शामिल डॉ़ विजय कर्ण, डॉ़ प्रमोद भारती, डॉ़ रीता तिवारी और डॉ़ विजय प्रताप सरकारी डिग्री कॉलेज और डॉ़ ब्रह्मनंद पाठक एक निजी डिग्री कॉलेज में शिक्षक हैं। आरोप है कि इनमें से किसी ने कभी कोई पीएचडी नहीं करायी। चौंकाने वाली बात यह है कि ऐसे अभ्यर्थियों को कॉल लेटर भेजने वाले एलयू के अधिकारी, एलयू में ही पिछले 10 वर्ष से पीएचडी करा रहे शिक्षकों को इंटरव्यू के लिए बुलाया ही नहीं।

अनुभव होने पर भी कर दया था बाहर :
संस्कृत विभाग के ही सहायक प्राध्यापक डॉ़ देवेश कुमार मिश्रा ने एलयू पर सिलेक्शन के नाम पर मनमानी के गंभीर आरेाप लगाए थे। उनके मुताबिक असोसिएट प्रोफेसर के लिए आठ साल का टीचिंग एक्सपीरिएंस मांगा गया था लेकिन नौ साल का अनुभव होने के बावजूद उन्हें कॉल लेटर नहीं भेजा गया। डेढ़ साल पहले बनी स्क्रीनिंग कमिटी ने उनका नाम लिस्ट से बाहर कर दिया था। पिछले महीने अभ्यर्थियों को कॉल लेटर भेजा गया तो उन्होंने पूछताछ शुरू की लेकिन अधिकारियों को कोई सही जवाब नहीं दिया था।

पिछली सरकार में तय हुए थे नाम :
एलयू में शिक्षकों की भर्ती के लिए जितने भी अभ्यर्थियों का इंटरव्यू हुआ था, उनका नाम पिछली सरकार में बनी स्क्रीनिंग कमिटी ने तय किया था। माना जा रहा था कि इनमें से कई अभ्यर्थियों को सिलेक्ट करने के लिए स्क्रीनिंग कमिटी ने मानकों का पालन नहीं किया था। यही वजह है कि एनबीटी में खबर प्रकाशित होने के बाद इस संबंध में कई शिक्षकों ने राजभवन तक शिकायत दर्ज करायी। माना जा रहा है कि इसके बाद राजभवन ने एलयू से रिपोर्ट तलब कर ली थी। यही वजह है कि कार्य परिषद ने इंटरव्यू करने के बाद भी सभी भर्तियों को निरस्त करते हुए नए सिरे से विज्ञापन कर भर्तियां करने का फैसला किया है।

करीब डेढ़ साल पहले स्क्रीनिंग कमिटी ने जिन अभ्यर्थियों को इंटरव्यू के लिए चुना था, उनकी शिकायत राजभवन से हुई थी। इस बीच भर्तियों से जुड़े कई नियम भी बदल गए हैं। ऐसे में राजभवन से निर्देश मिलने के बाद नए से भर्तियों का विज्ञापन किया जाएगा।
प्रो़ एनके पांडेय, प्रवक्ता
एलयू

एलयू मेहरबान तो असोसिएट प्रोफेसर के लिए पीएचडी की भी जरूरत नहीं

(रणविजय सिंह, 29 मई, पार्ट वन)
एलयू के कई विभागों में मंगलवार को प्रोफेसर, असिस्टेंट प्रोफेसर और असोसिएट प्रोफेसरों की नियुक्ति के लिए होने वाली चयन समिति की बैठक पर ही सवाल खड़े हो गए हैं। गड़बड़ियों और मनानी की आशंका जताते एलयू के कुछ शिक्षकों ने कुलपति डॉ़ एसपी सिंह और राजभवन से चयन समिति की बैठक स्थगित करने और इसकी जांच करवाने की मांग तक कर डाली है। आरोप है कि इन पदों के लिए केवल वही अभ्यर्थी आवेदन कर सकते थे, जो पीएचडी करवा रहे हों। इसके उलट इंटरव्यू के लिए कई ऐसे अभ्यर्थियों को कॉल लेटर भेज दिया गया है, जिन्होंने कभी किसी रिसर्च स्कॉलर को पीएचडी करायी ही नहीं। इसमें कुछ नाम निजी डिग्री कॉलेजों में पढ़ाने वाले शिक्षकों के भी हैं।
एलयू के संस्कृत विभाग में असेस्टेंट प्रोफेसर डॉ़ प्रयाग नारायण मिश्रा ने असोसिएट प्रोफेसर के लिए आवेदन किया था। डेढ़ साल पहले असोसिएट प्रोफेसर के लिए बनी स्क्रीनिंग कमिटी ने उनका नाम ही नहीं भेजा, जबकि वर्ष 2004 में उन्हें बकायदा इसी पद के लिए लिखित परीक्षा और इंटरव्यू तक के लिए बुलाया गया था। हालांकि उस समय उनका चयन नहीं हो सका था। आज होने वाली चयन समिति पर उन्होंने सवाल उठाते हुए कहा कि इस पद के लिए डॉ़ विजय कर्ण, डॉ़ प्रमोद भारती, डॉ़ रीता तिवारी और डॉ़ विजय प्रताप सरकारी डिग्री कॉलेज और डॉ़ ब्रह्मनंद पाठक एक निजी डिग्री कॉलेज में शिक्षक हैं। आरोप है कि इनमें से किसी ने कभी कोई पीएचडी नहीं करायी। चौंकाने वाली बात यह है कि ऐसे अभ्यर्थियों को कॉल लेटर भेजने वाले एलयू के अधिकारी, एलयू में ही पिछले 10 वर्ष से पीएचडी करा रहे शिक्षकों को इंटरव्यू के लिए बुलाया ही नहीं।
मनमानी का आरोप :
संस्कृत विभाग के सहायक प्राध्यापक डॉ़ देवेश कुमार मिश्रा ने एलयू पर सिलेक्शन के नाम पर मनमानी के गंभीर आरेाप लगाए। उनके मुताबिक असोसिएट प्रोफेसर के लिए आठ साल का टीचिंग एक्सपीरिएंस मांगा गया था लेकिन नौ साल का अनुभव होने के बावजूद उन्हें कॉल लेटर नहीं भेजा गया। डेढ़ साल पहले बनी स्क्रीनिंग कमिटी ने उनका नाम लिस्ट से बाहर कर दिया था। अब सिलेक्शन कमिटी की बैठक होने पर उन्होंने इसका कारण पूछा तो उन्हें इसका कोई संतोषजनक जवाब नहीं दिया गया। आरोप है कि अधिकरी उन्हें इधर से उधर दौड़ाते रहे।

चयन समिति की बैठक तय होने के बाद इन अभ्यर्थियों ने मुझे इसकी शिकायत की। डेढ़ साल पहले स्क्रीनिंग कमिटी ने इन शिक्षकों के नाम तय किए थे। अब सभी को कॉल लेटर भेजे जा चुके हैं। हालांकि इसके बाद भी शिकायत का संज्ञान लिया जाएगा। गड़बड़ी या पक्षपात साबित हुआ तो कार्रवाई की जाएगी।
डॉ़ एसपी सिंह, कुलपति
एलयू 

Tuesday, 30 May 2017

5 साल से गायब कर्मचारी को अपने यहां तैनात दिखा कर दिया नियमित

(रणविजय सिंह, पांच मई 2017, पार्ट थ्री)

एलयू के कुलसचिव कार्यालय पर 'चिराग तले अंधेरा' कहावत सटीक बैठती है। संविदा कर्मचारियों को नियमित करने के लिए कुलसचिव कार्यालय ने जो 128 कर्मचारियों की सूची शासन को भेजी है, उसमें अंगद कुमार नामक कर्मचारी का भी नाम है। चौंकाने वाली बात यह है कि यह कर्मचारी पिछले पांच साल से गायब चल रहा है। इसकी उपस्थिति और मौजूदगी का कोई दस्तावेज एलयू में नहीं है। इसके बावजूद कुलसचिव कार्यालय ने इसे अपने यहां तैनात दिखाते हुए नियमित किए जाने की सिफारिश कर दी गई। मामला खुलने के बाद एलयू अधिकारी इसे गलती बता रहे हैं तो कर्मचारी संघ इसके लिए अधिकारियों की मंशा पर सवाल उठा रहा है।
शासन ने एलयू के संविदा, दैनिक वेतन और वर्कचार्ज पर काम कर रहे कर्मचारियों को नियमित करने का आदेश दिया लेकिन एलयू अधिकारियों ने इस आदेश को ढ़ाल बनाते हुए जिसे चाहा उसे नियमित कर दिया। एनबीटी ने इस गड़बड़ी को प्रमुखता से प्रकाशित किया, इसके बाद इस पूरे मामले की जांच के आदेश हो गए। इस बीच पड़ताल के दौरान नियुक्ति में हुए फर्जीवाड़े का नया खुलासा हुआ। कर्मचारी महासंघ के मुताबिक एलयू अधिकारियों ने संविदा कर्मचारियों के लिए जारी हुए शासनादेश के बहाने ऐसे कई कर्मचारियों को भी नियमित कर दिया, जो एलयू छोड़ चुके थे। महासंघ के महामंत्री रिंकू राय का आरोप है कि इसके पीछे बड़े पैमाने पर 'डील' हुई है, जिसकी जांच होनी चाहिए।

कुलसचिव कार्यालय की भूमिका पर सवाल :
कुलसचिव कार्यालय ने पिछले साल 26 जून को एलयू में संविदा, दैनिक वेतन और वर्कचार्ज पर काम कर रहे कर्मचारियों की जो सूची शासन को भेजी, उसमें 64वें नंबर पर अंगद कुमार का नाम दर्ज है। इसे कुलसचिव कार्यालय में तैनात दिखाया गया है। ऐसे में साफ है कि सूची तैयार करने से पहले इस बात की पड़ताल तक नहीं की गई कि कर्मचारी तैनात भी है या नहीं। कर्मचारी महासंघ के मुताबिक कुलसचिव कार्यालय ने सूची तैयार करने से पहले दूसरे विभागों से भी कोई ब्योरा नहीं मांगा और बंद कमरे में बैठकर 128 कर्मचारियों की सूची फाइनल कर दी गई।

परीक्षा सेल में था अंगद, गायब हो गया :
एलयू दस्तावेजों के मुताबिक अंगद कुमार पांच साल पहले परीक्षा विभाग के एक सेल में दैनिक वेतन पर काम करता था। पांच साल से उसका कोई पता नहीं है। सेल में उसकी उपस्थिति या मौजूदगी का कोई दस्तावेज नहीं है। इसके बावजूद एलयू अधिकारियों ने उसे नियमित करने की सिफारिश भेज दी है।

एलयू से भेजी गई सूची में 31 आपत्तियां हैं। हमने हर आपत्ति के सुबूत एलयू और शासन के अधिकारियों को सौंप दिए हैं। इस मामले में अगर निष्पक्ष जांच हुई तो कई अधिकारियों को जेल भी जाना पड़ सकता है।
रिंकू राय, महामंत्री
उप्र राज्य विवि कर्मचारी महासंघ

एलयू में मनमानी नियुक्तियों की जांच के आदेश, रजिस्ट्रार तलब

(रणविजय सिंह, चार मई 2017, पार्ट टू)

एलयू में संविदा कर्मचारियों के बहाने मनमाने तरीके से की गई नियुक्तियों की जांच के आदेश हो गए हैं। यही नहीं इस मामले में मनमानी नियुक्ति के दायरे में आ रहे कर्मचारियों के मूल दस्तावेजों के साथ एलयू के रजिस्ट्रार को 12 मई को तलब कर लिया गया है। उच्च शिक्षा विभाग के अनु सचिव अतुल कुमार मिश्र ने एलयू की कार्यशैली पर कड़ी नाराजगी जताते हुए इसके जिम्मेदार कर्मचारियों और अधिकारियों के खिलाफ दंडात्मक कार्यवाही करने को कहा है।
शासन ने एलयू में 31 दिसंबर 2001 से पहले तैनात संविदा, वर्कचार्ज और दैनिक वेतन पर काम कर रहे कर्मचारियों को नियमित करने का आदेश हुआ था। इस आदेश के बहाने एलयू अधिकारियों ने 128 ऐसे कर्मचारियों को नियमित कर दिया, जो प्रमोट होकर इस दायरे से ऊपर उठ चुके थे। एनबीटी ने इस गड़बड़ी का खुलासा करते हुए प्रमुखता से खबर प्रकाशित की। उप्र राज्य विवि कर्मचारी महासंघ ने एनबीटी की खबर को आधार बनाते हुए शासन में इसकी शिकायत दर्ज करा दी। मामले की जानकारी होते ही अनु सचिव अतुल कुमार मिश्र ने इस मामले में जांच के आदेश दिए।

हर कदम गड़बड़ियों के आरोप :
उप्र राज्य विवि कर्मचारी महासंघ के महामंत्री रिंकू राय के मुताबिक नियुक्ति में हर कदम पर गड़बड़ी की गई। उनके मुताबिक जूलॉजी विभाग में तैनात नत्थू लाल को 1995 में नियुक्ति दिखाते हुए नियमित किया जा रहा है जबकि उन्हें 2004 में पहली तैनाती मिली थी। यही नहीं नियमित किए गए कर्मचारियों की एलयू की सूची में सुरेंद्र गुप्ता का नाम 30वें नंबर पर है, लेकिन शासन को भेजी गइ सूची में उनका नाम ही नहीं है। शिवेंद्र तिवारी ने एलयू में 1996 में ज्वाइन किया था। उनका नाम शासन को भेजी गई सूची में तो है लेकिन एलयू ने जिन कर्मचारियों को नियमित किया है, उस सूची से नाम गायब है।

अभी हमें शासन की तरफ से ऐसा कोई पत्र नहीं मिला है। नियुक्ति में गड़बड़ियों के आरोप बेबुनियाद हैं। पत्र मिलने के बाद आगे की कार्यवाही की जाएगी।
डॉ़ एसपी सिंह, कुलपति
एलयू 

संविदा कर्मचारियों के बहाने एलयू ने जिसे चाहा उसे नियमित कर दिया

(रणविजय सिंह, तीन मई 2017, पार्ट वन)

शासन ने एलयू के संविदा, दैनिक वेतन और वर्कचार्ज पर काम कर रहे कर्मचारियों को नियमित करने का आदेश दिया लेकिन एलयू अधिकारियों ने इस आदेश को ढ़ाल बनाते हुए जिसे चाहा उसे नियमित कर दिया। दस्तावेजों के मुताबिक पिछले हफ्ते शासन के आदेश पर जिन 128 कर्मचारियों को नियमित किया गया है, उनमें से ज्यादातर काफी पहले ही प्रमोट होकर संविदा, दैनिक वेतनमान और वर्कचार्ज के दायरे से ऊपर उठ चुके थे। मनमानी का आलम यह है कि कई कर्मचारियों का नाम शासन को भेजी गई लिस्ट में तो है लेकिन एलयू की लिस्ट में नहीं। वहीं कुछ का नाम एलयू की लिस्ट में होने के बावजूद शासन की सूची से गायब है।
एलयू में 31 दिसंबर वर्ष 2001 से पहले संविदा, दैनिक वेतन और वर्कचार्ज पर तैनात कर्मचारियों को नियमित करने का आदेश पिछले साल 21 जून को जारी हुआ था। इस आदेश का हवाला देते हुए एलयू प्रशासन ने 198 पद खाली होने की रिपोर्ट शासन को भेज दी। शासनादेश के मुताबिक एलयू में खाली इन पदों पर यहां 2001 से पहले से संविदा, दैनिक वेतन और वर्कचार्ज पर काम कर रहे कर्मचारियों को नियमित किया जाना था। उप्र राज्य विवि कर्मचारी महासंघ ने आरोप लगाया है कि इन पदों पर कर्मचारियों को नियमित करने के बहाने एलयू अधिकारियों ने जमकर मनमानी की। इस संबंध में सुबूतों के साथ महासंघ ने उच्च शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव, शिक्षमंत्री और मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर जांच कराए जाने की मांग की है।

यह हैं गड़बड़ियां :
_ शासन को भेजी गई सूची में क्रम संख्या 87 पर रईसा बानो का नाम है, जिन्हें ओबीसी दिखाया गया है। एलयू के दस्तावेजों में वह सामान्य कैटेगरी की हैं।
_ जूलॉजी विभाग में तैनात नत्थू लाल को 1995 में नियुक्ति दिखाते हुए नियमित किया जा रहा है जबकि उन्हें 2004 में पहली तैनाती मिली थी।
_ नियमित किए गए कर्मचारियों की एलयू की सूची में सुरेंद्र गुप्ता का नाम 30वें नंबर पर है, लेकिन शासन को भेजी गइ सूची में उनका नाम ही नहीं है।
_ शिवेंद्र तिवारी ने एलयू में 1996 में ज्वाइन किया था। उनका नाम शासन को भेजी गई सूची में तो है लेकिन एलयू ने जिन कर्मचारियों को नियमित किया है, उस सूची से नाम गायब है।
_ टैगोर पुस्तकालय में तीन वरिष्ठ कर्मचारियों को दरकिनार करते हुए जूनियर कर्मचारियों को नियमित कर दिया गया।
_ एलयू ने जिन कर्मचारियों को निमयित किया है, उनमें कई ऐसे हैं जिनके खिलाफ सतर्कता विभाग की जांच होने के बाद दोषी पाया जा चुका है।


शासन ने संविदा, वर्कचार्ज और दैनिक वेतन पर 31 दिसंबर 2001 से पहले से काम कर रहे कर्मचारियों को नियमित करने का आदेश दिया था। इस तीनों कैटेगरी में आने वाला कोई कर्मचारी ही एलयू में नहीं है। इसके बावजूद एलयू अधिकारियों ने इस आदेश के बहाने जमकर मनमानी की है। हमने निष्पक्ष जांच की मांग की है। हमारे पास सारे दस्तावेज हैं, जिनके मुताबिक अधिकारियों की मिलीभगत साबित हो जाएगी। इस मामले में कई लोग जेल भी जा सकते हैं।
रिंकू राय, महामंत्री
उप्र राज्य विवि कर्मचारी महासंघ

कर्मचारी नेता कई जगह शिकायत दर्ज करा रहे हैं। इसमें कुछ कमी हो सकती है लिहाजा हमने आपत्तियां मांगी थीं। लिस्ट बनाने से पहले काफी जांच पड़ताल और दस्तावेजों का सत्यापन कराया गया था। आपत्तियां मिलने के बाद जो गलत नाम जुड़ गए हैं, उन्हें हटाया जा सकता है। कर्मचारी संघ ने शासन स्तर पर शिकायत दर्ज करायी है लेकिन हमें अभी तक कोई आपत्ति नहीं मिली है।
राजकुमार सिंह, कुलसचिव
एलयू 

जमानत फीस के लाखों रुपयों का हिसाब नहीं, बिजली के बिल पर सवाल

(रणविजय सिंह, 6 मई 2017, बायोटेक पार्ट फोर )

बायोटेक पार्क में निजी कंपनियों ने जमानत फीस के तौर पर जितनी रकम जमा की, उतनी संस्थान के बैंक अकाउंट में नहीं है। यही नहीं निजी कंपनियों ने जितनी बिजली खर्च की, उसके बिल का ज्यादातर हिस्सा बायोटेक पार्क ने अपने पास से लेसा को भुगतान किया। यही नहीं पिछले 10 वर्ष के दौरान यहां आयीं 32 कंपनियों से कब, किस दर से और कितना किराया तय किया गया? और कितना जमा कराया गया? इसके दस्तावेज भी संदिग्ध है।
शासन के आदेश पर बायोटेक पार्क की स्पेशल ऑडिट में ऐसी तमाम खामियां सामने आयी हैं। इसकी रिपोर्ट शासन को भेजते हुए कार्रवाई की सिफारिश हुई है, जिसके बाद गुडंबा थाने में मामला दर्ज करते हुए जांच शुरू कर दी गई है। शासन के निर्देश पर हुई स्पेशल ऑडिट में यहां लम्बे समय से वित्तीय अनियमितताओं के सुबूत मिलने का दावा किया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक साल दर साल निजी कंपनियों द्वारा खर्च की जा रही बिजली का बिल भी पहले बायोटेक पार्क अपने पास से जमा करता था और बाद में इस बिल का केवल 50 से 60 फीसदी हिस्सा ही निजी कंपनियों से वसूला जाता था। जांच रिपोर्ट के मुताबिक बायोटेक पार्क में निजी कंपनियों के साथ पीपीपी मॉडल पर चल रहे ज्यादातर प्रॉजेक्ट घाटे में चल रहे हैं। आशंका है कि निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए कागजों पर घाटा दिखाया जाता रहा।

कहां गई जमानत फीस की रकम :
स्पेशल ऑडिट में निजी कंपनियों की जमानत फीस की रकम पर भी सवाल उठा है। रिपोर्ट के मुताबिक पिछले वित्तीय वर्ष में कंपनियों और ठेकेदारों ने 62 लाख 65 हजार नौ सौ 48 रुपये जमानत फीस के तौर पर जमा किए। यह रकम बायोटेक पार्क के बैंक खाते में रहनी चाहिए, क्योंकि इसे खर्च नहीं किया जा सकता। इसके उलट जांच के दौरान पार्क के बैंक खाते में केवल 22 लाख 52 हजार आठ सौ 24 रुपये ही मिले। इसके अलावा बायोटेक पार्क के अधिकारियों ने 19 लाख 33 हजार की एफडी दिखायी। बैंक खाते और एफडी की रकम मिला लें तो भी जमानत फीस के तौर पर जमा हुई रकम से 20 लाख 79 हजार तीन सौ 16 रुपये कम है। यह रकम कहां गई? इस सवाल का जवाब ऑडिट टीम को नहीं मिल सका।

32 कंपनियों का किराया :
ऑडिट टीम की जांच में पता चला कि पिछले 10 वर्ष के दौरान यहां बिजनेस करने आयीं 32 कंपनियों से रखरखाव और किराए के तौर पर तीन करोड़ 83 लाख 27 हजार चार सौ दो रुपये जमा कराए जाने चाहिए थे। यह रकम जमा हुई या नहीं, इससे जुड़े दस्तावेजों में कई कमियां पायी गईं। जांच के दौरान यह साफ नहीं हो सका कि यह रकम कभी जमा भी हुई थी या नहीं।

सब ठीक है :
बायोटेक पार्क में किसी भी तरह की वित्तीय अनियमितता नहीं हुई है। ऑडिट टीम को सभी आपत्तियों का जवाब भेज दिया गया था। बिजली के बिल से जुड़ी जो भी आपत्ति थी, उसके जवाब में हर महीने का बिल दिखा दिया गया है। जांच टीम काफी जल्दबाजी में थी, इसके चलते कई दस्तावेज हड़बड़ी के चलते नहीं दिखाए जा सके थे। ऐसे सभी कागज बाद में दिखा दिए गए। इसके बावजूद आपत्तियों में उन्हें दर्ज कर लिया गया। जो आपत्तियां हैं, उनका जवाब हमारे पास है। शासन जरूरी समझेगा तो हम उन्हें उपलब्ध करा देंगे।
प्रमोद टंडन, सीईओ
बायोटेक पार्क

बायोटेक पार्क के पूर्व CEO पर FIR, करोड़ों के खर्च का हिसाब नहीं

(रणविजय सिंह, 6 मई, बायोटेक पार्ट थ्री)

बायोटेक पार्क की जमीन का बड़ा हिस्सा निजी कंपनियों को बिजनेस करने के लिए दिए जाने और बड़े पैमाने पर वित्तीय अनियमितता के आरोप में यहां के पूर्व सीईओ के खिलाफ पुलिस ने मामला दर्ज कर जांच शुरू कर दी है। गड़बड़ियों की शिकायत पर शासन स्तर से करायी गई जांच में यहां करोड़ों रुपये के खर्च का हिसाब ही नहीं मिला था। एनबीटी ने इसे प्रमुखता से प्रकाशित किया, जिसके बाद यह बड़ी कार्रवाई हुई है। जांच रिपोर्ट के मुताबिक बायोटेक पार्क से जुड़े कैश बुक, लेजर और किराए से जुड़े दस्तावेज संदिग्ध हैं। इनपर कार्यालय टिप्पणी और नोट्स तक नहीं हैं।
बायोटेक पार्क में गड़बड़ियों की शिकायत पर विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी विभाग के प्रमुख सचिव हिमांशू कुमार ने जांच के आदेश दिए थे। इसकी रिपोर्ट के मुताबिक एलडीए से रिमोट सेंसिंग सेंटर को मिली 36 एकड़ जमीन में से वर्ष 2003 में बायोटेक पार्क बनाने के लिए आठ एकड़ जमीन दी गई थी। बायोटेक पार्क के अधिकारियों ने इस आठ एकड़ जमीन में से करीब 80 हजार वर्ग फीट क्षेत्र तीन निजी कंपनियों को मामूली दर पर किराए पर दे दी। इसके बाद यहां इन कंपनियों ने अपनी फैक्ट्री, स्टोर और कार्यालय के लिए पक्का निर्माण करा लिया। एनबीटी ने इस गड़बड़ी का खुलासा किया, इसके बाद बायोटेक पार्क और मामूली दरों पर जमीन लेने वाली कंपनियों को जवाब नहीं सूझ रहा है।

प्रमुख सचिव के आदेश पर भी नहीं दर्ज हो रही थी एफआईआर :
विज्ञान एवं प्रद्योगिकी के प्रमुख सचिव हिमांशू कुमार ने बायोटेक पार्क में लम्बे समय से चल रही गड़बड़ियों की जांच करायी, जिसमें चौंकाने वाली गड़बड़ियां सामने आयीं। इसके मुताबिक उन्होंने एफआईआर के आदेश दिए। प्रमुख सचिव के निर्देश पर भी गुडंबा थाने की पुलिस एफआईआर नहीं दर्ज कर रही थी। कई बार रिमाइंडर के बाद भी एफआईआर नहीं हुई तो उन्होंने इस मामले की रिपोर्ट गृह विभाग को भेज दी। इसके बाद गुरुवार को कार्रवाई के लिए फाइल मुख्य सचिव को भेजे जाने की तैयारी थी लेकिन इस बीच एनबीटी में खबर प्रकाशित होने के बाद पुलिस ने मामला दर्ज कर लिया।

पहले तहरीर दी गई थी, उसमें केवल कंपनियों को नामजद किया गया था। हमने सही तहरीर देने के लिए कहा था, इसके चलते देर हो रही थी। अब सही तरीके से तहरीर देकर बायोटेक पार्क के अधिकारियों को भी आरोपी बनाया गया है। इसके बाद हमने एफआईआर दर्ज करके जांच शुरू कर दी है।
राजकुमार सिंह, इंस्पेक्टर
गुडंबा

आमदनी अठन्नी, खर्च रुपईया

(रणविजय सिंह, 5 मई 2017, बायोटेक पार्क पार्ट टू)

बायोटेक पार्क में खर्च के तौर तरीकों पर 'आमदीन अठन्नी खर्चा रुपईया' वाली कहावत सटीक बैठती है। यहां वित्तीय अनियमितताओं की जांच रिपोर्ट के मुताबिक वित्तीय वर्ष 2015-16 में यहां करीब दो करोड़ 93 लाख रुपये की आय हुई, जबकि अधिकारियों ने तीन करोड़ 96 लाख रुपये खर्च कर दिए। जांच रिपोर्ट के मुताबिक अधिकारियों ने करीब एक करोड़ रुपये ज्यादा खर्च किया। यह रकम कहां से आयी और क्यों खर्च की गई? जांच शुरू होने के बाद इस सवाल का जवाब अधिकारियों को नहीं सूझ रहा है। यही नहीं जिन तीन कंपनियों को यहां जमीन दी गई है, उनके चयन के तौर तरीकों पर भी सवाल उठ रहे हैं।

नहीं बता रहे तीन कंपनियों के चयन का आधार :
जांच रिपोर्ट के मुताबिक लाइफ केयर इनोवेशन, चंदन हेल्थ केयर और अमोर हर्बल प्रालि को करीब 80 हजार वर्गफीट जमीन दे दी गई। जांच के दौरान बायोटेक पार्क के अधिकारी यह नहीं बता सके कि इन कंपनियों को जमीन देने से पहले कब और किस अखबार में इसके लिए विज्ञापन किया गया था? इस विज्ञापन के आधार पर कितनी कंपनियों ने आवेदन किया और उसमें से इन तीनों को किस आधार पर चुना गया? आरोप लग रहे हैं कि इन तीनों को सीधे जमीन दे दी गई, जिसपर इन्होंने पक्का निर्माण करा लिया।

शब्द बदलकर निकाला जमीन देने का रास्ता :
बायोटेक पार्क अपनी जमीन किसी को किराए पर या सबलेट के जरिए नहीं दे सकता था। जांच रिपोर्ट के मुताबिक अधिकारियों ने अपनी चहेती कंपनियों को जमीन देने के लिए एक नया शब्द तैयार किया 'लाइसेंस'। अधिकारियों ने जो दस्तावेज तैयार किए, उसके मुताबिक इन तीनों कंपनियों को यहां काम करने का लाइसेंस दिया गया और इसके एवज में कंपनियां लाइसेंस फीस जमा करती हैं। शासन स्तर से करायी गई जांच में इसे गलत पाया गया। यही नहीं बायोटेक पार्क के अधिकारी जमीन किराए पर दिए जाने की बात कह रहे हैं जबकि कंपनियां मेनटेनेंस फीस पर काम करने का दावा कर रही हैं।

अधिकारी बोलने को तैयार नहीं :
मामला खुलने के बाद बायोटेक पार्क के आला अधिकारी कुछ भी बोलने को तैयार नहीं हैं। हालांकि उनका दावा है कि जो भी फैसला हुआ है, वह पूरी तरह से मानकों का पालन करते हुए किया गया है। अधिकारियों का  दावा है कि जमीन देने का फैसला गवर्निंग बॉडी और एडवाइजरी कमिटी की मौजूदगी में हुआ था। इसमें शासन के अधिकारी भी मौजूद थे।

बायोटेक पार्क के लिए जमीन मिली, चहेती कंपनियों को बांट दी


(रणविजय सिंह, 4 मई 2017, बायोटेक पार्ट वन)

जो जमीन एलडीए से बायोटेक पार्क के लिए मिली थी, उसे यहां के अधिकारियों ने मिलीभगत कर निजी कंपनियों को बांट दी। करोड़ों रुपये की जमीन महज 1.90 रुपये और 2.50 रुपये की दर से किराए पर दे दी गई। इसके बाद यहां इन कंपनियों ने अपनी फैक्ट्री, स्टोर और कार्यालय के लिए पक्का निर्माण करा लिया। निजी कंपनियों पर बायोटेक पार्क के अधिकारियों की मेहरबानी यहीं नहीं थमी। अपने उत्पाद के लिए यह कंपनियां जितनी बिजली खर्च कर रही थीं, उसका बिल भी बायोटेक पार्क के खजाने से किया जाता रहा। यहां काम करने वाले कुछ कर्मचारियों की शिकायत पर शासन ने जांच करायी तो बड़े पैमाने पर गड़बड़ियों का खुलासा हुआ। इसके बाद प्रमुख सचिव ने एफआईआर के आदेश दे दिए और कार्रवाई के लिए जांच रिपोर्ट गृह विभाग भेज दी गई।

सबलेट पर पाबंदी के बावजूद दे दी जमीन :
जांच रिपोर्ट के मुताबिक एलडीए ने 12 सितंबर 1989 को सीतापुर रोड़ के पास 36 एकड़ जमीन रिमोट सेंसिंग विभाग को दी। इसके बाद 5 सितंबर 2003 को रिमोट सेंसिंग विभाग ने इसमें से आठ एकड़ जमीन बायोटेक पार्क बनाने के लिए 30 साल के लिए लीज रेंट पर दे दिया। रिमोट सेंसिंग और बायोटेक पार्क के बीच हुए लीज रेंट एग्रीमेंट के तहत बायोटेक पार्क यह जमीन किसी को लीज रेंट पर नहीं दे सकता और ना ही सबलेट कर सकता है। इस एग्रीमेंट की शर्तों का उल्लंघन करते हुए बायोटेक पार्क के अधिकारियों ने तीन कंपनियों लाइफ केयर इनोवेशन प्रालि, चंदन हेल्थ केयर और अमोर हर्बल प्रालि को करीब 8000 वर्गफीट जमीन सबलेट कर दी।

3000 रुपये का भाव, 1.90 रुपये तय कर दिया :
जांच रिपोर्ट के मुताबिक इस जमीन की कीमत 3000 रुपये प्रति वर्गफीट है लेकिन बायोटेक पार्क के अधिकारियों ने इसे महज 1.90 रुपये प्रति वर्गफीट की दर से किराए पर उठा दिया। तीनों कंपनियों को दी गई जमीन की कीमत 3000 रुपये प्रति वर्गफीट के मुताबिक तय करें तो करीब 23 करोड़ रुपये होती है। इसपर 10 फीसदी ब्याज लगाया जाए तो करीब दो करोड़ रुपये हुए। इसके उलट इन कंपनियों से इस जमीन के एवज में केवल एक करोड़ 88 लाख रुपये ही जमा करने को कहा गया। यह रकम भी कंपनियों ने जमा की या नहीं, इसका ब्योरा नहीं है। आशंका जतायी गई है कि यह मामूली रकम भी जमा किए बिना ही निर्माण करा लिया गया।


बायोटेक पार्क की जमीन देने का फैसला मेरा नहीं है। मैने डेढ़ साल पहले ही ज्वाइन किया है। हालांकि मेरी जानकारी के मुताबिक जमीन देने का फैसला अकेले बायोटेक पार्क के अधिकारियों का नहीं है। बायोटेक पार्क की गवर्निंग बॉडी, एडवाइजरी काउंसिल, प्रमुख सचिव और भारत सरकार के बायोटेक्नोलॉजी विभाग के सचिव की मंजूरी भी ली गई थी।
प्रमोद टंडन, सीईओ
बायोटेक पार्क

गड़बड़ियों की शिकायत के बाद जांच करायी गई है। रिपोर्ट मेरे मुझे मिल गई है। इसमें बड़े पैमाने पर गड़बड़ियों के संकेत मिले हैं। इसके बाद मैने एफआईआर के लिए आदेश दिया था लेकिन तकनीकी कारणों से एफआईआर नहीं हो सकी। लिहाजा कार्रवाई के लिए रिपोर्ट शासन और गृह विभाग को भेज दी गई है।
हिमांशू कुमार, प्रमुख सचिव
विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी

Tuesday, 23 May 2017

नए मेडिकल कॉलेज खोल दिए लेकिन पढ़ाएगा कौन? पता नहीं


 (रणविजय सिंह, 22 मई 2017, लोहिया इंस्टिट्यूट पार्ट सात)

लोहिया इंस्टीट्यूट समेत कई नए मेडिकल कॉलेज खोलने का दावा करते हुए चिकित्सा शिक्षा विभाग के अधिकारी अपनी पीठ थपथपाने में लगे हैं लेकिन इन कॉलेजों में दाखिला लेने वाले स्टूडेंट्स को पढ़ाएगा कौन? इस सवाल का जवाब आला अधिकारियों के पास नहीं है। हालात इस कदर बदतर हैं कि कई मेडिकल कॉलेजों में प्रोफेसरों के 20 से 24 नियमित पदों पर केवल एक या दो प्रोफेसरों की ही नियुक्ति हो सकी है। कुछ जगहों पर तो एक भी असिस्टेंट प्रोफेसर है ही नहीं। ज्यादातर कॉलेजों में शिक्षकों के 50% से 70% तक नियमित पद खाली पड़े हैं। इस बीच इस साल जनवरी से अब तक करीब 25 से 30 प्रोफेसरों के इस्तीफे ने नया संकट खड़ा कर दिया है। इस्तीफा देने वालों में झांसी और आगरा मेडिकल कॉलेज के कार्यवाहक प्रिंसिपल के नाम भी हैं।

जून में होने हैं दाखिले, जुलाई से कक्षाएं :
लखनऊ समेत प्रदेश भर के मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस दाखिले के लिए जून में काउंसलिंग होनी है। इसके बाद जुलाई से कक्षाएं शुरू होंगी। इस बीच सरकारी मेडिकल कॉलेजों में शिक्षकों की कमी ने नया संकट खड़ा कर दिया है। चिकित्सा शिक्षा विभाग ने जिस तेजी से नए मेडिकल कॉलेज खोलने में दिलचस्पी दिखायी, उतनी तेजी यहां कक्षाएं चलाने लायक शिक्षकों की भर्ती को लेकर नहीं दिखायी गई। नतीजा हुआ कि शासन को हाल ही में भेजी गई रिपोर्ट के मुताबिक इन कॉलेजों में प्रोफेसर, असिस्टेंट प्रोफेसर और लेक्चरर के ज्यादातर पद खाली हैं। पिछले साल तक संविदा के भरोसे किसी तरह कक्षाएं चलायी गईं लेकिन इसके बावजूद 30 फीसदी तक शिक्षकों की कमी बनी रही। बदहाली की यह तस्वीर इस साल ज्यादा बुरी होने की आशंका है।

इस्तीफे ने बढ़ायी चिंता :
शिक्षकों के भारी संकट से जूझ रहे झांसी, आगरा, इलाहाबाद, कन्नौज, गोरखपुर और मेरठ मेडिकल कॉलेजों के करीब 25 से 30 शिक्षकों ने अचानक अपना इस्तीफा शासन को भेज दिया। इनमें से ज्यादातर प्रोफेसर हैं। झांसी और आगरा में तो कार्यवाहक प्रिंसिपलों तक ने अपना इस्तीफा भेज दिया है।

कहीं 1 तो कहीं 2 प्रोफेसरों के भरोसे पढ़ायी :
नए मेडिकल खोलने को अपनी उपलब्धि बता रहे चिकित्सा शिक्षा विभाग के अधिकारियों ने यहां कक्षाएं चलाए जाने और गुणवत्ता परक शिक्षा की कोई परवाह नहीं की। यही वजह है कि कई मेडिकल कॉलेज ऐसे हैं जो महज एक या दो प्रोफेसरों के भरोसे चल रहे हैं। अम्बेडकर नगर, जालौन, आजमगढ़, बांदा और बदायूं मेडिकल कॉलेजों में प्र्रोफेसर के 20 से 24 पद हैं लेकिन कहीं भी दो से ज्यादा प्रोफेसरों के पद नहीं भरे जा सके हैं। सहारनपुर मेडिकल कॉलेज में तो केवल एक प्रोफेसर हैं और यहां असिस्टेंट प्रोफेसर की एक भी भर्ती नहीं हो सकी है जबकि इसके 27 पद हैं। कन्नौज मेडिकल कॉलेज को लेकर पिछली सरकार काफी गंभीर थी, इसके बावजूद यहां प्रोफेसर के 24 पदों में से केवल चार पर नियमित भर्ती हो सकी।

कहां कितना संकट :
कानपुर मेडिकल कॉलेज :
पद पदों की संख्या नियमित खाली
प्रोफेसर 50 19 31
असिस्टेंट प्रोफेसर       54 12 42

इलाहाबाद मेडिकल कॉलेज :
पद पदों की संख्या नियमित खाली
प्रोफेसर 37 15 22
असिस्टेंट प्रोफेसर      51 22 29

आगरा मेडिकल कॉलेज:
पद पदों की संख्या नियमित खाली
प्रोफेसर 44 18 26
असिस्टेंट प्रोफेसर       71 19 53

झांसी मेडिकल कॉलेज :
पद पदों की संख्या नियमित खाली
प्रोफेसर 22 7 15
असिस्टेंट प्रोफेसर      42 12 30

मेरठ मेडिकल कॉलेज :
पद पदों की संख्या नियमित खाली
प्रोफेसर 33 20 13
असिस्टेंट प्रोफेसर       54 16 38

कानपुर मेडिकल कॉलेज :
पद पदों की संख्या     नियमित खाली
प्रोफेसर 50 19 31
असिस्टेंट प्रोफेसर     54 12 42

गोरखपुर मेडिकल कॉलेज :
पद पदों की संख्या      भरे       खाली
प्रोफेसर 19 12 5
असिस्टेंट प्रोफेसर       37 23         15

अम्बेडकर नगर मेडिकल कॉलेज :
पद पदों की संख्या भरे खाली
प्रोफेसर 24 3     21
असिस्टेंट प्रोफेसर        29 2 27

कन्नौज मेडिकल कॉलेज :
पद पदों की संख्या भरे    खाली
प्रोफेसर 24 4 20
असिस्टेंट प्रोफेसर          28 13 15

जालौन मेडिकल कॉलेज :
पद पदों की संख्या भरे   खाली
प्रोफेसर 23 1 22
असिस्टेंट प्रोफेसर          25              4 21

आजमगढ़ मेडिकल कॉलेज :
पद पदों की संख्या भरे खाली
प्रोफेसर 24 2 22
असिस्टेंट प्रोफेसर          26 6 20

सहारनपुर मेडिकल कॉलेज :
पद पदों की संख्या भरे खाली
प्रोफेसर 22 1 21
असिस्टेंट प्रोफेसर             27 0      27

बांदा मेडिकल कॉलेज :
पद पदों की संख्या      भरे खाली
प्रोफेसर 14 3       11
असिस्टेंट प्रोफेसर             19 3        16

बदायूं मेडिकल कॉलेज :
पद पदों की संख्या        भरे   खाली
प्रोफेसर 7 2        5
असिस्टेंट प्रोफेसर             17 1        16

सभी झूठ पकड़े गए तो मानी गलती, चहेतों की नियुक्ति का आदेश स्थगित

(रणविजय सिंह, 27 अप्रैल 2017, लोहिया इंस्टीट्यूट पार्ट छह)

लोहिया इंस्टीट्यूट में असिस्टेंट प्रोफेसरों के खाली पदों पर लोहिया अस्पताल के चहेते डॉक्टरों की नियुक्ति का आदेश स्थगित कर दिया गया है। एनबीटी की खबरों का संज्ञान लेते हुए चिकित्सा शिक्षा विभाग की प्रमुख सचिव अनीता भटनागर जैन ने नियुक्ति से जुड़ी रिपोर्ट तलब कर ली है। डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफेसर बनाए जाने के तौर तरीकों पर भी सवाल उठाते हुए उन्होंने लोहिया इंस्टीट्यूट में हर विभाग के मुताबिक शिक्षकों की कमी का ब्योरा तैयार करने को कहा है। इसके अलावा लोहिया अस्पताल से प्रतिनियुक्ति पर अगर किसी डॉक्टर को इन विभागों में असिस्टेंट प्रोफेसर के लिए लिए जाने की जरूरत है, तो इसके लिए लोहिया अस्पताल के विभागों में डॉक्टरों की वरिष्ठता सूची तैयार करायी जाए। इस सूची के मुताबिक ही जरूरत पड़ने पर चयन किया जा सकेगा।
लोहिया इंस्टीट्यूट के निदेशक प्रो़ दीपक मालवीय ने सात अप्रैल को लोहिया अस्पताल के 10 डॉक्टरों को इंस्टीट्यूट में असिस्टेंट प्रोफेसर के तौर पर नियुक्ति का आदेश जारी कर दिया था। एनबीटी की पड़ताल में सामने आया कि यह सभी डॉक्टर पिछली सरकार के कद्दावर नेता, मंत्री और सीएम कार्यालय में तैनात आईएस अधिकारियों के रिश्तेदार थे या फिर करीबी। इसका खुलासा होने के बाद इससे जुड़ी गड़बड़ियां परत दर परत खुलती गईं। पता चला कि इंस्टीट्यूट के अधिकारियों ने एमसीआई के औचक निरीक्षण का बहाना बनाकर अस्पताल के चहेते डॉक्टरों की नियुक्ति का आदेश जारी कर दिया था, ताकि बाद में इन्हें नियमित किया जा सके। यही नहीं असिस्टेंट प्रोफेसर के पद खाली रखने की नीयत से इन पदों के लिए हुए इंटरव्यू में कई आवेदकों को कॉल लेटर तक नहीं भेजा गया। एनबीटी ने इन तमाम पहलुओं को प्रमुखता से प्रकाशित किया था। इसपर प्रमुख सचिव ने लोहिया इंस्टीट्यूट से भर्ती प्रक्रिया इन गड़बड़ियों से जुड़ी पूरी रिपोर्ट तलब कर ली है। यही नहीं इंस्टीट्यूट में शिक्षकों के खाली पदों और लोहिया अस्पताल के डॉक्टरों का ब्योरा भी देने को कहा है।

रिश्तेदारों का जमावड़ा :
लोहिया अस्पताल के कई विभागों में 30 से 40 फीसदी पदों पर यहां तैनात डॉक्टर, एचओडी और अधिकारियों के रिश्तेदार जमे हुए हैं। विभागों में तैनात कइ डॉक्टर तो ऐसे हैं, जिनका चयन करने वाली चयन समिति तक में उनके रिश्तेदार शामिल थे। यही नहीं अस्पताल में संविदा पर हुई भर्तियों में भी जमकर भाई भतीजावाद किया गया है। भ्रष्टाचार मुक्त भारत के मोहम्म्द शारिक खान का आरोप है कि पिछली सरकार में लोहिया इंस्टीट्यूट को यहां के अधिकारियों ने  आईएएस अधिकारियों, नेता, मंत्रियों और अपने करीबियों का एंप्लायमेंट हाउस बना दिया गया था। शारिक खान ने लोहिया इंस्टीट्यूट में पिछले पांच वर्ष के दौरान हुई नियुक्तियों और मैन पावर एजेंसियों की जांच की मांग की है।

मैने लोहिया इंस्टीट्यूट के निदेशक के रिपोर्ट तलब कर ली है। जिन डॉक्टरों को उन्होंने नियुक्ति दिखायी है, उन्हें नियुक्ति नहीं दी जा सकती। लोहिया अस्पताल के वरिष्ठ डॉक्टरों की सूची तैयार करायी जा रही है। प्रतिनियुक्ति पर तैनाती की जरूरत महसूस हुई तो वरिष्ठता के मुताबिक ही चयन होगा।
अनीता भटनागर जैन, प्रमुख सचिव
चिकित्सा शिक्षा

चहेतों को नियुक्त करने के लिए बाकियों को कॉल लेटर ही नहीं भेजा



(रणविजय सिंह, 23 अप्रैल 2017, लोहिया इंस्टीट्यूट पार्ट फाइव)

चहेतों को असिस्टेंट प्रोफेसर बनाने के लिए लोहिया इंस्टीट्यूट के अधिकारियों ने हर वो दांव इस्तेमाल किया जो वो कर सकते थे। पिछली सरकार में इन पदों के लिए विज्ञापन करने से लेकर चुनाव के दौरान प्रतिनियुक्ति का प्रस्ताव, इंटरव्यू और बीजेपी सरकार में गुपचुप तैनाती को लेकर अब कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आ रहे हैं।
एनबीटी की पड़ताल में सामने आया कि विज्ञापन के बाद आवेदन करने वाले कई अभ्यर्थियों को इंटरव्यू के लिए बुलाया ही नहीं गया। जिन्हें बुलाया उन्हें भी महज दो दिन पहले कॉल लेटर भेजा, ताकि दूर दराज के अभ्यर्थी समय से आ ही ना सकें। इसके बावजूद जो इंटरव्यू के दिन पहुंच गए, उनके अनुभव प्रमाणपत्रों और एनओसी समेत दूसरे मानकों की बारीक पड़ताल हुई और मामूली कमियां बताकर उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। यह तमाम तौर तरीके इस्तेमाल करने के बाद भी जिन विभागों में अधिकारी अपने चहेतों की भर्ती करने में सफल होते नहीं दिख रहे थे, उन विभागों का इंटरव्यू ही स्थगित कर दिया। इन तौर तरीकों का इस्तेमाल करते हुए मानसिक रोग, स्किन और आई विभाग को छोड़कर इंटरव्यू के जरिए बाकी विभागों में केवल इतने पदों पर भर्ती की गई ताकि असिस्टेंट प्रोफेसर 10 पद खाली रह जाएं। इस तरह हर विभागों के लिए दर्जनों काबिल आवेदकों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया और सात अप्रैल को एमसीआई की टीम आयी तो आपात स्थिति का हवाला देते हुए इन पदों पर लोहिया अस्पताल के 10 डॉक्टरों को प्रतिनियुक्ति पर तैनाती दे दी।
_ स्वास्थ्य निदेशालय में अपर निदेशक (प्रशासन) रहे डॉ़ आरवी सिंह ने लोहिया इंस्टीट्यूट में असिस्टेंट प्रोफेसर और मेडिकल सुपरीटेंडेंट के लिए आवेदन किया था। उन्हें कॉल लेटर नहीं भेजा गया। बतौर डॉ़ आरवी सिंह आवेदन करने के बाद वे कई बार निदेशक प्रो़ दीपक मालवीय, प्रमुख सचिव चिकित्सा शिक्षा अनीता भटनागर जैन एवं महानिदेशक डॉ़ बीएन त्रिपाठी से भी मिले लेकिन उन्हें इंटरव्यू में शामिल करना तो दूर इसकी सूचना तक नहीं दी गई।
_ गोरखपुर मेडिकल कॉलेज के डॉ़ मनीष सिंह ने कम्युनिटी मेडिसिन विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर के लिए आवेदन किया था। इन्हें महज दो दिन पहले कॉल लेटर भेजा गया। सभी मानक पूरे करने के बावजूद चयन नहीं हुआ और आज तक लोहिया इंस्टीट्यूट ने कोई रिजल्ट वेबसाइट या दूसरे तरीकों से सार्वजनिक नहीं किया, जिसे देखकर डॉ़ मनीष को यह भी नहीं पता चला कि उनका चयन हुआ है या नहीं।
_ लखनऊ स्थित निजी मेडिकल कॉलेज के एक डॉक्टर ने आवेदन किया था लेकिन लोहिया इंस्टीट्यूट ने उन्हें कॉल लेटर नहीं भेजा। पूछने पर बताया गया कि उन्होंने जिस कॉलेज का टीचिंग एक्सपीरिएंस लगाया है, उसमें एक साल एमबीबीएस के दाखिले नहीं हुए थे। लिहाजा उनका तीन साल का टीचिंग एक्सपीरियंस नहीं माना जा सकता। इसके उलट इसी कॉलेज के एक अन्य आवेदक को कॉल लेटर भेज दिया गया। इस मनमानी पर पूछताछ हुई तो निदेशक प्रो़ दीपक मालवीय ने कोई सीधा जवाब नहीं दिया।
_ लोहिया इंस्टीट्यूट के लिए जारी विज्ञापन में पैथोलॉजी विभाग के लिए कोई विज्ञापन ही नहीं हुआ। इसके बावजूद एमसीआई के निरीक्षण में इस विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर की कमी दिखाते हुए लोहिया अस्पताल के डॉ़ संजय जायसवाल की नियुक्ति दिखा दी गई। यही नहीं साइकियाट्री, डरमैटोलॉजी एंड लेप्रोसी और ऑप्थेलमोलॉजी विभाग में कोई इंटरव्यू ही नहीं कराया गया और शिक्षकों की कमी दिखाते हुए अस्पातल से डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफसर बना दिया।

दीपक मालवीय से बातचीत :
सवाल : आवेदन करने वाले कई डॉक्टरों को कॉल लेटर नहीं भेजा गया।
जवाब : सभी आवेदनों पर विचार के लिए स्क्रीनिंग कमिटी बनी थी। इस कमिटी की सिफारिश पर ही कॉल लेटर भेजे गए। जिन्हें योग्य नहीं पाया गया, उन्हें नहीं भेजा गया।
सवाल : कई विभागों में इंटरव्यू नहीं कराए गए?
जवाब : हां, शेड्यूल नहीं होने के कारण तीन विभागों में इंटरव्यू नहीं हो सके थे। जल्द ही इन विभागों के इंटरव्यू कराने की तैयारी है।
सवाल : लखनऊ स्थित एक निजी मेडिकल कॉलेज के एक डॉक्टर को कॉल लेटर भेजा गया और दूसरे को नहीं भेजा गया। ऐसा क्यों?
जवाब : यह जवाब तो स्क्रीनिंग कमिटी ही दे सकती है कि ऐसा क्यों हुआ। कई बार गलती से भी हो जाता है लेकिन जहां तक मेरी जानकारी है, इस कॉलेज के जिस अभ्यर्थी को कॉल लेटर गया था, उसे सिलेक्ट नहीं किया गया।
________
मैने लोहिया इंस्टीट्यूट में मेडिकल सुपरीटेंडेंट और असिस्टेंट प्रोफेसर के लिए सभी मानक पूरे करते हुए आवेदन किया था। मुझे कॉल लेटर तक नहीं भेजा गया। अब पता चला रहा है कि भर्तियां हो चुकी हैं।
डॉ़ आरवी सिंह, पूर्व अपर निदेशक

चहेतों को नियुक्त करने के लिए जो नियम नहीं थे, उन्हें मान लिया



(रणविजय सिंह, 22 अप्रैल 2017, लोहिया इंस्टीट्यूट पार्ट फोर)

लोहिया इंस्टीट्यूट में अधिकारियों ने अपने चहेतों को असिस्टेंट प्रोफेसर बनाने के लिए विज्ञापन की शर्तों से इतर उन्हें योग्य साबित करने के लिए जो नियम जहां से मिला, उसे मान लिया। अस्पताल का लोहिया इंस्टीट्यूट में विलय नहीं हुआ था लेकिन अधिकारियों ने विलय मानते हुए उन्हें प्रतिनियुक्ति पर तैनात करने का तर्क दिया। लोहिया के 10 डॉक्टरों के पास असिस्टेंट प्रोफेसर पद पर आवेदन के लिए तीन साल का टीचिंग एक्सपीरिएंस नहीं था तो अधिकारियों ने इन डॉक्टरों के लिए विज्ञापन से इतर दिल्ली के ईएसआई अस्पतालों के नियम लगा दिए। यही नहीं अस्पताल के वरिष्ठ डॉक्टरों के रहते जूनियर को मौका देने के लिए बहना बना दिया कि सीनियर तो जल्द ही रिटायर होने वाले हैं, लिहाजा उन्हें नहीं लिया जा सकता।
लोहिया इंस्टीट्यूट में असिस्टेंट प्रोफेसरों की नियुक्ति में बड़े पैमाने पर गड़बड़ियां हुई हैं। कैबिनेट मंत्री, आईएएस और इंस्टीट्यूट के आला अधिकारियों ने अपने चहेते डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफेसर बनाने के लिए विज्ञापन के नियमों में जमकर मनमानी की। नियमों को न सिर्फ तोड़ा गया, बल्कि मनमानी को सही साबित करने के लिए इधर उधर के नियम लगा दिए गए। लोहिया इंस्टीट्यूट के निदेशक प्रो़ दीपक मालवीय का तर्क है दिल्ली के ईएसआई अस्पतालों में डॉक्टरों के अनुभव  को टीचिंग के लायक माना जाता है। हालांकि उनके पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि जो नीति यूपी में लागू नहीं है, उसे केवल एक संस्थान में कैसे लागू किया जा सकता है। वहीं लोहिया अस्पातल का विलय न होने की स्थिति में भी केवल वहीं के चुनिंदा 10 डॉक्टरों के चयन पर अधिकारियों के पास जवाब नहीं है।

सीएम से मिलकर नीति बनाने की मांग :
प्रांतीय चिकित्सा सेवा संघ ने मुख्यमंत्री से मिलकर सरकारी अस्पताल के डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफेसर बनाए जाने की नीति बनाए जाने की मांग की है। अध्यक्ष डॉ़ अशोक यादव ने लोहिया अस्पताल के चुनिंदा डॉक्टरों को लोहिया इंस्टीट्यूट में असिस्टेंट प्रोफेसर बनाए जाने को गलत बताया। उन्होंने कहा कि प्रदेश के करीब 1200 डॉक्टर एमडी, एमएस डिग्री धारक हैं। इन सभी के पास असिस्टेंट प्रोफेसर बनने की योग्यता है। ऐसे में केवल कुछ डॉक्टरों को मौका दिया जाना सही नहीं है। उन्होंने सीएम को यह भी  सुझाव दिया कि अस्पतालों के इन 1200  डॉक्टरों की मदद से मेडिकल कॉलेजों में असिस्टेंट प्रोफेसरों की कमी को दूर किया जा सकता है लेकिन इसके लिए कोई पारदर्शी नीति बनायी जाए, ताकि मनमानी न होने पाए।

रिश्तेदारों का जमावड़ा :
लोहिया अस्पताल के कई विभागों में 30 से 40 फीसदी पदों पर यहां तैनात डॉक्टर, एचओडी और अधिकारियों के रिश्तेदार जमे हुए हैं। विभागों में तैनात कइ डॉक्टर तो ऐसे हैं, जिनका चयन करने वाली चयन समिति तक में उनके रिश्तेदार शामिल थे। यही नहीं अस्पताल में संविदा पर हुई भर्तियों में भी जमकर भाई भतीजावाद किया गया है। भ्रष्टाचार मुक्त भारत के मोहम्म्द शारिक खान का आरोप है कि पिछली सरकार में लोहिया इंस्टीट्यूट को एक खास राजनीतिक दल के करीबी नेता और अधिकारियों का एंप्लायमेंट हाउस बना दिया गया था।

एमसीआई से कहा 'तत्काल नियुक्ति', शासन से कहा 'अनुमति मिली तब चयन'


(रणविजय सिंह, 20 अप्रैल 2017, लोहिया इंस्टीट्यूट पार्ट थ्री)

लोहिया अस्पताल के 10 डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफेसर बनाने का खाका खींचने के बाद लोहिया इंस्टीट्यूट के अधिकारियों ने मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) और शासन को गुमराह करने के लिए दो अलग अलग पत्र तैयार किए थे। आला अधिकारियों ने शासन से कहा कि इनके चयन का प्रस्ताव है, मंजूरी मिलने के बाद चयन होगा, जबकि मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के अधिकारियों को सौंपे दस्तावेज में इन सभी को इंस्टीट्यूट में तत्काल प्रभाव से नियुक्ति देने की बात लिखी थी। चौंकाने वाली बात यह है कि इस पत्र में इंस्टीट्यूट के निदेशक प्रो़ दीपक मालवीय के दस्तखत भी हैं।

सवाल जिनके जवाब अधिकारियों के पास नहीं हैं :
_ लोहिया इंस्टीट्यूट और लोहिया अस्पताल का विलय अभी तक नहीं हुआ है। लोहिया अस्पताल का काम चिकित्सा स्वास्थ्य विभाग के तहत आता है जबकि लोहिया इंस्टीट्यूट चिकित्सा शिक्षा विभाग के अधीन है। ऐसे में बिना दोनों विभागों के प्रमुख सचिव और महानिदेशकों की जानकारी के लोहिया अस्पताल के 10 डॉक्टरों को लोहिया इंस्टीट्यूट में प्रतिनियुक्ति पर तैनाती का फैसला क्यों और किसके दबाव में किया गया?
_ चिकित्सा शिक्षा के महानिदेशक डॉ़ बीएन त्रिपाठी और चिकित्सा स्वास्थ्य के महानिदेशक डॉ़ पद्माकर ने डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफेसर बनाए जाने या उनके चयन के प्रस्ताव तक की जानकारी से खुद को अनजान बताया। वहीं चिकित्सा स्वास्थ्य के प्रमुख सचिव अरुण सिन्हा ने भी इस मामले में जानकारी न दिए जाने की बात कही और चिकित्सा शिक्षा विभाग की प्रमुख सचिव अनीता भटनागर जैन भी पूरे मामले से अनजान हैं।
_ अस्पताल के 10 डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर तैनाती दी गई। इनमें से दो डॉक्टरों ने बकायदा शासन से इसके लिए एनओसी मांगी। बाकी डॉक्टरों ने क्यों नहीं मांगी। ऐसे में अगर इन 10 की नियुक्ति के तौर तरीकों को सही भी मान लें तो या एनओसी न लेने वाले आठ डॉक्टर सही हैं या फिर एनओसी लेने वाले दो डॉक्टर। इसके बावजूद इंस्टीट्यूट ने सभी 10 डॉक्टरों पर अपनी कृपा एक समान तरीके से बरसायी।
_ शासनादेश के मुताबिक लोहिया अस्पताल और लोहिया इंस्टीट्यूट के संबंध में कोई भी फैसला लेने के लिए शासन स्तर पर मुख्य सचिव की अध्यक्षता में कमिटी बनी हुई है। इसमें प्रमुख सचिव (वित्त), प्रमुख सचिव (चिकित्सा स्वास्थ्य), प्रमुख सचिव (चिकित्सा स्वास्थ्य) और निदेशक (लोहिया इंस्टीट्यूट) को सदस्य बनाया गया है। ऐसे में डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफेसर बनाए जाने का फैसला इस कमिटी के जरिए क्यों नहीं किया गया?

नियुक्ति अभी नहीं हुई है, हमने शासन से अनुमति मिलने की आशा में यह नाम भेजे हैं। वहां से मंजूरी के बाद नियुक्ति होगी। हालांकि एमसीआई के सामने इन्हें असिस्टेंट प्रोफेसर ही दिखाया गया था, क्योंकि ऐसा न करते तो इस साल हमें एमबीबीएस की 150 सीटों की मान्यता न मिल पाती।
प्रो़ दीपक मालवीय, निदेशक
लोहिया इंस्टीट्यूट

अभी विलय को लेकर अंतिम फैसला होना है। इससे पहले लोहिया अस्पताल और उसके डॉक्टरों को लेकर किसी भी तरह का फैसला लोहिया इंस्टीट्यूट नहीं कर सकता। डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफेसर बनाए जाने या उनका नाम भेजे जाने की कोई सूचना मुझे नहीं है।
अरुण सिन्हा, प्रमुख सचिव
चिकित्सा स्वास्थ्य

योग्यता थी, न आवेदन किया, न इंटरव्यू दिया, फिर भी हो गया चयन


(रणविजय सिंह, 18 अप्रैल 2012, लोहिया इंस्टीट्यूट पार्ट टू)

लोहिया इंस्टीट्यूट में असिस्टेंट प्रोफेसर के लिए जिन 10 डॉक्टरों की नियुक्ति का आदेश डॉ़ दीपक मालवीय के दस्तखत से जारी हुआ, उनमें से आठ डॉक्टर ऐसे हैं जिन्होंने इन पदों के लिए आवेदन तक नहीं किया था। यही नहीं विज्ञापन के मुताबिक इनके पास असिस्टेंट प्रोफेसर के लायक योग्यता थी, ना उन्हें चिकित्सा स्वास्थ्य विभाग से आवेदन की एनओसी मिली थी और न ही उन्होंने इंटरव्यू ही दिया। इसके बावजूद लोहिया इंस्टीट्यूट ने सात अप्रैल को मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के सामने इन डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफेसर के तौर पर उसी दिन पेश कर, उनकी नियुक्ति को मंजूरी के लिए शासन में फाइल भेज दी। वहीं जिन अभ्यर्थियों ने योग्यता पूरी करते हुए आवेदन किया और इंटरव्यू के बाद चयनित हुए, उन्हें एमसीआई का निरीक्षण होने के एक दिन बाद आठ अप्रैल और उसके बाद नियुक्ति पत्र सौंपा गया।
लोहिया इंस्टीट्यूट में एमबीबीएस की 150 सीटों के लिए मान्यता का निरीक्षण एमसीआई की टीम को सात अप्रैल को करना था। इसके लिए खाली पदों पर भर्ती का विज्ञापन पिछले साल आठ सितंबर को हुआ था। विज्ञापन के मुताबिक असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर आवेदन के लिए तीन साल की टीचिंग एक्सपीरिएंस होना अनिवार्य था। सूत्रों के मुताबिक इन पदों पर हुए आवेदन के लिए इंटरव्यू समेत नियुक्ति की कवायद 20 मार्च को पूरी हो गई थी। इसके बावजूद अधिकारी छइ अप्रैल तक इंटरव्यू के रिजल्ट रोके रखे। इस बीच सात अप्र्रैल को एमसीआई का निरीक्षण होना था। ऐसे में आपात स्थिति दिखाते हुए लोहिया इंस्टीट्यूट के निदेशक प्रो़ दीपक मालवीय ने अस्पताल के 10 डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफेसर बताते हुए पेश कर दिया। एमसीआई को दिए गए कागज में इन्हें असिस्टेंट प्रोफेसर बताया गया, जबकि शासन को भेजी गई फाइल में अधिकारियों ने अपनी गरदन बचाने के लिए 'शासन की अनुमति मिलने की प्रत्याशा में असिस्टेंट प्रोफेसर' लिख दिया गया।

केवल दो डॉक्टरों ने ली है एनओसी :
लोहिया अस्पताल के जिन 10 डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफेसर बनाया गया है, उनमें से केवल दो डॉक्टरों डॉ़ देवाशीष और डॉ़ सुरेश अहिरवार ने ही शासन से एनओसी लेकर आवेदन किया है और इंटरव्यू फेस करते हुए सिलेक्ट हुए हैं। इन दोनों डॉक्टरों को शासन की मंजूरी चिकित्सा स्वास्थ्य विभाग के पास मंजूरी के लिए पड़ी हुई है। सूत्रों के मुताबिक बाकी किसी भी डॉक्टर को स्वास्थ्य विभाग ने आवेदन के लिए एनओसी नहीं दी है।

सीनियरिटी का भी ख्याल नहीं रखा :
लोहिया इंस्टीट्यूट के निदेशक प्रो़ दीपक मालवीय का कहना है कि एमसीआई का निरीक्षण अचानक होना था, लिहाजा मान्यता बचाने के लिए विभागों के सबसे सीनियर डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफेसर के तौर पर पेश किया गया। एनबीटी ने उनके इस तर्क की पड़ताल की तो पता चला कि उनका दावा पूरी तरह से सही नहीं है। मेडिसिन विभाग में डॉ़ एसी श्रीवास्तव और डॉ़ एससी मौर्या सबसे सीनियर हैं लेकिन उन्हें नहीं सिलेक्ट किया गया। वहीं जनरल सर्जरी में डॉ़ एसी द्विवेदी सबसे सीनियर हैं लेकिन लिस्ट में उनका नाम नहीं है। वहीं आप्थॉल्मोलॉजी में डॉ़ राकेश शर्मा सीनियर हैं लेकिन उनसे जूनियर डॉ़ प्रीति गुप्ता का सिलेक्शन कर लिया गया। वहीं विज्ञापन के मुताबिक पैथोलॉजी विभाग में कोई पद ही नहीं था, बावजूद इसके शासन को भेजी गई सूची में इस विभाग के लिए डॉ़ संजय जायसवाल का नाम जोड़ दिया गया।


यह सही है कि इंटरव्यू 20 अप्रैल को हुए थे लेकिन उसका रिजल्ट चुनाव के चलते जारी नहीं किया गया। सरकार बनने के बाद इसके लिए मुख्य सचिव से मंजूरी ली जानी थी। इसमें थोड़ी देर हुई और सात अप्रैल को अचानक एमसीआई की टीम निरीक्षण के लिए आ गई। ऐसे में हमने इमरजेंसी जैसे हालात में लोहिया अस्पताल से सीनियारिटी के लिहाज से 10 डॉक्टरों को चुना और उन्हें शासन की अनुमति मिलने की आशा में बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर दिखा दिया। ऐसा करने के पीछे हमारी कोई गलत मंशा नहीं थी, बल्कि ऐसा नहीं करते तो एमबीबीएस की मान्यता एक साल के लिए पिछड़ जाती।
प्रो़ दीपक मालवीय, निदेशक
लोहिया इंस्टीट्यूट 

रसूखदार के रिश्तेदारों की परीक्षा ना इंटरव्यू, सीधे नियुक्ति पत्र


(रणविजय सिंह, 17 अप्रैल 2017, लोहिया इंस्टीट्यूट पार्ट वन)

सरकार बदलते ही लोहिया इंस्टीट्यूट में असिस्टेंट प्रोफेसरों की भर्ती में भारी गड़बड़ी सामने आयी है। इस महीने सात अप्रैल को लोहिया इंस्टीट्यूट के निदेशक प्रो़ दीपक मालवीय की तरफ से लोहिया अस्पताल के 10 डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफेसर के पद नियुक्ति दे दी गई। यही नहीं एमबीबीएस की मान्यता के मानक पूरे दिखाने के लिए लोहिया इंस्टीट्यूट ने इन सभी को मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया की टीम के सामने बतौर शिक्षक पेश भी कर दिया, जबकि यह सारे लोहिया इंस्टीट्यूट के बजाय आज भी लोहिया अस्पताल की ओपीडी में ही बैठ रहे हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि चिकित्सा स्वास्थ्य के महानिदेशक डॉ़ पद्माकर सिंह और लोहिया अस्पताल के निदेशक डॉ़ सीएस नेगी को इस बात की जानकारी ही नहीं है कि उनके 10 डॉक्टरों को लोहिया इंस्टीट्यूट में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति मिल चुकी है।

तौर तरीकों और टाइमिंग पर सवाल :
लोहिया अस्पताल का लोहिया इंस्टीट्यूट में विलय होने पर यहां के करीब 50 डॉक्टरों ने असिस्टेंट प्रोफेसर के पदों पर प्रतिनियुक्ति पाने का आवेदन कर रखा है। लोहिया इंस्टीट्यूट ने एमबीबीएस की 150 सीटों के मानक पूरे करने के लिए पिछले साल 8 अक्टूबर को कई विभागों में शिक्षकों के पदों पर विज्ञापन जारी किया। इस बीच विधानसभा चुनाव शुरू हो गए, लिहाजा नई नियुक्तियों और तैनाती पर रोक लग गई। इसके बावजूद लोहिया इंस्टीट्यूट ने इस साल नौ फरवरी को सात डॉक्टरों की सूची चिकित्सा शिक्षा अनुभाग 2 को भेज दी। इसमें बताया गया था कि इन सातों डॉक्टरों को प्रतिनियुक्ति पर तैनात किए जाने का प्रस्ताव है। इस बीच सरकार बदल गई। इसके बावजूद सात अप्रैल को निदेशक प्रो़ दीपक मालवीय ने पत्र जारी कर इस सूची में तीन नए डॉक्टरों के नाम जोड़े और सभी को प्रतिनियुक्ति पर तैनात किए जाने का आदेश जारी कर दिया।

इन्हें दी गई तैनाती :
डॉ़ संदीप चौधरी (मेडिसिन), डॉ़ सुशील कुमार श्रीवास्तव (मेडिसिन), डॉ़ अजय कुमार सिंह (जनरल सर्जरी), डॉ़ शैलेश कुमार श्रीवास्तव (जनरल सर्जरी), डॉ़ निर्मेश भल्ला (आर्थो), डॉ़ संजय जैन (पीडियाट्रिक्स), डॉ़ देवाशीष शुक्ला (साइकियाट्रिक्स), डॉ़ सुरेश अहिरवार (चर्म एवं गुप्त रोग), डॉ़ प्रीति गुप्ता (आप्थोल्मोलॉजी) और डॉ़ संजय जायसवाल (पैथोलॉजी)। सूत्रों के मुताबिक डॉ़ प्रीति गुप्ता सपा सरकार में सचिव मुख्यमंत्री रहे आईएएस अधिकारी अमित गुप्ता की पत्नी हैं। वहीं डॉ़ संजय जायसवाल को सूचना आयुक्त सुदेश कुमार का रिश्तेदार बताया जाता है। यही नहीं डॉ़ निर्मेश भल्ला, डॉ़ शैलेश कुमार श्रीवास्तव, डॉ़ संदीप चौधरी और डॉ़ सुरेश अहिरवार को मुख्यमंत्री के सलाहकार डॉ़ आरसी अग्रवाल का करीबी माना जाता था। इसके अलावा डॉ़ संजय भल्ला और डॉ़ सुशील कुमार श्रीवास्तव उन डॉक्टरों में शुमार किए जाते थे, जिन्हें जरूरत के वक्त सपा परिवार के सदस्यों को देखने लोहिया अस्पताल से भेजा जाता था। वहीं डॉ़ अजय कुमार सिंह को सपा सरकार के कैबिनेट मंत्री रहे राजा भईया का करीबी होने की अटकलें लगायी जाती हैं।

लोहिया इंस्टीट्यूट हमारे डॉक्टरों को तैनाती कैसे दे सकता है। हमने अभी तक किसी डॉक्टर को रिलीव तक नहीं किया है। ऐसे में अगर उन्होंने ऐसा कुछ किया है तो गलत है। हमें इस संबंध में जानकारी भी नहीं दी गई है। लोहिया अस्पातल और इंस्टीट्यूट के विलय को अभी केवल सैद्धांतिक मंजूरी मिली है। मुझसे पूछा गया था लेकिन मैने साफ कह दिया है कि कर्मचारी, डॉक्टर और दूसरे संसाधनों की शर्तें तय किए बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते।
डॉ़ पद्माकर सिंह, महानिदेशक
चिकित्सा स्वास्थ्य

हमारे किसी डॉक्टर को लोहिया इंस्टीट्यूट में प्रतिनियुक्ति पर तैनाती दिए जाने की कोई सूचना मुझे नहीं है। हमने ना तो इसके लिए अपनी सहमति दी है और न ही इंस्टीट्यूट की तरफ से हमें इस बारे में कुछ बताया गया है।
डॉ़ सीएस नेगी, निदेशक
लोहिया अस्पताल

प्रो़ दीपक मालवीय से सीधी बात :
सवाल : लोहिया अस्पताल के कितने डॉक्टरों को प्रतिनियुक्ति पर बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर तैनाती दी गई है?
जवाब : अभी तैनाती नहीं दी गई है। इसका प्रस्ताव है।
सवाल : लेकिन आपकी तरफ से सात अप्रैल को पत्र जारी कर नियुक्ति दिए जाने की बात कही गई है।
जवाब : हां, लेकिन वह शासन से मंजूरी की प्रत्याशा में जारी की गई थी।
सवाल : उस पत्र में शासन से प्रत्याशा पर नियुक्ति का तो कोई जिक्र नहीं है।
जवाब : नहीं, नहीं। ऐसा नहीं होगा। मैं दिखवाता हूं। एमसीआई के सामने मानक पूरे दिखाने के लिए इन्हें शासन से मंजूरी की प्रत्याशा में ही प्रतिनियुक्ति पर दिखाया गया था।
सवाल : अभी इन डॉक्टरों को चिकित्सा स्वास्थ्य से रिलीव नहीं किया गया है। ऐसे में कैसे तैनाती दे दी गई?
जवाब : नहीं जो कुछ भी होगा मानकों के मुताबिक होगा। मैं दिखवाता हूं।

तो क्या बड़े अस्पताल मरीज को भर्ती कर डकैती डालने पर आमादा हैं

समय रहते रजनीश ने अपने नवजात शिशु को अपोलो मेडिक्स से जबरन डिस्चार्ज न कराया होता तो मुझे आशंका है कि 15 से 20 लाख रूपए गंवाने के बाद भी अपन...