Sunday, 15 September 2019

आईटी चौराहे के लिए ढलवाया गया देश का पहला घुमावदर ‘यू गर्डर’

(रणविजय सिंह, मेट्रो पार्ट 14, 28 फरवरी 2019)

‘एलयू से आईटी कॉलेज के लिए सड़क 90 अंश पर घूमी है लेकिन जमीन से 12 मीटर ऊंचाई पर मेट्रो के लिए भी इतना ही तेज घुमावदार ट्रैक नहीं बिछाया जा सकता। चौराहे के एक तरफ आईटी कॉलेज है और दूसरी तरफ निजी डिवेलपर के अपार्टमेंट्स, लिहाजा इतनी जमीन भी नहीं है घुमाव (कर्व) कम किया जा सके।‘

साइट इंजिनियर की बात सुनकर चीफ इंजिनियर कभी एलयू से आईटी कॉलेज की तरफ प्रस्तावित ट्रैक का डिजाइन देखते तो कभी आईटी चौराहे के आसपास जमीन की रिपोर्ट। काफी विचार विमर्श और बैठकों के बाद भी आईटी चौराहे पर घुमावदार ट्रैक के लिए कोई उपाय नहीं सूझा। डिजाइन में बदलाव और आसपास की जमीनें अस्थायी तौर पर लेकर काम शुरू करने की तमाम कोशिशों के बावजूद यहां इतनी जमीन नहीं मिली कि 130 अंश से ज्यादा घुमावदार ट्रैक बनाया जा सके। समाधान का एक रास्ता खुला तो नयी समस्या खड़ी हो गई।

यू गर्डर तो सीधे ढलवाए गए हैं, उसे कैसे घुमाएंगे :
जमीन से 12 मीटर ऊंचाई पर मेट्रो ट्रैक के लिए आईटी कॉलेज चौराहे के एक तरफ बने पिलर की दूरी इसके दूसरी तरफ बने पिलर्स से 30 मीटर थी। आम तौर पर मेट्रो ट्रैक के लिए दो पिलर्स के बीच औसतन इतनी ही दूरी होती है और उसपर रखने के लिए इतना ही लंबा यू गर्डर ढलवाया जाता है। इंजिनियर ने पूछा कि कास्टिंग यार्ड में 30 मीटर लंबाई के ही यू गर्डर ढाले जा रहे हैं, जो एकदम सीधे होते हैं। ऐसे में चौराहे पर घुमावदार ट्रैक कैसे बिछाया जा सकेगा? इसका समाधान सुझाते हुए कास्टिंग यार्ड के प्रभारी ने जवाब दिया कि हम 10 10 मीटर के यू गर्डर तैयार कर सकते हैं, जिन्हें चौराहे के ऊपर घुमावदार तरीके से इंस्टॉल किया जा सकता है। इतना सुनते ही साइट इंजिनियर ने आपत्ति दर्ज कराते हुए कहा कि ‘चौराहे पर दो पिलर बनकर तैयार हैं, जिनके बीच 30 मीटर की दूरी है। ऐसे में 10 - 10 मीटर के यू गर्डर इंस्टॉल करने का फैसला हुआ तो हमें यहां सड़क पर इतनी ही दूरी पर दो नए पिलर बनाने होंगे, ऐसा हुआ तो सड़क का बड़ा हिस्सा मेट्रो के पिलर्स से घिर जाएगा, जिसपर ट्रैफिक विभाग से लेकर पीडब्लूडी की भी आपत्ति हो सकती है’

तो धुमावदार यू गर्डर ही क्यों ना ढलवा लिया जाए :
समाधान के लिए चीफ इंजिनियर ने मीटिंग बुलायी। इसमें कास्टिंग यार्ड के प्रभारी बार बार छोटे यू गर्डर ढलवाकर उन्हें नए पिलर्स बनाकर धुमावदार तरीके से इंस्टॉल करने की पैरवी करते रहे। इस बीच सिविल इंजिनियर इसपर सहमत नहीं दिख रहे थे। ऐसे में चीफ इंजिनियर ने पूछा कि पूरे 30 मीटर का घुमावदार यू गर्डर की ढलाई क्यों नहीं हो सकती? यार्ड के प्रभारी ने तुरंत जवाब दिया कि आज तक देश के किसी भी प्रॉजेक्ट में ऐसा यू गर्डर ना तो ढाला गया है और ना ही इस्तेमाल ही किया गया है। इसपर चीफ इंजिनियर ने सिविल वर्क से जुड़े इंजिनियरों से पूछा कि अगर ऐसा गर्डर मिल जाए तो उसका इस्तेमाल हो सकता है या नहीं? कुछ हिचकते हुए इंजिनियरों ने हामी भरी लेकिन चीफ इंजिनियर इस प्लान के सफल होने को लेकर इतने आश्वास्त थे कि उन्होंने तुरंत ही इस बारे में आला अधिकारियों से बात की और घुमावदार यू गर्डर की ढलायी शुरू हो गई। एक महीने के भीतर देश के पहले घुमावदार यू गर्डर तैयार हो गए और उन्हें आईटी चौराहे पर लगा भी दिया गया।

सबसे देर में शुरू हुआ और सबसे पहले बनकर तैयार हो गया

(रणविजय सिंह, मेट्रो पार्ट 13, 28 फरवरी 2019)

‘सर, बीरबल साहनी पुरावनस्पति संस्थान ( बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट) की तरफ से जमीन को लेकर अब तक एनओसी नहीं मिली है। उनकी हां, ना और देखेंगे के चक्कर में विवि मेट्रो स्टेशन का काम जमीन पर शुरू भी नहीं हो सका है, जबकि बाकी स्टेशन आधे से ज्यादा बनकर तैयार भी हो चुके हैं।‘ इससे पहले कि चीफ कोई जवाब देते साइट इंजिनियर ने अपनी बात पूरी करते हुए कहा ‘जल्द ही एनओसी नहीं मिली या हमने दूसरी योजना पर काम शुरू नहीं किया तो इस स्टेशन के चलते पूरा प्रॉजेक्ट लेट हो जाएगा।‘ पूरी बात सुनने के बाद चीफ इंजिनियर ने चिंतित स्वर में कहा ‘मुझे नहीं लगता कि बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट की जमीन हमें मिल सकेगी, शासन का दबाव जब तक काम करेगा, तब तक हमारा काम काफी पीछे जा चुका होगा। हमें दूसरी योजना पर ही काम करना होगा‘।

चीफ इंजिनियर ने आला अधिकारियों को ग्राउंड रिपोर्ट भेजकर जल्द फैसला लेने का अनुरोध किया। रिपोर्ट के मुताबिक डिजाइन में बदलाव कर मेट्रो के विवि स्टेशन को बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट के सामने से हटाकर एलयू के गेट नंबर तीन पर बनाया जाना था। शासन को हालात से अवगत कराते हुए लखनऊ युनिवर्सिटी प्रशासन से एनओसी मांगी गई। एलयू के मेन गेट (सिंह द्वार) से गेट नंबर चार तक सड़क की तरफ से चहारदीवार पहले ही मेट्रो निर्माण के लिए तोड़ी जा चुकी थी। ऐसे में एलयू ने गेट नंबर तीन पर स्टेशन के लिए भी जमीन देने में कोई संकोच नहीं जताया। एलयू से जमीन मिलने के बाद डिजाइन में बदलाव को भी मंजूरी मिल गई। जमीन मिलने के बाद भी विवि स्टेशन का काम देख रहे अधिकारी और इंजिनियरों के सामने इस रूट के बाकी स्टेशनों से पिछड़ने और जल्दी काम पूरा करने की चुनौती बनी हुई थी। चीफ इंजिनियर ने सबकी चिंताओं को दूर करते हुए ऐसी बात कही जिसपर किसी के लिए भी यकीन करना मुश्किल था। चीफ इंजिनियर बोले ‘चारबाग से मुंशीपुलिया के बीच सबसे पहले बनकर तैयार होने वाला स्टेशन विवि मेट्रो स्टेशन होगा’। साथी इंजिनियर ने चौंकते हुए पूछा ‘कैसे?’ चीफ इंजिनियर ने सधा हुआ जवाब दिया ‘अब तक गर्डर, से लेकर पीयर कैप तक अमौसी स्थ्ज्ञित कास्टिंग यार्ड से आता था, जिसमें 12 से 24 घंटे का समय लगता था लेकिन अब एलयू स्टेशन के सामने ही नया कास्टिंग यार्ड भी बनकर तैयार हो चुका है। ऐसे में विवि स्टेशन की जरूरत का हर सामान चंद कदम दूर इसी कास्टिंग यार्ड से मिलना है।’



नए कास्टिंग यार्ड ने बढ़ायी काम की तेजी :

मेट्रो के प्रियॉरिटी रूट (टीपी नगर सेचारबाग) का काम पूरा होने के बादअमौसी स्थित कास्टिंग यार्ड से चारबाग के आगे वाले मेट्रो रूट से काफी दूर पड़ रहा था। इस बीच विवि मेट्रो स्टेशन के लिए एलयू की जमीन मिलने के साथ ही काल्विन में चार हेक्टेयर जमीन पर नया कास्टिंग यार्ड भी बनकर तैयार हो गयाा। ऐसे में केडी सिंह बाबू स्टेडियम से लेकर मुंशीपुलिया तक के लिए गर्डर, पाइल और पियर कैप समेत जिन चीजों की आपूर्ति अमौसी स्थित कास्टिंग यार्ड से हो रहा था, वो अब काल्विन कॉलेज पर बने कास्टिंग यार्ड से होने लगा। इसका सबसे बड़ा फायदा विवि मेट्रो स्टेशन को मिला, क्योंकि इसके ठीक सामने ही नया कास्टिंग यार्ड था। ऐसे में निर्माण से जुड़ी हर चीज स्टेशन  के सामने से ही आ जाती थी। यही नहीं विवि की परीक्षाएं भी लगभग खतम हो चुकी थीं, लिहाजा अगले करीब चार से पांच महीने तक विवि कैंपस स्टूडेंट्स से खाली था। ऐसे में यहां 24 घंटे बिना किसी बड़ी बाधा के काम जारी रखने का मौका मिल गया।



सही साबित हुआ दावा :

एलयू की जमीन मिलना प्रॉजेक्ट के लिए काफी फायदेमंद साबित हुआ। यहां सिवाय चहारदीवारी के कुछ भी तोड़े बिना पाइलिंग के लिए बड़े पैमाने पर खाली जमीन मिल गई। यही नहीं सामने ही कास्टिंग यार्ड था, लिहाजा वहां से पाइलिंग, पाइल कैप और पियर कैप आसानी से पहुंचाए जाते रहे। नतीजा हुआ कि इस स्टेशन की खोदायी शुरू होने के वक्त जो स्टेशन 50 फीसदी बन चुके थे, उनकी फिनिशिंग होने से पहले ही विवि स्टेशन पूरी तरह से तैयार हो चुका था। विवि स्टेशन मार्च 2018 के पहले सप्ताह में बनना शुरू हुआ और इसी साल सितंबर के अंत तक बनकर तैयार हो गया।

पाइलिंग धंसने के बावजूद गोमती को रोका ना डायवर्ट किया, बना दिया विशेष पुल

(रणविजय सिंह, मेट्रो पार्ट 12, 17 फरवरी 2019)

'सर, हनुमान सेतु की तरफ गोमती में बन रही एक पाइल धंस गई...' मोबाइल पर हांफते हुए इंजिनियर ने चीफ इंजिनियर को यह सूचना दी। खबर मिलते ही चीफ इंजिनियर मौके पर पहुंचे। दूर से ही उन्हें दिख गया कि गोमती में पानी बढ़ा हुआ है। कुछ करीब पहुंचे तो नदी में एक तरफ धंसी हुई पाइल और उसके चारों तरफ उफनाती गोमती साफ दिखायी देने लगी।
चीफ इंजिनियर के मौके पर पहुंचते ही वहां पहले से मौजूद एलएमआरसी और कार्यदायी संस्था एलएंडटी के इंजिनियर भी जमा हो गए। चीफ इंजिनयर कभी धंसी हुई पाइल को देखते और कभी गोमती के उफान को। उन्हें परेशान देख साथी इंजिनियर ने गोमती की धारा रोककर या उसे डायवर्ट करने के बाद ही नए सिरे से पाइलिंग की मजबूरी बतायी। इसपर चीफ इंजिनियर ने ऐसा करने की मंजूरी ना मिलने की बात कह सबकी परेशानी बढ़ा दी। कुछ देर चुप रहने के बाद इंजिनियरों ने पूछा 'इस समय यह सबसे बड़ी दिक्कत है, बिना इसका समाधान खोजे काम आगे कैसे बढ़ेगा? एक बार यह दिक्कत दूर हो गई तो मवैया से दुर्गापुरी की तर्ज पर यहां भी विशेष पुल बनाने में दिक्कत नहीं आएगी'। पूरी बात सुनने के बाद चीफ इंजिनियर ने कहा 'गोमती पर पाइलिंग के बाद विशेष पुल बनाना भी आसान नहीं है। दुर्गापुरी में विशेष पुल सीधा बनाया जाना था, जबकि गोमती पर 'एस' आकार में बनेगा। दुर्गापुरी में नीचे से जा रही ट्रेनें रोकने की अनुमति नहीं थी और यहां हमें गोमती के पानी को डायवर्ट करने या उसकी धारा को रोकने की अनुमति नहीं है'। इसपर साथी इंजिनियरों ने पूछा '...तो किया क्या जाए'

चार के बजाय छह पाइल बनाए गए :
गोमती पर विशेष पुल के लिए केवल दो पिलर बनाए जाने थे। अमूमन एक पिलर के लिए जमीन के नीचे करीब 20 मीटर गहरायी तक चार पाइल बनायी जाती है। गोमती नदी के हनुमान सेतु वाले हिस्से की तरफ बन रहे ऐसे ही चार पाइल में से एक पाइल धंसी थी। ऐसे में इसे मजबूत करने के लिए उसके चारों तरफ दो अतिरिक्त पाइल बिनायी गई। पाइल तक पाने पहुंचने से रोकने के लिए नदी से लगातार पंपिंग कर पानी निकाला जाता रहा। इसके साथ एक बड़े हिस्से को मिट्टी से पाटकर स्टील की अस्थायी दीवारें बनाई गईं और उसके भीतर लकड़ी के पट्टे लगाए गए। इन छह पाइल के गोमती नदी की सतह वाले सिरे पर पाइल कैप बना और उसके ऊपर पिलर बनाने का काम शुरू हुआ।

'कैंटी लीवर' तकनीक से बना एस आकार का पुल :
गोमती के दोनों किनारों पर पिलर बनकर तैयार होने के बाद कैंटी लीवर तकनीक से इनके बीच पुल बनाया जाना था। दोनों पिलर्स के बीच 87 मीटर की दूरी थी और इनके ऊपर कांक्रीट का पुल बनाया जाना था। कैंटी लीवर तकनीक का इस्तेमाल करते हुए दोनों पिलर्स के बीच हवा में दो दो मीटर कांक्रीट का पुल बनाया जाता रहा और जब वो मजबूत हो जाते तो उनके आगे इतना ही नया ढांचा बनाकर उसके मजबूत होने का इंतजार किया जाता। हर दो मीटर आगे बढ़ने के लिए तीन दिन लग रहे थे। करीब डेढ़ महीने तक इस एहतियात के साथ काम करते हुए दोनों तरफ से पुल आगे बढ़ते हुए बीच में मिल गया।

नीचे टनल खोदी जाती रही लेकिन ऊपर से मजार हटी, ना रास्ता बंद किया

(रणविजय सिंह, मेट्रो पार्ट 11, 13 फरवरी 2019)

'बापू भवन के सामने जिस जगह से सुरंग के लिए टनल बोरिंग मशीन (टीबीएम) खोदायी शुरू होनी है, उसके ठीक ऊपर मजार है। दूसरी तरफ सेवेंथ डे स्कूल और इससे कुछ दूरी पर मानसरोवर आई हॉस्पिटल। ना तो मजार हटायी जा सकती है और ना ही वहां आने वाले श्रद्धालुओं को ही रोका जा सकता है। स्कूल और अस्पताल के ठीक सामने से डी वॉल बनायी जानी है जिसके लिए ना तो स्टूडेंट्स को रोका जा सकता है और ना ही मरीजों के आने जाने पर पाबंदी लग सकती है...'

अंडरग्राउंड मेट्रो स्टेशन और टनल बना रहे टाटा गुलेरमक के इंजिनियर लखनऊ मेट्रो रेल कारपोरेशन के चीफ इंजिनियर को मौके की नजाकत से वाकिफ कराने के बाद चुप हो गए। चीफ इंजिनियर ने मुस्कुराते हुए कहा 'इसके अलावा जमीन के नीचे से जो नाला जा रहा है, उसे भी डायवर्ट करना है। हमारे डिजाइन के मुताबिक स्टेशन के ठीक ऊपर से नाला जा रहा है, जिसमें जरा सा झटका या दरार पड़ने पर सारा पानी टनल के भीतर आने लगेगा'। समाधान पूछने आए इंजिनियरों को चीफ इंजिनियर ने नई समस्या बताकर उनकी परेशानी बढ़ा दी। इसके बाद इस चुनौती से निपटने की कवायद शुरू करते हुए चीफ इंजिनियर ने टाटा गुलेरमक और एलएमआरसी इंजिनियरों के साथ बैठक की। इसमें तय हुआ कि ना तो मजार को हटाया जाएगा और ना ही स्कूल या अस्पताल को बंद करने की जरूरत है।

30 मीटर कच्चे नाले को कांक्रीट का बना दिया :
मेट्रो स्टेशन के ठीक ऊपर से जा रहे कच्चे नाले की सतह और उसके दो तरफ की दीवार को मजबूत करने का फैसला हुआ। इकसे लिए नाले के तीनों तरफ कांक्रीट की दीवार खड़ी की गई। इसके लिए सेवेंथ डे स्कूल की तरफ से नाले को डायवर्ट किया गया। यहां पाइप लगाकर नाले का पानी पंप की मदद से सामने की तरफ बस्ती के नाले में गिराया जाता रहा। इस बीच मेट्रो स्टेशन के ऊपर से जा रहे नाले को 30 मीटर लंबाई तक कांकीट का बना दिया गया। इसके बाद सेवेंथ डे स्कूल के सामने से नाले को इस कंक्रीट के नाले से जोड़ दिया गया और नाला पहले की तरह बहता रहा और इसके ठीक नीचे मेट्रो का स्टेशन बन गया। इसके बावजूद ना तो नाले से लीकेज हुआ और ना ही कभी इसमें दरार पड़ने की आशंका ही पैदा हुई।

7 बार बदला गया मजार तक आने जाने का रास्ता :
निर्माण कार्य के दौरान मजार को हटाना तो दूर एक दिन के लिए भी बंद नहीं किया गया। हालांकि यहां आने वालों की सुरक्षा के लिए सात बार डायवर्जन प्लान में बदलाव किया गया। मजार के ठीक नीचे टनल बोरिंग मशीन खोदायी शुरू कर चुकी थी लेकिन मजार पर इसका कोई असर नहीं होने दिया गया। यहां आने वालों के लिए कभी समाने तो कभी पीछे की तरफ से वैकल्पिक रास्ता बना दिया जाता था। महिलाएं, बुजुर्ग और बच्चों तक की सुरक्षा का पूरा इंतजाम मेट्रो की तरफ से किया जाता रहा।

एक दिन में बना दी गई डी वॉल :
सेंवेंथ डे स्कूल और मानसरोवर आई हॉस्पिटल के सामने डी वॉल बनायी जानी थी, जिसमें सामान्य तौर पर तीन से चार दिन लगते हैं। हालांकि यहां ना तो स्टूडेंट्स को रोका जा सकता था और ना ही मरीजों के आने जाने पर पाबंदी लग सकती थी। ऐसे में इसे हुसैनगंज की तरह एक दिन में बनाने का फैसला हुआ। यहां गनीमत यह थी कि इमारतें ज्यादा पुरानी नहीं थीं। लिहाजा इन दोनों जगहों पर इमारत के काफी करीब से सड़क के किनाने जमीन के 20 मीटर नीचे तक डी वॉल बना दी गई।

सर्जिकल स्ट्राइक से कम नहीं था जर्जर इमारतों से 16 इंच दूर खोदायी करना

(रणविजय सिंह, मेट्रो पार्ट 9, 4 फरवरी 2019)

'जमीन के नीचे मेट्रो रूट की सुरंग से आगे जैसे ही स्टेशन के लिए जमीन खोदी जाएगी तो उसके आसपास की मिट्टी खाली हुए हिस्से की तरफ धंसेगी। ऐसा हुआ तो सुरंग के ऊपर सड़क के दोनों तरफ बनी इमारतों का बचना मुश्किल है। इस हादसे की आशंका को टालने के लिए सड़क के दोनों तरफ करीब 100 मीटर लंबाई में जमीन की 20 मीटर गहरायी तक कांक्रीट की दीवार (डी वॉल) बनानी पड़ेगी। ऐसा होने से सुरंग खोदे जाने के बाद उसके अगल बगल की मिट्टी के धंसने की आशंका लगभग खतम हो जाएगी लेकिन...' इतना बोलने के साथ ही इंजिनियर ने चुप्पी साध ली।
चीफ इंजिनियर ने पूछा 'लेकिन क्या? अंडरग्राउंड स्टेशन बनाते समय ऐसा करना पड़ेगा, यह तो पता ही था।' इस पर इंजिनियर ने परेशान लहजे में जवाब दिया 'पहले से पता था कि यह करना पड़ेगा लेकिन यह नहीं पता था कि जर्जर इमारतों से 16 इंच की दूरी पर खोदायी कर डी वॉल बनानी पड़ेगी' कुछ देर रुककर इंजीनियर ने फिर बोलना शुरू किया 'बिना डी-वॉल बनाए यहां अंडरग्राउंड स्टेशन के लिए जमीन के नीचे काम शुरू नहीं हो सकता और सड़क के ऊपर दोनों तरफ की जर्जर इमारतों का जहां से दरवाजा खुलता है, ठीक वहीं से 'डी वॉल' के लिए खोदायी करनी पड़ेगी।' सारी बात सुनने के बाद चीफ इंजिनियर को असल परेशानी का आभास हुआ। गंभीर लहजे में धीरे से बोले 'यानी जमीन के नीचे सुरंग की खोदायी से भी इमारत के गिरने की आशंका और ऐसा होने से बचाने का उपाय करने पर भी इमारत के गिरने की आशंका...' इससे पहले कि चीफ इंजिनियर आगे कुछ बोलते इंजीनियर ने दोबारा बोलना शुरू कर दिया 'यही नहीं ऐसी इमारतों में एक निजी स्कूल भी है, जिसमें स्कूली बच्चों और स्टाफ के आने जाने का एक ही रास्ता है और वो सड़क के उसी हिस्से की तरफ खुलता है जहां हमें खोदायी करनी है। ना तो स्कूल की छुट्टी करायी जा सकती है और ना ही उसमें आने जाने का दूसरा रास्ता बनाया जा सकता है। काम के दौरान एक भी बच्चे या स्टाफ को चोट लगी तो दिक्कत हो जाएगी'। पूरी बात सुनकर चीफ इंजिनियर सोंच में पड़ गए कि आखिर ऐसा क्या किया जाए ताकि सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे।

इमारतों पर दर्जनों कैमरे लगाए, पल पल की रिपोर्ट :
जर्जर इमारतों के अलग अलग कोनों पर कैमरे और मॉनीटर लगा दिया गया। यह उपकरण इमारत की मामूली से मामूली हलचल को भी तुरंत पकड़ सकती थी। इन उपकरणों को प्रॉजेक्ट देख रहे सभी इंजिनियर और अधिकारियों के मोबाइल से जोड़ दिया गया। यही नहीं कंट्रोल रूम में भी चौबीसों घंटे इनके इनपुट पर नजर रखी जा रही थी। टनल की खोदायी से इमारत पर होने वाली कोई भी हरकत एक पल में इससे जुड़े सभी इंजिनियर और अधिकारियों को मिल जाती। इसके बाद इमारतों को मजबूती देने के लिए भीतर जैक लगाया गया। इसके बाद शुरू हुआ जमीन के नीचे 20 मीटर गहरायी तक कांक्रीट की 'डी वॉल' बनाने का काम। इसके लिए खोदायी के दौरान मिट्टी की कठोरता को कम करने के लिए इस्तेमाल होने वाले कैमिकल की मात्रा भी बढ़ा दी गई, जिसके कारण मिट्टी के धंसने की आशंका कम होती है।

अवकाश के दिन 24 घंटे में बना डाली डी वॉल :
हुसैनगंज अंडरग्राउंड स्टेशन के लिए स्कूल के गेट से सटे हुए हिस्से में खोदायी कर डी वॉल बनायी जानी थी, जिसमें तीन से चार दिन लग सकते थे। इसके बावजूद स्कूल छुट्टी करने को तैयार था और ना ही पीछे की तरफ से कोई रास्ता ही बनाने की गुंजाईश थी। ऐसे में इंजिनियरों ने रविवार के दिन स्कूल के सामने होने वाला सारा काम पूरा करने का फैसला किया। इसके लिए चारबाग में केकेसी के पास 10-10 मीटर की सरिया की चादरें बनायी गईं और उन्हें क्रेन की मदद से हुसैनगंज पहुंचाया जाता रहा और 24 घंटे तक लगातार जमीन खोदी जाती रही और जमीन के 20 मीटर गहरायी तक सरिया का जाल बिछाते हुए उसमें कांक्रीट भरकर डी वॉल बना दी गई। अगले दिन स्कूल आम दिनों की तरह खुला और वहां आने वाले स्कूली बच्चों को पता भी नहीं चला कि दरवाजे के ठीक सामने जमीन के नीचे इतना बड़ा काम हो गया।

इंजीनियरिंग के लिहाज से सबसे आसान स्टेशन पर ट्रैफिक ने छुड़ाए पसीने

(रणविजय सिंह, मेट्रो पार्ट 9, 23 जनवरी 2019)

यहां चौबीस घंटे ट्रेनें आती रहेंगी और जाती रहेंगी। हर ट्रेन के साथ सैकड़ों लोगों की भीड़ सड़क पर आएगी। ट्रेनों की छुट्टी भी नहीं होती लिहाजा हमें ऐसा एक दिन भी नहीं मिलने वाला कि सड़क पर भीड़ कम हो। सड़क बंद करने या ट्रैफिक रोकने की अनुमति देने को रेलवे तैयार नहीं। यही नहीं स्टेशन के सामने से डायवर्जन मुमकिन नहीं क्योंकि पूरा शहर चारबाग स्टेशन तक पहुंचने का एक ही रास्ता जानता है और वो है मेन रोड, जिसके ऊपर मेट्रो स्टेशन बनाया जाना है। यहां भीड़ कभी थमेगी नहीं और किसी भी यात्री के सिर पर एक इंट भी गिरने का मतलब होगा, शहर का सबसे बड़ा हादसा।

इंजीनियरिंग के लिहाज सबसे आसान समझे जा रहे चारबाग स्टेशन पर ट्रैफिक से निपटने को लेकर सामने आयी इस चुनौती ने मेट्रो के चीफ इंजीनियर से लेकर आला अधिकारियों तक के माथे पर पसीना ला दिया था। इस बीच आलमबाग बस स्टेशन बंद होने के कारण वहां की सारी बसें चारबाग आने लगीं। इसका नतीजा हुआ कि चारबाग बस स्टेशन के सामने खड़ी होने वाली बसों से इस पूरे इलाके में बिना मेट्रो का काम शुरू हुए ही भीषण ट्रैफिक जाम होने लगा। ऐसे में चौबीस घंटे सड़क पर भीड़ के ऊपर हजारों टन का मलबा और भारी उपकरणों के साथ काम करना ऐसी चुनौती थी, जिसमें जरा सी चूक जानमाल के लिए बड़ा खतरा बन सकती थी और इसका असर प्रॉजेक्ट पर भी पड़ता।

रेलवे और ट्रैफिक पुलिस भी चारबाग रेलवे स्टेशन के सामने मेट्रो स्टेशन के लिए सड़क बंद करने की मंजूरी देने को तैयार नहीं था। ऐसे में हादसे की आशंका को टालते हुए काम करने के लिए चीफ इंजीनियर ने नई योजना पर काम शुरू किया। इसके तहत सड़क के किनारे बनाए जा रहे पिलर्स की लोकेशन उन्होंने रेलवे स्टेशन की चहारदीवारी के भीतर तक कर दी, वहीं दूसरी तरफ के पिलर्स को सड़क से होटलों की तरफ खिसका दिया। ऐसा होने से पिलर्स के कारण घिर रही सड़क का काफी हिस्सा खाली हो गया। इसके बाद इस स्टेशन को तीन टुकड़ों में बनाने का फैसला हुआ। सबसे पहले चारबाग स्टेशन की चहारदीवारी की तरफ बेरिकेडिंग कर निर्माण कराया गया और फिर होटलों की तरफ बेरिकेडिंग कर काम हुआ और दोनों तरफ डिवाइडर की तरफ से ट्रैफिक चलता रहा। सड़क के दोनों तरफ दो हिस्सों में काम होने के बाद वहां से बेरिकेडिंग हटाकर ट्रैफिक उस तरफ खोल दिया गया और डिवाइडर की तरफ वाले हिस्से में बेरिकेडिंग कर मेट्रो स्टेशन के बीच वाले हिस्से में निर्माण कार्य शुरू हुआ। हालांकि इसके बाजवूद ट्रैफिक जाम की समस्या खड़ी होने लगी तो मेट्रो ने यहां करीब 30 से 50 बाउंसर लगाकर ट्रैफिक संभालना शुरू किया लेकिन इस बीच आलमबाग बस स्टेशन बंद होने से वहां की बसें चारबाग में आने लगीं। बस स्टेशन में जगह कम होने पर सारी बसें सड़क पर ही खड़ी हो रही थीं और चारबाग मेट्रो स्टेशन से निकलते ही सारा ट्रैफिक यहां ब्लॉक हो जा रहा था। इससे निपटने के लिए मेट्रो अधिकारियों ने परिवहन विभाग के साथ बात की और सड़क को बसों से खाली कराने पर सहमति बनी। बसों को अलग अलग जगहों पर खड़ा किया जाने लगा और हर बस अपने समय पर ही स्टेशन में दाखिल होती थी, जिसके कारण ट्रैफिक में सुधार हुआ। इस तरह की चुनौतियों से जूझते हुए एलएमआरसी ने छह महीने तक काम किया और बिना कोई हादसा हुए, काम पूरा कर लिया गया।

Sunday, 8 September 2019

25 हजार वोल्ट की 12 लाइनों के ऊपर से बना दिया 105 मीटर लंबा पुल


(रणविजय सिंह, मेट्रो पार्ट 8, 19 जनवरी 2019)

कान में फोन लगाए चीफ इंजीनियर के चेहरे पर परेशानी के भाव साफ पढ़े जा सकते थे। फोन काटने से पहले ही उनके सामने बैठे साथी इंजीनियरों को किसी बड़ी परेशानी का आभास हो चुका था। 'क्या हुआ सर...' सवाल सुनते ही चीफ इंजीनियर ने मायूसी भरे लहजे में कहा 'मवैया से दुर्गापुरी के बीच ट्रैक का अलाइनमेंट बदलना पड़ेगा। रेलवे अपनी कॉलोनी के भीतर से जा रहे ट्रैक को मंजूरी देने को तैयार नहीं। मंजूरी मिल जाती तो उनके ट्रेनिंग सेंटर के पास से एलेवेटेड ट्रैक आसानी से बन जाता लेकिन अब'। इससे पहले कि वो अपनी बात पूरी करते साथी इंजीनियर ने उनकी बात काटते हुए कहा '...लेकिन अब क्या सर, जैसे कॉलोनी के भीतर से बनाते, वैसे ही अलाइनमेंट बदलने के बाद बनाएंगे'
'लेकिन अब ये है कि पहले हमें कॉलोनी के भीतर से जगह मिल रही थी, जहां काफी जमीनें खाली पड़ी थीं। उनपर हमारी क्रेनें खड़ी हो सकती थीं। अब नया अलाइनमेंट सड़क की तरफ जा रहा है। यहां हमें ट्रैफिक भी देखना है और क्रेनें खड़ी करने के लिए जगह भी तलाशनी है। इससे भी बड़ी दिक्कत यह है कि हमें 25 हजार वोल्ट की 12 लाइनों के ऊपर से बिना पिलर 105 मीटर लंबा पुल बनाना है। इस बीच एक भी दिन नीचे से जा रही ट्रेनों को रद्द करने या उन्हें डायवर्ट करने की गुंजाइश नहीं है। यानी रोजना 25 हजार वोल्ट की 12 लाइनों के नीचे दर्जनों ट्रेनें चलती रहेंगी और ऊसके ऊपर हमें बिना रुके काम करते रहना होगा' एक ही सांस में चीफ इंजीनियर ने नए अलाइनमेंट के कारण अचानक पैदा हुई चुनौती के बारे में बता दिया। पूरी बात सुनकर इंजीनियरों के माथे पर भी बल पड़ गए। 'नीचे से जा रही ट्रेनों को कुछ दिनों के लिए तो रोका जा सकता है, इसमें क्या दिक्कत है...' मीटिंग में बैठे इंजीनियर ने झुंझलाते हुए पूछा। इसपर चीफ इंजीनियर ने बताया कि कुछ दिनों के लिए रद्द होने वाली ट्रेनों के कारण रेलवे को होने वाले नुकसान की भरपायी मेट्रो को करनी पड़ेगी, जो कि बजट संकट के चलते मुमकिन नहीं है। इसके अलावा ऐसा होने के बाद उनकी जितनी भी ट्रेनें लेट चलेंगी, उन सबका जिम्मा मेट्रो के सिर पर ही फोड़ा जाएगा।

स्पीड़ कम करायी और फायर प्रूफ तिरपाल लगाकर किया काम :
इसके बाद चीफ इंजीनियर ने रेलवे के साथ बात करके यहां से गुजरने वाली ट्रेनों की स्पीड़ कम करवाने का अनुरोध किया, जिसे मंजूर कर लिया गया। इसके बाद रेलवे के 12 ट्रैक के दोनों तरफ 105 मीटर के अंतर पर दो पिलर बनाकर खड़े कर दिए गए। इन पिलर्स के बीच विशेष पुल (बिना पिलर के बनने वाला पुल) बनाने का काम शुरू हुआ। दोनों तरफ से रोजाना दो मीटर कांक्रीट का हिस्सा आगे की तरफ बनाकर छोड़ दिया जाता और उसमें मजबूती आने के बाद फिर उसके आगे दो मीटर की ढलाई की जाती थी। इसी तरीके से 30, 40 या 50 नहीं पूरे 105 मीटर लंबा पुल बिना नीचे से किसी पिलर का सहारा लिए बनाया जाना था। जरा सी चूक से यह पूरा हिस्सा रेलवे ट्रैक पर गिरता और ऐसा होने पर रेलवे ट्रैक के साथ ही 25 हजार वोल्ट की लाइन भी नहीं बचती। इन तमाम चुनौतियों के बीच रेलवे ट्रैक के ऊपर काम शुरू हुआ तो नई समस्या खड़ी हो गई। मेट्रो ट्रैक पर चल रहे काम के दौरान नीचे पानी गिरने से 25 हजार वोल्ट का करंट ऊपर आने की आशंका जतायी जाने लगी। ऐसा होने पर ऊपर काम कर रहे मजदूरों की जान खतरे में पड़ जाती, लिहाजा नीचे तिरपाल बांधकर काम शुरू हुआ। कुछ दिनों बाद ऊपर हो रही वेल्डिंग की चिंगारी से तिरपाल में जगह जगह छेद हो गया। इसकी जानकारी होने के बाद इंजीनियरों ने काम रुकवाकर नीचे फायर प्रूफ तिरपाल बंधवाया ताकि चिंगारी से तिरपाल में छेद ना हो और ऊपर से पानी नीचे बिजली के तार पर ना गिरे। इन तमाम एहतियात के बीच दोनों पिलर की तरफ से हवा में दो दो मीटर कांक्रीट का पुल बनता रहा। एक महीने बाद दोनों तरफ से बनकर बढ़ रहा पुल ठीक बराबर एक दूसरे से मिल गया। ना एक इंच ऊपर ना एक इंच नीचे।

अवैध कब्जेदारों को पैसा देकर हटाया :
नए अलाइनमेंट में रेलवे ट्रैक के बाहर बनने वाले पिलर के लिए जो जगह मिली, वहां बड़े पैमाने पर अवैध तरीके से झुग्गियां बनी हुई थीं। इन्हें हटाने के लिए रेलवे की तरफ से अभियान चलाया जाना था लेकिन उसमें काफी समय लग सकता था। ऐसे में मेट्रो की तरफ से उन्हें अभियान का खौफ दिखाते हुए अपने आप हटने पर मुआवजे का आश्वासन दिया गया। इसपर झुग्गी वाले अपने आप वहां से हट गए।

Sunday, 25 August 2019

ऐसी जुगत भिंडायी कि जिन्हें नोटिस नहीं मिला वो भी अपना मकान तुड़वाने की पैरवी करने लगे



(रणविजय सिंह, मेट्रो पार्ट 7, 17 जनवरी 2019)


'रेलवे कॉलोनी में घरों के सामने लोग खड़े हैं... हमारे कर्मचारी, मजदूर और खोदायी की मशीनें देखते ही लोग नारेबाजी शुरू कर दे रहे हैं... जबरन मकान गिराए गए तो विवाद हो सकता है... ऐसे में कैसे काम होगा...' साथी इंजीनियर की बात सुनकर चीफ इंजीनियर ने परेशानी भरे लहजे में पूछा 'मेट्रो ने अपनी जमीन पर काम करने की अनुमति दे दी है तो फिर यह दिक्कत कैसे हो रही है' इस पर जवाब मिला कि रेलवे की जमीन पर काम करने की मंजूरी मिली है लेकिन वहां पक्के निर्माण तोड़ने की एनओसी देने को रेलवे के अधिकारी तैयार नहीं हैं।

रेलवे ने मवैया से दुर्गापुरी के बीच अपनी जमीन पर मेट्रो के पिलर बनाने की अनुमति तो दे दी थी लेकिन मकानों को तोड़ने की अनुमति देने से इंकार कर दिया। इस बारे में एलएमआरसी और रेलवे के अधिकारियों के बीच कई मीटिंगें हुईं लेकिन कोई रास्ता नहीं निकला। हर मीटिंग में रेलवे ने हर संभव मदद का आश्वासन दिया लेकिन अपने कर्मचारियों के मकानों को तोड़ने की अनुमति देने से पीछे हट गया। ऐसा करने पर कर्मचारियों के अलावा कर्मचारी नेताओं की नाराजगी अफसरों को झेलनी पड़ सकती थी। इस उहापोह में मेट्रो का काम रुकने की आशंका पैदा हो गई क्योंकि यहां पर डिजाइन में बदलाव करना भी मुमकिन नहीं था। चीफ इंजीनियर ने इन तमाम पहलुओं पर विचार करने के बाद एक बार फिर रेलवे के अधिकारियों से बात करने का फैसला किया। मीटिंग हुई लेकिन नतीजा वहीं ढाक के तीन पात।

जिन्हें नोटिस नहीं मिली वो भी पहुंच गए मकान तुड़वाने :
मकान तोड़ने को रेलवे अधिकारी एनओसी देने को तैयार नहीं थे और बिना तोड़े एलेवेटेड रूट के लिए यहां पिलर बनाना संभव नहीं था। रेलवे अफसरों के साथ सहमति की कोई गुंजाइश नहीं थी। इस बीच चीफ इंजीनियर ने साथी इंजीनियरों को बुलाकर एक ऐसे उपाय पर काम करने का सुझाव दिया, जिसके सफल होने की उम्मीद किसी को नहीं थी। एक बार फिर मीटिंग का फैसला हुआ लेकिन इस बार रेलवे अफसरों के बजाय कॉलोनी में रहने वालों को बुलाया गया। सभी को आश्वासन दिया गया कि मकान का जितना हिस्सा टूटेगा, उतना मेट्रो बनाकर देगा। रेलवे के वर्षों पुराने मकानों में रहने वालों पर मेट्रो का यह दांव काम कर गया लेकिन तोड़ने के बाद मेट्रो कैसा निर्माण करेगा? इस सवाल को लेकर वहां रहने वालों के मन में काफी शंकाएं थीं। लोगों की इस चिंता को भांपते हुए मेट्रो ने रेलवे की अनुमति से पिलर के रास्ते में आ रहा एक खाली मकान के कुछ हिस्से को गिरा दिया। इसके कुछ दिनों के बाद ही उस मकान को इतने बेहतर तरीके से बनाकर तैयार किया कि पूरी कॉलोनी में इसकी चर्चा हो गई। कॉलोनी के जर्जर क्वाटरों में रहने वाले खाली पड़े मकान के उस हिस्से को देखने आने लगे, जो मेट्रो ने बनाकर दिया। इसके बाद तो मेट्रो रूट के दायरे में आने वाले रेलवे के जितने क्वाटरों को नोटिस जारी हुआ था, उससे ज्यादा लोग मेट्रो से इस बात की सिफारिश करने लगे कि जरूरत हो तो उनका मकान भी गिरा दिया जाए। महज कुछ दिनों के होमवर्क के बाद स्थितियां पूरी तरह मेट्रो के पक्ष में हो गईं। जहां एक इंट गिराने पर भी लोग मारपीट पर आमादा थे, वहीं इस उपाय के बाद लोगों ने खुद खड़े होकर अपने मकानों की पूरी चहादीवारी तक तुडवा दी। 

Saturday, 17 August 2019

हादसे को अवसर बनाकर तैयार कर दिखाया मेट्रो स्टेशन

(रणविजय सिंह, मेट्रो पार्ट 6, 10 जनवरी 2019)

‘…तीन दिन से रुक-रुक कर लगातार बारिश हो रही है। …आलमबाग से सिंगार नगर, बदालीखेड़ा, हिंद नगर, विष्णुपुरी और टीपी नगर समेत कानपुर रोड के दोनों तरफ के दर्जनों मोहल्ले घुटनों तक पानी में डूबे हैं…। ऐसे में यू गर्डर इंस्टॉल करने के लिए इन मोहल्लों से जल निकासी के इस इकलौते नाले को बंद करने का मतलब समझते हैं आप?’ चीफ इंजिनियर के इस सवाल का जवाब कमरे में मौजूद किसी इंजिनियर के पास नहीं था। चीफ इंजिनियर ने ऐसी जगह तलाशने को कहा जहां क्रेन खड़ी कर गर्डर इंस्टॉल किया जा सके। इस पर सभी ने दो टूक कह दिया कि नाले के ऊपर क्रेन खड़ी करने के अलावा कोई चारा नहीं। दूसरी जगह से गर्डर इंस्टॉल करने के लिए ज्यादा क्षमता की क्रेनें लानी पड़ेंगी जो फिलहाल हमारे पास नहीं हैं। ऐसा हुआ तो देरी होना तय है। इससे पहले कि कोई कुछ बोलता साइट पर मौजूद इंजिनियर कमरे में दाखिल हुए और हांफते हुए बोले ‘सर…नाला धंस गया है। हमारी बेरिकेडिंग गिरते-गिरते बची है।’

यह सुनते ही चीफ इंजिनियर कुर्सी से झटके के साथ उठ खड़े हुए। परेशान लहजे में पूछा ‘नाला धंस गया लेकिन कैसे? उस पर तो काम शुरू भी नहीं हुआ था। किस तरफ से धंसा है? उसका पानी कहां जा रहा है?’ एक ही सांस में चीफ इंजिनियर ने कई सवाल पूछ डाले। मौके से आए इंजिनियर ने बताया कि मेट्रो स्टेशन के ठीक बगल में बन रहे बस स्टेशन की तरफ रीटेनिंग वॉल नहीं बनी थी, उसी तरफ नाले की दीवार धंस गई है। बस स्टेशन के लिए करीब 20 मीटर गहरायी तक मिट्टी खोदकर बेसमेंट बनाया जाना है, सारा पानी उसी में भर रहा है। इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता चीफ इंजिनियर ने स्टेशन का काम देख रहे इंजिनियरों से पूछा कि स्टेशन के लिए सारे यू गर्डर कितने दिन में इंस्टॉल हो जाएंगे, जवाब मिला चार दिन में। धीरे से बोले ‘बन गया काम’।

स्टेशन का मैप टेबल पर बिछाते हुए उन्होंने समझाना शुरू किया ‘हादसा मेट्रो स्टेशन से कुछ दूरी पर आलमबाग बस स्टेशन के लिए हो रहे निर्माण स्थल के पास हुआ है। टूटे हुए नाले की दीवार चार दिन से पहले बन नहीं पाएगी। इस बीच हमारी तरफ वाले नाले में पानी नहीं आएगा। अब इसे बंद करने पर कोई हंगामा नहीं होगा। ऐसे में तुरंत बालू की बोरियों से नाला बंद कर दें और क्रेन इसके ऊपर खड़ी करके यू गर्डर इंस्टॉल करें।' इंजिनियरों ने ऐसा ही किया और सबसे कठिन माना जाने वाला यू गर्डर इंस्टॉल कर दिया गया। 

Sunday, 11 August 2019

एक तरफ जमीन के नीचे नाला, दूसरी तरफ 33 हजार वोल्ट के तार

(रणविजय सिंह, मेट्रो पार्ट 5, 6 जनवरी 2019)

'जमीन के करीब दो मीटर गहरायी पर 33 हजार वोल्ट के तार बिछे हैं। बीएसएनएल की लाइन भी यहां से गुजर रही है, जिसके सैकड़ों तारों को हटाए बिना खोदायी मुमकिन नहीं। पिलर के लिए खोदायी की तय जगह से कुछ ही दूरी पर अंडरग्राउंड पार्किंग की दीवार है, जिसके टूटने से बड़ा हादसा हो सकता है। सड़क के दूसरी तरफ शिव मंदिर है, जिसके टूटने की आशंका में कई हिंदूवादी संगठन लगातार विरोध प्रदर्शन करते हुए काम रोकने की चेतावनी और धमकी दे रहे हैं...' आलमबाग मेट्रो स्टेशन के लिए खोदायी शुरू करने से पहले आ रही दिक्कतों के बारे में चीफ इंजीनियर को इतना बताकर इंजीनियर चुप हो गए।

पूरी बात सुनकर चीफ इंजीनियर ने धीरे से कहा 'कोई और भी दिक्कत हो तो बता दो...' इसपर पीछे खड़े इंजीनियर ने बताया कि सड़क के दूसरी तरफ जमीन के नीचे दो मीटर गहरायी पर अंडरग्राउंड नाला आ गया है, जिसे डायवर्ट करने के लिए वहां कोई जगह नहीं है और बिना ऐसा किए वहां पिलर बनाना मुमकिन नहीं।' नई समस्या सामने आने पर चीफ इंजीनियर ने पूछा 'यह बात काम शुरू करने से पहले पता क्यों नहीं चली' इसपर जवाब मिला कि नगर निगम, जल संस्थान, जल निगम या एलडीए की तरफ से यहां अंडरग्राउंड नाला होने की जानकारी ही नहीं दी गई थी।

काम शुरू नहीं हुआ और एक के बाद एक कई समस्याएं एक साथ सामने आ गईं। चीफ इंजीनियर अपने केबिन से निकलकर मौके पर पहुंच गए। साथी इंजीनियर से पूछा 'बीएसएनएल को तो दो महीने पहले पत्र भेजकर लाइटें हटाने को कहा गया था, उसका क्या हुआ?' साथी इंजीनियर ने उनकी तरफ पत्र बढ़ाते हुए बताया कि आज ही सुबह जवाब आया है। पत्र पढ़ने के बाद खीझते हुए चीफ इंजीनियर खीझते हुए बोले 'हम मेट्रो बनाने आए हैं, बीएसएनएल के तार बिछाने नहीं...'Ṣ साथी इंजीनियरों ने गुस्से की वजह पूछी तो पता चला कि आलमबाग में खोदायी होनी है लेकिन बीएसएनएल यहां से लेकर चारबाग तक लाइन बदलने की बात कह रहा है और इसके लिए आठ करोड़ रुपये का खर्च होने का प्रस्ताव भेज दिया है। एक तरफ अंडरग्राउंड पार्किंग थी और दूसरी तरफ व्यस्त सड़क, लिहाजा डिजाइन बदलकर पिलर्स की लोकेशन भी इधर उधर करना मुश्किल था। मामला जटिल होता देख चीफ इंजीनियर ने एक एक समस्या को हल करते हुए काम आगे बढ़ाने का फैसला किया। उन्होंने अंडरग्राउंड पार्किंग की तरफ लेसा और बीएसएनएल के तारों तक मैनुअली खोदायी कराने का फैसला किया। उन्होंने इंजीनियरों को समझाते हुए कहा 'दो मीटर या उससे ज्यादा तब तक कर्मचारियों से खोदायी करवायी जाए, जब तक लेसा और बीएसएनएल के तार दिखने ना लगें। उसके बाद पाइल के लिए जितनी जमीन चाहिए, उतने हिस्से से यह तार दाएं बाएं खिसकाकर उन्हें किसी चीज से दबा दो ताकि इसके नीचे 30 मीटर गहरायी तक रिग मशीन से होने वाली खोदायी बिना दिक्कत के हो सके। एक बार कांक्रीट की पाइल तैयार हो जाएगी तो यह तार अपने आप अपनी जगह ले लेंगे।' योजना पर काम शुरू हुआ और एक महीने के भीतर ही बिना तारों को हटाए पाइलिंग होने लगी। हालांकि सड़क के दूसरी तरफ नाला, मंदिर और दुकानदार अभी भी काम शुरू होने की राह का रोड़ा बने हुए थे। चीफ इंजीनियर ने मंदिर प्रबंधन और दुकानदारों के साथ सीधी बात करने का फैसला किया। दुकानदारों से दो टूक बात करते हुए उन्होंने कहा 'हमारे पास सीधे मुख्य सचिव के यहां से अनुमति है। अवैध निर्माण और अतिक्रमण के चलते किसी भी समय ध्वस्तीकरण कराया जा सकता है लेकिन आप लोग काम में सहयोग करें किसी भी तरह की तोड़फोड़ नहीं होगी। जितने दिन काम चलेगा, उतने दिन दुकानदारी कुछ कम होगी' हालात को भांपते हुए दुकानदार काम जारी रखने को लेकर सहमत हो गए।

'जगह तो मिल गई लेकिन नाले का क्या करेंगे?' इंजीनियरों ने खोदायी शुरू कराने से पहले पूछा। इसपर चीफ इंजीनियर ने जवाब देने के बजाय मुस्कुराते हुए पूछा 'टीपी नगर स्टेशन याद है या भूल गए?' कोई जवाब नहीं मिला तो चीफ इंजीनियर खुद ही बोल पड़े 'वहां ग्रीन गैस पाइप लाइन को बचाने के लिए ब्रिज तकनीक का इस्तेमाल हुआ था, यहां भी उसी तकनीक से पाइल बन सकते हैं।' नाले वाले हिस्से को छोड़ते हुए उसके दोनों किनारे पर पाइलिंग के लिए खोदायी हुई। इसके लिए व्यापारियों की दुकानों के दरवाजे तक बेरिकेडिंग कर जमीन के 30 मीटर गहरायी तक खोदायी करनी पड़ीं। दुकानें हमेशा के लिए टूट जाएं, इसके बजाय कुछ दिनों की दिक्कत झेलने को तैयार व्यापारी इसके लिए भी तैयार हो गए। तीसरी बड़ी चुनौती शिव मंदिर को बचाते हुए स्टेशन बनाने की थी। इसके लिए डिजाइन में बदलाव करने का फैसला हुआ, जिसे आला अधिकारियों ने मंजूरी दे दी।

पार्किंग के ऊपर बना दिया एक्जिट :
सिंगार नगर की तरह ही आलमबाग में भी इतनी पर्याप्त जगह नहीं मिली कि मेट्रो स्टेशन में दाखिल होने और बाहर निकलने के लिए अलग अलग रास्ते बनाए जा सकें। हालांकि यहां चीफ इंजीनियर ने प्रॉजेक्ट के लिए परेशानी बन रही अंडरग्राउंड पार्किंग को ही अपने समाधान का जरिया बना लिया। स्टेशन से इस पार्किंग की छत पर ही एल्युमीनियम की सीढ़ी बना दी। यह सीढ़ी पार्किंग की छत पर ठीक उस जगह रखी गई, जिसके नीचे पार्किंग का पिलर बना हुआ है। ऐसा करके मेट्रो ने बिना कोई अतिरिक्त जगह अधिग्रहीत किए ही मेट्रो से बाहर निकलने का बड़ा रास्ता पा लिया। 

Sunday, 4 August 2019

जमीन नहीं मिली तो ट्रैक के एक पिलर्स पर ही खड़ा कर दिखाया पूरा स्टेशन

 (रणविजय सिंह, पार्ट फोर, 3 जनवरी 2019)

..सिंगार नगर मेट्रो स्टेशन का मैप हाथ में लिए कर्मचारियों से घिरे चीफ इंजीनियर बुदबुदाने लगे 'लगता नहीं कि यहां जमीन मिल पाएगी...' इससे पहले कि वो अपनी बात पूरी कर पाते उनका मोबाइल बजने लगा। स्क्रीन पर प्रॉजेक्ट मैनेजर का नाम देखते ही उन्होंने दूसरी तरफ से पूछे जाने वाले सवाल की कल्पना कर ली। फोन रिसीव करते ही उनका अंदेशा सही साबित हुआ 'क्या हुआ? सिंगार नगर में काम क्यों नहीं शुरू हो पा रहा है? व्यापारियों के साथ बात ही होती रहेगी या काम भी शुरू होगा? आपको पता तो है ना कि काम समय पर पूरा करने का कितना दबाव है?'
बिना सवालों के जवाब का इंतजार किए प्रॉजेक्ट मैनेजर ने एक के बाद एक कई सवाल दाग दिए। फोन कान में लगाए चीफ इंजीनियर टहलते हुए साथी इंजीनियरों से कुछ दूर आए और बोले 'पूरे आलमबाग के व्यापारी लामबंद हैं। स्टेशन के लिए एक इंच जमीन छोड़ने को तैयार नहीं। इतनी भी जमीन नहीं है कि स्टेशन में एंट्री और एग्जिट के अलग अलग रास्ते बनाए जा सकें। प्रदेश सरकार की हरी झंडी के बावजूद दुकानों में तोड़फोड़ का सीधा मतलब है कि मामला अदालत में चला जाएगा। एक बार कोर्ट कचहरी शुरू हुई तो फैसला आने तक काम करना मुश्किल हो जाएगा। इस बीच उन्हें फायदे समझाने के साथ ही कार्रवाई की चेतावनी का असर यह हुआ कि व्यापारी दिल्ली जाकर सांसद और गृहमंत्री राजनाथ सिंह से मिल आए। ऐसे में बल प्रयोग करने से मामला यूपी बनाम दिल्ली हो जाएगा। स्थितियां लगातार जटिल होती जा रही थीं।' इतना बोलकर चीफ इंजीनियर खामोश हो गए और दूसरी तरफ से जवाब का इंतजार करने लगे लेकिन कोई जवाब नहीं मिला तो उन्होंने फिर बोलना शुरू किया 'अब हमारे पास एक ही उपाय है कि जितनी जमीन मिली है, उतने में ही स्टेशन बनाने का काम शुरू करा दिया जाए भले ही इसके लिए डिजाइन में बदलाव करन पड़े'। चीफ इंजीनियर की बात सुनने के बाद प्रॉजेक्ट मैनेजर ने उन्हें नई योजना पर काम करने को मंजूरी दे दी। इसके बाद चीफ इंजीनियर ने सभी इंजीनियरों को अपने केबिन में बुला लिया।
मीटिंग कक्ष में चीफ इंजीनियर के सामने टेबल पर सिंगार नगर स्टेशन का मैप रखा हुआ था। सबके आने के बाद चीफ इंजीनियर ने बोलना शुरू किया 'सिंगार नगर में हमें  एक पिलर पर ही पूरा स्टेशन बनाना होगा।' इतना सुनते ही इंजीनियरों ने हैरानी के साथ उनकी तरफ देखना शुरू कर दिया। कमरे में सन्नाटे को तोड़ते हुए पीछे बैठे शख्स ने पूछा 'मतलब...कैसे?' बिना सवाल पूछने वाले शख्स की तरफ देखे चीफ इंजीनियर ने जवाब दिया 'डिवाइडर पर एलेवेटेड ट्रैक के लिए बनने वाले पिलर को ही यहां इस तरह से डिजाइन करना पड़ेगा ताकि उसपर ट्रैक के साथ 'कैंटी लीवर' बनाकर पूरे स्टेशन को तैयार किया जा सके' सबकी चिंता और परेशानी को भांपते हुए चीफ इंजीनियर ने अपनी आवाज में आत्मविश्वास दिखाते हुए तेज आवाज में कहा 'यह मुमकिन है...' इसके साथ ही मीटिंग खतम हो गई और सभी सिंगार नगर की तरफ रवाना हो गए।
चीफ इंजीनियर ने सिंगार नगर में स्टेशन वाली जगह डिवाइडर पर बन रहे पिलर को अतिरिक्त मजबूती के लिए ज्यादा सरिया और कांक्रीट का इस्तेमाल करने के निर्देश दिए। इसके साथ ही स्टेशन के दायरे में डिवाइडर पर पिलर्स की संख्या भी बढ़ा दी ताकि स्टेशन की मजबूती को लेकर किसी तरह की आशंका ना रहे। इसके बाद इस पिलर पर जमीन से करीब 12 मीटर पर दोनों तरफ स्टेशन का पूरा प्लेटफॉर्म ढ़ाला जाने लगा। इसमें सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण काम यह था कि स्टेशन के नीचे सड़क की तरफ से मजबूती देने के लिए कोई पिलर नहीं बनाया जाना था। 'क्या देख रहे हो...?' सिंगार नगर स्टेशन की तरफ सिर उठाए देख रहे इंजीनियर की तरफ मुस्कुराते हुए चीफ इंजीनियर ने अपने साथी इंजीनियर से पूछा। कुछ सकपकाते हुए इंजीनियर ने कहा 'कुछ नहीं सर...' फिर थोड़ी देर चुप रहने के बाद दोबारा ऊपर की तरफ देखते हुए बोला 'सर मैं सोच रहा था कि यह गिर तो नहीं जाएगा?' सिंगार नगर मेट्रो स्टेशन का मैप हाथ में लिए हुए चीफ इंजीनियर ने मजाकिया लहजे में जवाब दिया 'तो क्या तुम यहां खड़े होकर इसलिए ऊपर देख रहे हो ताकि कैंटी लीवर गिरने से बचा सको'। इतना कह दोनों हंसने लगे लेकिन चीफ इंजीनियर खुद भी जानते थे कि जो चुनौती उन्होंने ले ली है, उसे पूरा करना इतना आसान नहीं है। करीब दो महीने महीने तक दिनरात निगरानी और मेहनत के बाद चीफ इंजीनियर अपनी पूरी टीम के साथ सिंगार नगर मेट्रो स्टेशन के नीचे खड़े थे। ऊपर पूरा प्लेटफॉर्म बिना सड़क की तरफ अतिरिक्त पिलर बनाए तैयार हो चुका था। ऊपर देख रहे साथी इंजीनियरों की पीठ ठोंकते हुए चीफ इंजीनियर मुस्कुराते हुए बोले 'मैने कहा था ना कि यह मुमकिन है' इतना सुनते ही वहां मौजूद सभी खिलखिलाकर हंस पड़े।

Friday, 25 January 2019

जड़ समेत बरगद के 4 टुकड़े किए, चारों से बनाए नए पेड़



(रणविजय सिंह, पार्ट टू, 23 दिसंबर 2018)

लखनऊ : 'आप जुर्माना लगा दीजिए या मशीन सीज करवा दें, मैं काम नहीं कर सकता...'। इतना कहते हुए सरदार जी क्रेन के ड्राइवर को साथ लेकर डिपो से बाहर निकल गए। 'सर... एक क्रेन पहले ही जमीन में धंस चुकी है। बड़ी तलाश के बाद कानपुर से किसी तरह क्रेनें मंगवाईं थीं। अब अगर ये भी चली गईं तो काम कैसे होगा? पेड़ भी एक-दो नहीं 900 से ज्यादा हैं'। पर्यावरण अभियंता ने यह कहते हुए चीफ इंजिनियर की तरफ मायूसी से देखा। सबको परेशान देख उद्यान अधिकारी बोले, एक उपाय है लेकिन...। चीफ इंजिनियर ने पूछा, लेकिन क्या? उद्यान अधिकारी बोले, 'यह तरीका इतने पुराने और वजनी पेड़ों पर कीाी इस्तेमाल नहीं हुआ। इसलिए गारंटी नहीं ले सकता पेड़ बचाया जा सकेगा।
डिपो से लेकर चारबाग तक 120 से 130 टन तक के पेड़ निकालकर दूसरी जगह लगाए जाने हैं। इन्हें बचाना भी है। इस कोशिश में डिपो के भीतर दो क्रेनें धंस चुकी हैं। इसके बाद कोई दूसरा क्रेन मालिक आने को तैयार नहीं। हमारी क्रेन 130 टन के पेड़ जड़ समेत उठाकर ले जाने में सक्षम नहीं हैं। चीफ इंजिनियर ने एक सांस में सारी परेशानी उद्यान अधिकारी के सामने रखते हुए उपाय बताने को कहा। उद्यान अधिकारी के उपाय पर किसी को यकीन नहीं हुआ कि इसके बाद पेड़ बचेगा भी या नहीं। कोई और रास्ता नहीं सूझने पर चीफ इंजिनियर ने बताए गए तरीके से काम करने की मंजूरी दे दी।

अनिष्ट की आशंका में छंटाई को तैयार नहीं थे कर्मचारी :
योजना पर काम शुरू भी नहीं हुआ था कि नई समस्या आ गई। सुपरवाइजर ने बताया कि अनिष्ट की आशंका में कोई भी कर्मचारी पीपल के पेड़ों की टहनियां काटने को तैयार नहीं है। बिना कुछ बोले चीफ इंजिनियर कर्मचारियों की तरफ चल पड़े। पीपल के पेड़ के पास जमीन पर बैठे कर्मचारी उन्हें देखते ही हाथ जोड़कर खड़े हो गए। चीफ इंजिनियर ने समझाया, 'आप लोग पीपल काट नहीं रहे, बल्कि उसे बचा रहे हैं। टहनी नहीं कटेगी तो पूरा पेड़ काटना पड़ेगा। बचाने के लिए हल्का किया जाना जरूरी है। इसके बाद निकालकर शनि मंदिर के पास लगाया जाएगा। पेड़ कटने से बचेगा पाप नहीं पुण्य मिलेगा'। कर्मचारियों को बात समझ आ गई और छंटाई शुरू हो गई। हालांकि बरगद को हटाना अब भी सिरदर्द बना हुआ था। डिपो से लेकर टीपी नगर और चारबाग के बीच तमाम ऐसे पेड़ थे, जिन्हें बिना काटे, दूसरी जगह लगाना चुनौती था।
पहली बार जड़ समेत पेड़ के टुकड़े कर बचाया
चीफ इंजिनियर की मंजूरी के बाद उद्यान अधिकारी ने वह काम शुरू किया जो अब तक केवल किताबों में पढ़ा था। टहनियां कटवाने के बाद पेड़ का वजन करीब 130 टन आंका गया। पेंड़ के तने का व्यास करीब सात फुट था। तने के एक मीटर दायरे में जड़ की तरफ जमीन पर निशान लगाया गया। इसके बाद आधे हिस्से में दो से तीन मीटर तक खोदाई की गई। इसके बीच आने वाली जड़ों को काटा जाता रहा और उन्हें बचाने के लिए प्लांट हार्मोंस ऑक्सिन का लेप लगाया जाता रहा। इसमें 15 दिन लगे। इसके बाद यही कवायद बचे आधे हिस्से में की गई। चारों तरफ से जड़ समेत खोदाई होने और कटी जड़ों पर हार्मोंस के लेप के बाद बोरी से बांधकर 5 से 10 दिन के लिए छोड़ दिया गया। इसके बाद इस तने को ऊपर से लंबाई में जड़ तक चार टुकड़े में काटा गया। सभी हिस्सों पर प्लांट हार्मोंस ऑक्सिन का लेप किया गया। इसके बाद सामान्य क्रेन से टुकड़ों को डिपो की बाउंड्री के पास पहले से बनाए गए गड्ढे में लगाया गया। करीब छह महीने तक देखभाल की गई और चारों टुकड़े नए पेड़ बन गए।

डर के आगे जीत है :
पहले जिस पेड़ को बचाना मुश्किल लग रहा था, वहीं चार जगह हरियाली फैला रहा है। चीफ इंजीनियर समेत डिपो में मौजूद अधिकारियों के लिए भी यह किसी अजूबे से कम नहीं था। इसके बाद चीफ इंजिनियर ने उद्यान अधिकारी और वन अधिकारी को बुलाकर पूछा 'यह बताओ कि तुमने पहले से ही योजना बना ली थी या मौके का इंतजार कर रहे थे'। वन अधिकारी ने मुस्कुराते हुए कहा कि पहले ही सर्वे कर पेड़ों की नम्बरिंग कर ली थी। इसमें पेड़ों की उम्र, प्रजाति और मौसम देखकर दूसरी जगह लगाने की संभावनाओं को भी परख लिया था। कुछ देर चुप रहने के बाद चीफ इंजिनियर की तरफ रिपोर्ट बढ़ाते हुए कहा, इस प्रॉजेक्ट में टीपीनगर डिपो से चारबाग तक के रूट में 981 पेड़ काम के आड़े आ रहे थे। इनमें पीपल, बरगद, कचनार, मौलश्री, चितवन, टीक, कंजी और सेमल जैसे पेड़ थे। सभी पेड़ों को बचा लिया गया।

जरा सी चूक से उड जाती टीपी नगर की सड़क और ग्रीन गैस पंप

(रणविजय सिंह, पार्ट थ्री, 27 दिसंबर 2018)
आप समझ नहीं रहे हैं... रिग मशीन का जरा सा झटका लगेगा और टीपी नगर से अमौसी तक की ब्लास्ट होने लगेंगे। आसपास की इमारतें भी गिर सकती हैं... पूरे लखनऊ की सप्लाई ठप हो जाएगी सो अलग... फैसला आप लोगों को लेना है। इतना सुनते ही एलएमआरसी टीम के साथ आए आला अधिकारी सकते में आ गए... पूछा, 'क्यों भाई? क्या नीचे बारूद बिछा हुआ है'। अफसरों के चेहरे पर प्रॉजेक्ट लेट होने की आशंका और समय पर काम पूरा करने का दबाव साफ झलक रहा था। मामले को संभालने की कोशिश करते हुए साइट पर मौजूद इंजिनियर ने जवाब दिया...'सर, बारूद नहीं, लेकिन ग्रीन गैस की पाइप लाइन बिछी है, जो अमौसी के पंप से जुड़ी है। इसी लाइन से पूरे लखनऊ में ग्रीन गैस की सप्लाई होती है...। हमारी पाइलिंग ठीक इसके ऊपर है, रिग मशीन एक बार में जमीन के नीचे एक से डेढ़ मीटर तक खोद देती है...ऐसे में मशीन दायरे में आने पर ग्रीन गैस की पाइप का फटना तय है'।
इतना बोलकर इंजीनियर चुप हो गए और चारों तरफ सन्नाटा छा गया। चुप्पी तोड़ते हुए एलएमआरसी टीम के साथ आए अफसर ने लगभग चीखते हुए पूछा, ...तो इस पाइप लाइन को अब तक हटवाया क्यों नहीं गया? इस सवाल पर इंजिनियरों का जवाब सुनकर अफसरों के होश उड़ गए। उन्होंने कहा जमीन के नीचे पाइपों में ग्रीन गैस भरी हुई है, एजेंसी इसे शिफ्ट करने की मंजूरी देने को तैयार नहीं है, पाइप लाइन कितनी गहरायी पर है? यह भी उन्हें नहीं पता। पाइपों में गैस की मात्रा और लोकेशन भी एजेंसी साझा करने को तैयार नहीं है। इतना कहकर एक बार फिर इंजिनियर समाधान की आस में अफसरों का चेहरा देखने लगे। कुछ देर सोंचकर अफसरों ने एहतियात के साथ खोदायी के विकल्प पर विचार करते हुए पूछा कि हादसा होने पर बचाव के उपाय क्या हैं? जवाब मिला कि ग्रीन गैस की तरफ से ऐसे टिप्स या उपाय बताने में भी असमर्थता जता दी गई है। इतना सुनने के बाद टीपी नगर स्टेशन का काम अटकने की आशंका में अफसरों के चेहरे का रंग ही उड़ गया...।
नहीं हारे हिम्मत
ग्रीन गैस के साथ सामंजस्य के सारे रास्ते बंद होने के बाद सिविल इंजिनियरों की टीम ने समाधान का उपाय खोजना शुरू किया। चीफ इंजिनियर और अधिकारियों की घंटों की माथापच्ची के बाद तय हुआ कि अगर ग्रीन गैस की तरफ से पाइप लाइन की लोकेशन नहीं मिल रही तो एलएमआरसी खुद खोजेगा। इसके बाद भी समस्या का पूरा समाधान नहीं हुआ, क्योंकि लोकेशन मिलने के बाद भी पाइप लाइन हटाने के लिए ग्रीन गैस ने एनओसी देने से इनकार कर दिया। लेकिन कहते हैं कि जहां चाह वहां राह। एलएमआरसी ने भी काम करने की ठान ली थी। एक बार फिर मेट्रो ने ग्रीन गैस के अफसरों से बात करने पर डिजाइन और जमीन के नीचे पाइप लाइन की पहचान करने वाला लोकेटर मुहैया करवा दिया गया। हालांकि इस मशीन से भी जमीन के नीचे केवल दो मीटर तक की ही जानकारी मिल पा रही थी। ऐसे में जेसीबी से जमीन को दो मीटर तक खोदने के बाद गड्ढा बनाया गया। इसके बाद उसमें लोकेटर रखकर पाइप का पता लगाया गया और पाइप लाइन मिलने तक रिग मशीन के बजाय कर्मचारियों से करवाई।
ब्रिज तकनीक
एलएमआरसी टीम और सिविल इंजिनियरों ने समाधान के तौर जमीन के नीचे ब्रिज तकनीक का इस्तेमाल कर पाइलिंग करने का फैसला किया गया। देश के शायद ही किसी दूसरे मेट्रो प्रॉजेक्ट में इस तकनीक से पाइलिंग हुई होगी, लेकिन विवाद से बचते हुए समय पर काम करने के लिए दूसरा कोई चारा भी नहीं था। जमीन के नीचे 25 मीटर गहरायी तक पाइलिंग की गई लेकिन ग्रीन गैस के पाइप वाले हिस्से के चारों तरफ ब्रिज तकनीक के जरिए खाली छोड़ दिया गया। इसके लिए पाइलिंग के मूल डिजाइन में आंशिक बदलाव किया गया।

दलदली जमीन पर सैकड़ों टन की मशीनें चला डिपो बनाने की थी चुनौती

(रणविजय सिंह, पार्ट वन, 20 दिसंबर 2018)

लखनऊ: 'एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा' बुदबुदाते हुए मेट्रो डिपो के चीफ इंजिनियर हाथ बांधकर इधर से उधर टहलने लगे। उन्हें परेशान देख इंजिनियरों से चुप नहीं रहा गया। वे पूछ बैठे, 'क्या हुआ सर? अब क्या समस्या आ गई?' यह सुनकर चीफ इंजिनियर ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया 'अभी पता चला है कि डिपो के लिए जो जमीन मिली है, उसका बड़ा हिस्सा दलदली है। सैकड़ों टन की मशीनें उसके आसपास भी गईं तो जमीन भी धंस जाएगी।'
'पूरी तरह से खाली जमीन पर डिपो बनाने में औसतन दो साल लगता है, लेकिन हमें एक साल में काम पूरा करना है। इसके बावजूद हमें पीएसी की वह जमीन दी गई है, जिस पर पहले से स्कूल, मकान, मंदिर और ऑफिस बने हैं। इन्हें भी एक तरफ से तोड़ने के बजाय हमें पीएसी के लिए ये इमारतें दूसरी जगह बनाकर देनी हैं। इसके बाद यहां लगे पेड़ों को भी काटने के बजाय उन्हें जड़ समेत निकालकर दूसरी जगह लगाना है। यह सब करते हुए भी दो साल का काम हम एक साल में करने की तैयारी कर रखी थी लेकिन...'। एक सांस में ही यह सब बताने के बाद चीफ इंजिनियर कुछ देर रुके और फिर बोले, '...और अब पता चल रहा है कि जमीन भी दलदली है।'
डिपो की डिजाइन में बदलाव कर अहम इमारतों को जमीन के दलदली हिस्से के बजाय दूसरी जगह शिफ्ट किया जा सकता था, लेकिन उसके लिए भी समय नहीं था। इस बीच 15 जून 2015 को काम शुरू करने का ऐलान हो गया। एक सप्ताह तक सोच-विचार के बाद हुई बैठक में अचानक चीफ इंजिनियर आए और बोले 'डिजाइन के मुताबिक जिस जमीन पर जो इमारत बननी है, वह वहीं बनेगी।' इससे पहले कि कोई कुछ समझता, उन्होंने जमीन का जियोलॉजिकल सर्वे करवाने के अलावा तहसीलदार और इंजिनियरों को जमीनों की दोबारा पैमाइश करने को कहा।
अगले दिन चीफ इंजिनियर के दफ्तर पहुंचने से पहले ही टेबल पर पूरी रिपोर्ट पड़ी थी। साथी इंजिनियरों के बीच उन्होंने बुदबुदाते हुए रिपोर्ट पढ़ी, '46 एकड़ कुल जमीन में से नौ एकड़...' इतना सुनते ही सामने बैठे इंजिनियर ने कहा, 'मतलब करीब 20 फीसदी जमीन तो दलदली ही है। रिपोर्ट दोबारा टेबल पर रखते हुए उन्होंने 15 दिन के भीतर दलदली हिस्से की खोदाई कर वहां बालू से भरने को कहा। इसके बाद जेसीबी लगाकर 15 दिन में दलदली जमीन की खोदाई की गई और 30 ट्रक से ज्यादा बालू भरी गई। फिर कच्ची मिट्टी डाली गई। इसके बाद भी डिपो में रिसीविंग सब स्टेशन के लिए तय जमीन इतनी मजबूत नहीं हो सकी कि वहां भारी मशीनें चढ़ाई जा सकें।
अब क्या करें? साथी इंजीनियरों के इस सवाल पर चीफ इंजिनियर ने कहा, 'अब इस पूरी जमीन पर कंक्रीट पाइलिंग करनी होगी। 5000 वर्ग फुट से ज्यादा क्षेत्रफल में कंक्रीट की चादर बिछानी पड़ेगी।' यब सुनकर बगल में खड़े इंजिनियर बोल पड़े, '...लेकिन यह तकनीक तो एलेवेटेड रूट पर पिलर्स को मजबूती देने में इस्तेमाल होती है। आज तक किसी भी मेट्रो प्रॉजेक्ट के डिपो में इसका इस्तेमाल नहीं सुना।' इसके बाद काम शुरू हुआ और एक महीने बाद पूरे डिपो में अफसरों ने सैकड़ों टन की मशीनों को दौड़ते देखा। प्रॉजेक्ट में देरी की आशंका से घबराए इंजिनियरों को काम होने के बाद चीफ इंजीनियर ने बुलाया और बोले कि 'मैं न कहता था कि ऐसा कुछ नहीं जो इंजिनियर न बना सके।' इतना सुनते ही सबके चेहरे पर मुस्कान बिखर गई।

तो क्या बड़े अस्पताल मरीज को भर्ती कर डकैती डालने पर आमादा हैं

समय रहते रजनीश ने अपने नवजात शिशु को अपोलो मेडिक्स से जबरन डिस्चार्ज न कराया होता तो मुझे आशंका है कि 15 से 20 लाख रूपए गंवाने के बाद भी अपन...