Friday, 25 January 2019

दलदली जमीन पर सैकड़ों टन की मशीनें चला डिपो बनाने की थी चुनौती

(रणविजय सिंह, पार्ट वन, 20 दिसंबर 2018)

लखनऊ: 'एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा' बुदबुदाते हुए मेट्रो डिपो के चीफ इंजिनियर हाथ बांधकर इधर से उधर टहलने लगे। उन्हें परेशान देख इंजिनियरों से चुप नहीं रहा गया। वे पूछ बैठे, 'क्या हुआ सर? अब क्या समस्या आ गई?' यह सुनकर चीफ इंजिनियर ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया 'अभी पता चला है कि डिपो के लिए जो जमीन मिली है, उसका बड़ा हिस्सा दलदली है। सैकड़ों टन की मशीनें उसके आसपास भी गईं तो जमीन भी धंस जाएगी।'
'पूरी तरह से खाली जमीन पर डिपो बनाने में औसतन दो साल लगता है, लेकिन हमें एक साल में काम पूरा करना है। इसके बावजूद हमें पीएसी की वह जमीन दी गई है, जिस पर पहले से स्कूल, मकान, मंदिर और ऑफिस बने हैं। इन्हें भी एक तरफ से तोड़ने के बजाय हमें पीएसी के लिए ये इमारतें दूसरी जगह बनाकर देनी हैं। इसके बाद यहां लगे पेड़ों को भी काटने के बजाय उन्हें जड़ समेत निकालकर दूसरी जगह लगाना है। यह सब करते हुए भी दो साल का काम हम एक साल में करने की तैयारी कर रखी थी लेकिन...'। एक सांस में ही यह सब बताने के बाद चीफ इंजिनियर कुछ देर रुके और फिर बोले, '...और अब पता चल रहा है कि जमीन भी दलदली है।'
डिपो की डिजाइन में बदलाव कर अहम इमारतों को जमीन के दलदली हिस्से के बजाय दूसरी जगह शिफ्ट किया जा सकता था, लेकिन उसके लिए भी समय नहीं था। इस बीच 15 जून 2015 को काम शुरू करने का ऐलान हो गया। एक सप्ताह तक सोच-विचार के बाद हुई बैठक में अचानक चीफ इंजिनियर आए और बोले 'डिजाइन के मुताबिक जिस जमीन पर जो इमारत बननी है, वह वहीं बनेगी।' इससे पहले कि कोई कुछ समझता, उन्होंने जमीन का जियोलॉजिकल सर्वे करवाने के अलावा तहसीलदार और इंजिनियरों को जमीनों की दोबारा पैमाइश करने को कहा।
अगले दिन चीफ इंजिनियर के दफ्तर पहुंचने से पहले ही टेबल पर पूरी रिपोर्ट पड़ी थी। साथी इंजिनियरों के बीच उन्होंने बुदबुदाते हुए रिपोर्ट पढ़ी, '46 एकड़ कुल जमीन में से नौ एकड़...' इतना सुनते ही सामने बैठे इंजिनियर ने कहा, 'मतलब करीब 20 फीसदी जमीन तो दलदली ही है। रिपोर्ट दोबारा टेबल पर रखते हुए उन्होंने 15 दिन के भीतर दलदली हिस्से की खोदाई कर वहां बालू से भरने को कहा। इसके बाद जेसीबी लगाकर 15 दिन में दलदली जमीन की खोदाई की गई और 30 ट्रक से ज्यादा बालू भरी गई। फिर कच्ची मिट्टी डाली गई। इसके बाद भी डिपो में रिसीविंग सब स्टेशन के लिए तय जमीन इतनी मजबूत नहीं हो सकी कि वहां भारी मशीनें चढ़ाई जा सकें।
अब क्या करें? साथी इंजीनियरों के इस सवाल पर चीफ इंजिनियर ने कहा, 'अब इस पूरी जमीन पर कंक्रीट पाइलिंग करनी होगी। 5000 वर्ग फुट से ज्यादा क्षेत्रफल में कंक्रीट की चादर बिछानी पड़ेगी।' यब सुनकर बगल में खड़े इंजिनियर बोल पड़े, '...लेकिन यह तकनीक तो एलेवेटेड रूट पर पिलर्स को मजबूती देने में इस्तेमाल होती है। आज तक किसी भी मेट्रो प्रॉजेक्ट के डिपो में इसका इस्तेमाल नहीं सुना।' इसके बाद काम शुरू हुआ और एक महीने बाद पूरे डिपो में अफसरों ने सैकड़ों टन की मशीनों को दौड़ते देखा। प्रॉजेक्ट में देरी की आशंका से घबराए इंजिनियरों को काम होने के बाद चीफ इंजीनियर ने बुलाया और बोले कि 'मैं न कहता था कि ऐसा कुछ नहीं जो इंजिनियर न बना सके।' इतना सुनते ही सबके चेहरे पर मुस्कान बिखर गई।

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