लखनऊ: 'एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा' बुदबुदाते हुए मेट्रो डिपो के चीफ इंजिनियर हाथ बांधकर इधर से उधर टहलने लगे। उन्हें परेशान देख इंजिनियरों से चुप नहीं रहा गया। वे पूछ बैठे, 'क्या हुआ सर? अब क्या समस्या आ गई?' यह सुनकर चीफ इंजिनियर ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया 'अभी पता चला है कि डिपो के लिए जो जमीन मिली है, उसका बड़ा हिस्सा दलदली है। सैकड़ों टन की मशीनें उसके आसपास भी गईं तो जमीन भी धंस जाएगी।'
'पूरी तरह से खाली जमीन पर डिपो बनाने में औसतन दो साल लगता है, लेकिन हमें एक साल में काम पूरा करना है। इसके बावजूद हमें पीएसी की वह जमीन दी गई है, जिस पर पहले से स्कूल, मकान, मंदिर और ऑफिस बने हैं। इन्हें भी एक तरफ से तोड़ने के बजाय हमें पीएसी के लिए ये इमारतें दूसरी जगह बनाकर देनी हैं। इसके बाद यहां लगे पेड़ों को भी काटने के बजाय उन्हें जड़ समेत निकालकर दूसरी जगह लगाना है। यह सब करते हुए भी दो साल का काम हम एक साल में करने की तैयारी कर रखी थी लेकिन...'। एक सांस में ही यह सब बताने के बाद चीफ इंजिनियर कुछ देर रुके और फिर बोले, '...और अब पता चल रहा है कि जमीन भी दलदली है।'
डिपो की डिजाइन में बदलाव कर अहम इमारतों को जमीन के दलदली हिस्से के बजाय दूसरी जगह शिफ्ट किया जा सकता था, लेकिन उसके लिए भी समय नहीं था। इस बीच 15 जून 2015 को काम शुरू करने का ऐलान हो गया। एक सप्ताह तक सोच-विचार के बाद हुई बैठक में अचानक चीफ इंजिनियर आए और बोले 'डिजाइन के मुताबिक जिस जमीन पर जो इमारत बननी है, वह वहीं बनेगी।' इससे पहले कि कोई कुछ समझता, उन्होंने जमीन का जियोलॉजिकल सर्वे करवाने के अलावा तहसीलदार और इंजिनियरों को जमीनों की दोबारा पैमाइश करने को कहा।
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