Tuesday, 30 May 2017

5 साल से गायब कर्मचारी को अपने यहां तैनात दिखा कर दिया नियमित

(रणविजय सिंह, पांच मई 2017, पार्ट थ्री)

एलयू के कुलसचिव कार्यालय पर 'चिराग तले अंधेरा' कहावत सटीक बैठती है। संविदा कर्मचारियों को नियमित करने के लिए कुलसचिव कार्यालय ने जो 128 कर्मचारियों की सूची शासन को भेजी है, उसमें अंगद कुमार नामक कर्मचारी का भी नाम है। चौंकाने वाली बात यह है कि यह कर्मचारी पिछले पांच साल से गायब चल रहा है। इसकी उपस्थिति और मौजूदगी का कोई दस्तावेज एलयू में नहीं है। इसके बावजूद कुलसचिव कार्यालय ने इसे अपने यहां तैनात दिखाते हुए नियमित किए जाने की सिफारिश कर दी गई। मामला खुलने के बाद एलयू अधिकारी इसे गलती बता रहे हैं तो कर्मचारी संघ इसके लिए अधिकारियों की मंशा पर सवाल उठा रहा है।
शासन ने एलयू के संविदा, दैनिक वेतन और वर्कचार्ज पर काम कर रहे कर्मचारियों को नियमित करने का आदेश दिया लेकिन एलयू अधिकारियों ने इस आदेश को ढ़ाल बनाते हुए जिसे चाहा उसे नियमित कर दिया। एनबीटी ने इस गड़बड़ी को प्रमुखता से प्रकाशित किया, इसके बाद इस पूरे मामले की जांच के आदेश हो गए। इस बीच पड़ताल के दौरान नियुक्ति में हुए फर्जीवाड़े का नया खुलासा हुआ। कर्मचारी महासंघ के मुताबिक एलयू अधिकारियों ने संविदा कर्मचारियों के लिए जारी हुए शासनादेश के बहाने ऐसे कई कर्मचारियों को भी नियमित कर दिया, जो एलयू छोड़ चुके थे। महासंघ के महामंत्री रिंकू राय का आरोप है कि इसके पीछे बड़े पैमाने पर 'डील' हुई है, जिसकी जांच होनी चाहिए।

कुलसचिव कार्यालय की भूमिका पर सवाल :
कुलसचिव कार्यालय ने पिछले साल 26 जून को एलयू में संविदा, दैनिक वेतन और वर्कचार्ज पर काम कर रहे कर्मचारियों की जो सूची शासन को भेजी, उसमें 64वें नंबर पर अंगद कुमार का नाम दर्ज है। इसे कुलसचिव कार्यालय में तैनात दिखाया गया है। ऐसे में साफ है कि सूची तैयार करने से पहले इस बात की पड़ताल तक नहीं की गई कि कर्मचारी तैनात भी है या नहीं। कर्मचारी महासंघ के मुताबिक कुलसचिव कार्यालय ने सूची तैयार करने से पहले दूसरे विभागों से भी कोई ब्योरा नहीं मांगा और बंद कमरे में बैठकर 128 कर्मचारियों की सूची फाइनल कर दी गई।

परीक्षा सेल में था अंगद, गायब हो गया :
एलयू दस्तावेजों के मुताबिक अंगद कुमार पांच साल पहले परीक्षा विभाग के एक सेल में दैनिक वेतन पर काम करता था। पांच साल से उसका कोई पता नहीं है। सेल में उसकी उपस्थिति या मौजूदगी का कोई दस्तावेज नहीं है। इसके बावजूद एलयू अधिकारियों ने उसे नियमित करने की सिफारिश भेज दी है।

एलयू से भेजी गई सूची में 31 आपत्तियां हैं। हमने हर आपत्ति के सुबूत एलयू और शासन के अधिकारियों को सौंप दिए हैं। इस मामले में अगर निष्पक्ष जांच हुई तो कई अधिकारियों को जेल भी जाना पड़ सकता है।
रिंकू राय, महामंत्री
उप्र राज्य विवि कर्मचारी महासंघ

एलयू में मनमानी नियुक्तियों की जांच के आदेश, रजिस्ट्रार तलब

(रणविजय सिंह, चार मई 2017, पार्ट टू)

एलयू में संविदा कर्मचारियों के बहाने मनमाने तरीके से की गई नियुक्तियों की जांच के आदेश हो गए हैं। यही नहीं इस मामले में मनमानी नियुक्ति के दायरे में आ रहे कर्मचारियों के मूल दस्तावेजों के साथ एलयू के रजिस्ट्रार को 12 मई को तलब कर लिया गया है। उच्च शिक्षा विभाग के अनु सचिव अतुल कुमार मिश्र ने एलयू की कार्यशैली पर कड़ी नाराजगी जताते हुए इसके जिम्मेदार कर्मचारियों और अधिकारियों के खिलाफ दंडात्मक कार्यवाही करने को कहा है।
शासन ने एलयू में 31 दिसंबर 2001 से पहले तैनात संविदा, वर्कचार्ज और दैनिक वेतन पर काम कर रहे कर्मचारियों को नियमित करने का आदेश हुआ था। इस आदेश के बहाने एलयू अधिकारियों ने 128 ऐसे कर्मचारियों को नियमित कर दिया, जो प्रमोट होकर इस दायरे से ऊपर उठ चुके थे। एनबीटी ने इस गड़बड़ी का खुलासा करते हुए प्रमुखता से खबर प्रकाशित की। उप्र राज्य विवि कर्मचारी महासंघ ने एनबीटी की खबर को आधार बनाते हुए शासन में इसकी शिकायत दर्ज करा दी। मामले की जानकारी होते ही अनु सचिव अतुल कुमार मिश्र ने इस मामले में जांच के आदेश दिए।

हर कदम गड़बड़ियों के आरोप :
उप्र राज्य विवि कर्मचारी महासंघ के महामंत्री रिंकू राय के मुताबिक नियुक्ति में हर कदम पर गड़बड़ी की गई। उनके मुताबिक जूलॉजी विभाग में तैनात नत्थू लाल को 1995 में नियुक्ति दिखाते हुए नियमित किया जा रहा है जबकि उन्हें 2004 में पहली तैनाती मिली थी। यही नहीं नियमित किए गए कर्मचारियों की एलयू की सूची में सुरेंद्र गुप्ता का नाम 30वें नंबर पर है, लेकिन शासन को भेजी गइ सूची में उनका नाम ही नहीं है। शिवेंद्र तिवारी ने एलयू में 1996 में ज्वाइन किया था। उनका नाम शासन को भेजी गई सूची में तो है लेकिन एलयू ने जिन कर्मचारियों को नियमित किया है, उस सूची से नाम गायब है।

अभी हमें शासन की तरफ से ऐसा कोई पत्र नहीं मिला है। नियुक्ति में गड़बड़ियों के आरोप बेबुनियाद हैं। पत्र मिलने के बाद आगे की कार्यवाही की जाएगी।
डॉ़ एसपी सिंह, कुलपति
एलयू 

संविदा कर्मचारियों के बहाने एलयू ने जिसे चाहा उसे नियमित कर दिया

(रणविजय सिंह, तीन मई 2017, पार्ट वन)

शासन ने एलयू के संविदा, दैनिक वेतन और वर्कचार्ज पर काम कर रहे कर्मचारियों को नियमित करने का आदेश दिया लेकिन एलयू अधिकारियों ने इस आदेश को ढ़ाल बनाते हुए जिसे चाहा उसे नियमित कर दिया। दस्तावेजों के मुताबिक पिछले हफ्ते शासन के आदेश पर जिन 128 कर्मचारियों को नियमित किया गया है, उनमें से ज्यादातर काफी पहले ही प्रमोट होकर संविदा, दैनिक वेतनमान और वर्कचार्ज के दायरे से ऊपर उठ चुके थे। मनमानी का आलम यह है कि कई कर्मचारियों का नाम शासन को भेजी गई लिस्ट में तो है लेकिन एलयू की लिस्ट में नहीं। वहीं कुछ का नाम एलयू की लिस्ट में होने के बावजूद शासन की सूची से गायब है।
एलयू में 31 दिसंबर वर्ष 2001 से पहले संविदा, दैनिक वेतन और वर्कचार्ज पर तैनात कर्मचारियों को नियमित करने का आदेश पिछले साल 21 जून को जारी हुआ था। इस आदेश का हवाला देते हुए एलयू प्रशासन ने 198 पद खाली होने की रिपोर्ट शासन को भेज दी। शासनादेश के मुताबिक एलयू में खाली इन पदों पर यहां 2001 से पहले से संविदा, दैनिक वेतन और वर्कचार्ज पर काम कर रहे कर्मचारियों को नियमित किया जाना था। उप्र राज्य विवि कर्मचारी महासंघ ने आरोप लगाया है कि इन पदों पर कर्मचारियों को नियमित करने के बहाने एलयू अधिकारियों ने जमकर मनमानी की। इस संबंध में सुबूतों के साथ महासंघ ने उच्च शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव, शिक्षमंत्री और मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर जांच कराए जाने की मांग की है।

यह हैं गड़बड़ियां :
_ शासन को भेजी गई सूची में क्रम संख्या 87 पर रईसा बानो का नाम है, जिन्हें ओबीसी दिखाया गया है। एलयू के दस्तावेजों में वह सामान्य कैटेगरी की हैं।
_ जूलॉजी विभाग में तैनात नत्थू लाल को 1995 में नियुक्ति दिखाते हुए नियमित किया जा रहा है जबकि उन्हें 2004 में पहली तैनाती मिली थी।
_ नियमित किए गए कर्मचारियों की एलयू की सूची में सुरेंद्र गुप्ता का नाम 30वें नंबर पर है, लेकिन शासन को भेजी गइ सूची में उनका नाम ही नहीं है।
_ शिवेंद्र तिवारी ने एलयू में 1996 में ज्वाइन किया था। उनका नाम शासन को भेजी गई सूची में तो है लेकिन एलयू ने जिन कर्मचारियों को नियमित किया है, उस सूची से नाम गायब है।
_ टैगोर पुस्तकालय में तीन वरिष्ठ कर्मचारियों को दरकिनार करते हुए जूनियर कर्मचारियों को नियमित कर दिया गया।
_ एलयू ने जिन कर्मचारियों को निमयित किया है, उनमें कई ऐसे हैं जिनके खिलाफ सतर्कता विभाग की जांच होने के बाद दोषी पाया जा चुका है।


शासन ने संविदा, वर्कचार्ज और दैनिक वेतन पर 31 दिसंबर 2001 से पहले से काम कर रहे कर्मचारियों को नियमित करने का आदेश दिया था। इस तीनों कैटेगरी में आने वाला कोई कर्मचारी ही एलयू में नहीं है। इसके बावजूद एलयू अधिकारियों ने इस आदेश के बहाने जमकर मनमानी की है। हमने निष्पक्ष जांच की मांग की है। हमारे पास सारे दस्तावेज हैं, जिनके मुताबिक अधिकारियों की मिलीभगत साबित हो जाएगी। इस मामले में कई लोग जेल भी जा सकते हैं।
रिंकू राय, महामंत्री
उप्र राज्य विवि कर्मचारी महासंघ

कर्मचारी नेता कई जगह शिकायत दर्ज करा रहे हैं। इसमें कुछ कमी हो सकती है लिहाजा हमने आपत्तियां मांगी थीं। लिस्ट बनाने से पहले काफी जांच पड़ताल और दस्तावेजों का सत्यापन कराया गया था। आपत्तियां मिलने के बाद जो गलत नाम जुड़ गए हैं, उन्हें हटाया जा सकता है। कर्मचारी संघ ने शासन स्तर पर शिकायत दर्ज करायी है लेकिन हमें अभी तक कोई आपत्ति नहीं मिली है।
राजकुमार सिंह, कुलसचिव
एलयू 

जमानत फीस के लाखों रुपयों का हिसाब नहीं, बिजली के बिल पर सवाल

(रणविजय सिंह, 6 मई 2017, बायोटेक पार्ट फोर )

बायोटेक पार्क में निजी कंपनियों ने जमानत फीस के तौर पर जितनी रकम जमा की, उतनी संस्थान के बैंक अकाउंट में नहीं है। यही नहीं निजी कंपनियों ने जितनी बिजली खर्च की, उसके बिल का ज्यादातर हिस्सा बायोटेक पार्क ने अपने पास से लेसा को भुगतान किया। यही नहीं पिछले 10 वर्ष के दौरान यहां आयीं 32 कंपनियों से कब, किस दर से और कितना किराया तय किया गया? और कितना जमा कराया गया? इसके दस्तावेज भी संदिग्ध है।
शासन के आदेश पर बायोटेक पार्क की स्पेशल ऑडिट में ऐसी तमाम खामियां सामने आयी हैं। इसकी रिपोर्ट शासन को भेजते हुए कार्रवाई की सिफारिश हुई है, जिसके बाद गुडंबा थाने में मामला दर्ज करते हुए जांच शुरू कर दी गई है। शासन के निर्देश पर हुई स्पेशल ऑडिट में यहां लम्बे समय से वित्तीय अनियमितताओं के सुबूत मिलने का दावा किया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक साल दर साल निजी कंपनियों द्वारा खर्च की जा रही बिजली का बिल भी पहले बायोटेक पार्क अपने पास से जमा करता था और बाद में इस बिल का केवल 50 से 60 फीसदी हिस्सा ही निजी कंपनियों से वसूला जाता था। जांच रिपोर्ट के मुताबिक बायोटेक पार्क में निजी कंपनियों के साथ पीपीपी मॉडल पर चल रहे ज्यादातर प्रॉजेक्ट घाटे में चल रहे हैं। आशंका है कि निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए कागजों पर घाटा दिखाया जाता रहा।

कहां गई जमानत फीस की रकम :
स्पेशल ऑडिट में निजी कंपनियों की जमानत फीस की रकम पर भी सवाल उठा है। रिपोर्ट के मुताबिक पिछले वित्तीय वर्ष में कंपनियों और ठेकेदारों ने 62 लाख 65 हजार नौ सौ 48 रुपये जमानत फीस के तौर पर जमा किए। यह रकम बायोटेक पार्क के बैंक खाते में रहनी चाहिए, क्योंकि इसे खर्च नहीं किया जा सकता। इसके उलट जांच के दौरान पार्क के बैंक खाते में केवल 22 लाख 52 हजार आठ सौ 24 रुपये ही मिले। इसके अलावा बायोटेक पार्क के अधिकारियों ने 19 लाख 33 हजार की एफडी दिखायी। बैंक खाते और एफडी की रकम मिला लें तो भी जमानत फीस के तौर पर जमा हुई रकम से 20 लाख 79 हजार तीन सौ 16 रुपये कम है। यह रकम कहां गई? इस सवाल का जवाब ऑडिट टीम को नहीं मिल सका।

32 कंपनियों का किराया :
ऑडिट टीम की जांच में पता चला कि पिछले 10 वर्ष के दौरान यहां बिजनेस करने आयीं 32 कंपनियों से रखरखाव और किराए के तौर पर तीन करोड़ 83 लाख 27 हजार चार सौ दो रुपये जमा कराए जाने चाहिए थे। यह रकम जमा हुई या नहीं, इससे जुड़े दस्तावेजों में कई कमियां पायी गईं। जांच के दौरान यह साफ नहीं हो सका कि यह रकम कभी जमा भी हुई थी या नहीं।

सब ठीक है :
बायोटेक पार्क में किसी भी तरह की वित्तीय अनियमितता नहीं हुई है। ऑडिट टीम को सभी आपत्तियों का जवाब भेज दिया गया था। बिजली के बिल से जुड़ी जो भी आपत्ति थी, उसके जवाब में हर महीने का बिल दिखा दिया गया है। जांच टीम काफी जल्दबाजी में थी, इसके चलते कई दस्तावेज हड़बड़ी के चलते नहीं दिखाए जा सके थे। ऐसे सभी कागज बाद में दिखा दिए गए। इसके बावजूद आपत्तियों में उन्हें दर्ज कर लिया गया। जो आपत्तियां हैं, उनका जवाब हमारे पास है। शासन जरूरी समझेगा तो हम उन्हें उपलब्ध करा देंगे।
प्रमोद टंडन, सीईओ
बायोटेक पार्क

बायोटेक पार्क के पूर्व CEO पर FIR, करोड़ों के खर्च का हिसाब नहीं

(रणविजय सिंह, 6 मई, बायोटेक पार्ट थ्री)

बायोटेक पार्क की जमीन का बड़ा हिस्सा निजी कंपनियों को बिजनेस करने के लिए दिए जाने और बड़े पैमाने पर वित्तीय अनियमितता के आरोप में यहां के पूर्व सीईओ के खिलाफ पुलिस ने मामला दर्ज कर जांच शुरू कर दी है। गड़बड़ियों की शिकायत पर शासन स्तर से करायी गई जांच में यहां करोड़ों रुपये के खर्च का हिसाब ही नहीं मिला था। एनबीटी ने इसे प्रमुखता से प्रकाशित किया, जिसके बाद यह बड़ी कार्रवाई हुई है। जांच रिपोर्ट के मुताबिक बायोटेक पार्क से जुड़े कैश बुक, लेजर और किराए से जुड़े दस्तावेज संदिग्ध हैं। इनपर कार्यालय टिप्पणी और नोट्स तक नहीं हैं।
बायोटेक पार्क में गड़बड़ियों की शिकायत पर विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी विभाग के प्रमुख सचिव हिमांशू कुमार ने जांच के आदेश दिए थे। इसकी रिपोर्ट के मुताबिक एलडीए से रिमोट सेंसिंग सेंटर को मिली 36 एकड़ जमीन में से वर्ष 2003 में बायोटेक पार्क बनाने के लिए आठ एकड़ जमीन दी गई थी। बायोटेक पार्क के अधिकारियों ने इस आठ एकड़ जमीन में से करीब 80 हजार वर्ग फीट क्षेत्र तीन निजी कंपनियों को मामूली दर पर किराए पर दे दी। इसके बाद यहां इन कंपनियों ने अपनी फैक्ट्री, स्टोर और कार्यालय के लिए पक्का निर्माण करा लिया। एनबीटी ने इस गड़बड़ी का खुलासा किया, इसके बाद बायोटेक पार्क और मामूली दरों पर जमीन लेने वाली कंपनियों को जवाब नहीं सूझ रहा है।

प्रमुख सचिव के आदेश पर भी नहीं दर्ज हो रही थी एफआईआर :
विज्ञान एवं प्रद्योगिकी के प्रमुख सचिव हिमांशू कुमार ने बायोटेक पार्क में लम्बे समय से चल रही गड़बड़ियों की जांच करायी, जिसमें चौंकाने वाली गड़बड़ियां सामने आयीं। इसके मुताबिक उन्होंने एफआईआर के आदेश दिए। प्रमुख सचिव के निर्देश पर भी गुडंबा थाने की पुलिस एफआईआर नहीं दर्ज कर रही थी। कई बार रिमाइंडर के बाद भी एफआईआर नहीं हुई तो उन्होंने इस मामले की रिपोर्ट गृह विभाग को भेज दी। इसके बाद गुरुवार को कार्रवाई के लिए फाइल मुख्य सचिव को भेजे जाने की तैयारी थी लेकिन इस बीच एनबीटी में खबर प्रकाशित होने के बाद पुलिस ने मामला दर्ज कर लिया।

पहले तहरीर दी गई थी, उसमें केवल कंपनियों को नामजद किया गया था। हमने सही तहरीर देने के लिए कहा था, इसके चलते देर हो रही थी। अब सही तरीके से तहरीर देकर बायोटेक पार्क के अधिकारियों को भी आरोपी बनाया गया है। इसके बाद हमने एफआईआर दर्ज करके जांच शुरू कर दी है।
राजकुमार सिंह, इंस्पेक्टर
गुडंबा

आमदनी अठन्नी, खर्च रुपईया

(रणविजय सिंह, 5 मई 2017, बायोटेक पार्क पार्ट टू)

बायोटेक पार्क में खर्च के तौर तरीकों पर 'आमदीन अठन्नी खर्चा रुपईया' वाली कहावत सटीक बैठती है। यहां वित्तीय अनियमितताओं की जांच रिपोर्ट के मुताबिक वित्तीय वर्ष 2015-16 में यहां करीब दो करोड़ 93 लाख रुपये की आय हुई, जबकि अधिकारियों ने तीन करोड़ 96 लाख रुपये खर्च कर दिए। जांच रिपोर्ट के मुताबिक अधिकारियों ने करीब एक करोड़ रुपये ज्यादा खर्च किया। यह रकम कहां से आयी और क्यों खर्च की गई? जांच शुरू होने के बाद इस सवाल का जवाब अधिकारियों को नहीं सूझ रहा है। यही नहीं जिन तीन कंपनियों को यहां जमीन दी गई है, उनके चयन के तौर तरीकों पर भी सवाल उठ रहे हैं।

नहीं बता रहे तीन कंपनियों के चयन का आधार :
जांच रिपोर्ट के मुताबिक लाइफ केयर इनोवेशन, चंदन हेल्थ केयर और अमोर हर्बल प्रालि को करीब 80 हजार वर्गफीट जमीन दे दी गई। जांच के दौरान बायोटेक पार्क के अधिकारी यह नहीं बता सके कि इन कंपनियों को जमीन देने से पहले कब और किस अखबार में इसके लिए विज्ञापन किया गया था? इस विज्ञापन के आधार पर कितनी कंपनियों ने आवेदन किया और उसमें से इन तीनों को किस आधार पर चुना गया? आरोप लग रहे हैं कि इन तीनों को सीधे जमीन दे दी गई, जिसपर इन्होंने पक्का निर्माण करा लिया।

शब्द बदलकर निकाला जमीन देने का रास्ता :
बायोटेक पार्क अपनी जमीन किसी को किराए पर या सबलेट के जरिए नहीं दे सकता था। जांच रिपोर्ट के मुताबिक अधिकारियों ने अपनी चहेती कंपनियों को जमीन देने के लिए एक नया शब्द तैयार किया 'लाइसेंस'। अधिकारियों ने जो दस्तावेज तैयार किए, उसके मुताबिक इन तीनों कंपनियों को यहां काम करने का लाइसेंस दिया गया और इसके एवज में कंपनियां लाइसेंस फीस जमा करती हैं। शासन स्तर से करायी गई जांच में इसे गलत पाया गया। यही नहीं बायोटेक पार्क के अधिकारी जमीन किराए पर दिए जाने की बात कह रहे हैं जबकि कंपनियां मेनटेनेंस फीस पर काम करने का दावा कर रही हैं।

अधिकारी बोलने को तैयार नहीं :
मामला खुलने के बाद बायोटेक पार्क के आला अधिकारी कुछ भी बोलने को तैयार नहीं हैं। हालांकि उनका दावा है कि जो भी फैसला हुआ है, वह पूरी तरह से मानकों का पालन करते हुए किया गया है। अधिकारियों का  दावा है कि जमीन देने का फैसला गवर्निंग बॉडी और एडवाइजरी कमिटी की मौजूदगी में हुआ था। इसमें शासन के अधिकारी भी मौजूद थे।

बायोटेक पार्क के लिए जमीन मिली, चहेती कंपनियों को बांट दी


(रणविजय सिंह, 4 मई 2017, बायोटेक पार्ट वन)

जो जमीन एलडीए से बायोटेक पार्क के लिए मिली थी, उसे यहां के अधिकारियों ने मिलीभगत कर निजी कंपनियों को बांट दी। करोड़ों रुपये की जमीन महज 1.90 रुपये और 2.50 रुपये की दर से किराए पर दे दी गई। इसके बाद यहां इन कंपनियों ने अपनी फैक्ट्री, स्टोर और कार्यालय के लिए पक्का निर्माण करा लिया। निजी कंपनियों पर बायोटेक पार्क के अधिकारियों की मेहरबानी यहीं नहीं थमी। अपने उत्पाद के लिए यह कंपनियां जितनी बिजली खर्च कर रही थीं, उसका बिल भी बायोटेक पार्क के खजाने से किया जाता रहा। यहां काम करने वाले कुछ कर्मचारियों की शिकायत पर शासन ने जांच करायी तो बड़े पैमाने पर गड़बड़ियों का खुलासा हुआ। इसके बाद प्रमुख सचिव ने एफआईआर के आदेश दे दिए और कार्रवाई के लिए जांच रिपोर्ट गृह विभाग भेज दी गई।

सबलेट पर पाबंदी के बावजूद दे दी जमीन :
जांच रिपोर्ट के मुताबिक एलडीए ने 12 सितंबर 1989 को सीतापुर रोड़ के पास 36 एकड़ जमीन रिमोट सेंसिंग विभाग को दी। इसके बाद 5 सितंबर 2003 को रिमोट सेंसिंग विभाग ने इसमें से आठ एकड़ जमीन बायोटेक पार्क बनाने के लिए 30 साल के लिए लीज रेंट पर दे दिया। रिमोट सेंसिंग और बायोटेक पार्क के बीच हुए लीज रेंट एग्रीमेंट के तहत बायोटेक पार्क यह जमीन किसी को लीज रेंट पर नहीं दे सकता और ना ही सबलेट कर सकता है। इस एग्रीमेंट की शर्तों का उल्लंघन करते हुए बायोटेक पार्क के अधिकारियों ने तीन कंपनियों लाइफ केयर इनोवेशन प्रालि, चंदन हेल्थ केयर और अमोर हर्बल प्रालि को करीब 8000 वर्गफीट जमीन सबलेट कर दी।

3000 रुपये का भाव, 1.90 रुपये तय कर दिया :
जांच रिपोर्ट के मुताबिक इस जमीन की कीमत 3000 रुपये प्रति वर्गफीट है लेकिन बायोटेक पार्क के अधिकारियों ने इसे महज 1.90 रुपये प्रति वर्गफीट की दर से किराए पर उठा दिया। तीनों कंपनियों को दी गई जमीन की कीमत 3000 रुपये प्रति वर्गफीट के मुताबिक तय करें तो करीब 23 करोड़ रुपये होती है। इसपर 10 फीसदी ब्याज लगाया जाए तो करीब दो करोड़ रुपये हुए। इसके उलट इन कंपनियों से इस जमीन के एवज में केवल एक करोड़ 88 लाख रुपये ही जमा करने को कहा गया। यह रकम भी कंपनियों ने जमा की या नहीं, इसका ब्योरा नहीं है। आशंका जतायी गई है कि यह मामूली रकम भी जमा किए बिना ही निर्माण करा लिया गया।


बायोटेक पार्क की जमीन देने का फैसला मेरा नहीं है। मैने डेढ़ साल पहले ही ज्वाइन किया है। हालांकि मेरी जानकारी के मुताबिक जमीन देने का फैसला अकेले बायोटेक पार्क के अधिकारियों का नहीं है। बायोटेक पार्क की गवर्निंग बॉडी, एडवाइजरी काउंसिल, प्रमुख सचिव और भारत सरकार के बायोटेक्नोलॉजी विभाग के सचिव की मंजूरी भी ली गई थी।
प्रमोद टंडन, सीईओ
बायोटेक पार्क

गड़बड़ियों की शिकायत के बाद जांच करायी गई है। रिपोर्ट मेरे मुझे मिल गई है। इसमें बड़े पैमाने पर गड़बड़ियों के संकेत मिले हैं। इसके बाद मैने एफआईआर के लिए आदेश दिया था लेकिन तकनीकी कारणों से एफआईआर नहीं हो सकी। लिहाजा कार्रवाई के लिए रिपोर्ट शासन और गृह विभाग को भेज दी गई है।
हिमांशू कुमार, प्रमुख सचिव
विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी

Tuesday, 23 May 2017

नए मेडिकल कॉलेज खोल दिए लेकिन पढ़ाएगा कौन? पता नहीं


 (रणविजय सिंह, 22 मई 2017, लोहिया इंस्टिट्यूट पार्ट सात)

लोहिया इंस्टीट्यूट समेत कई नए मेडिकल कॉलेज खोलने का दावा करते हुए चिकित्सा शिक्षा विभाग के अधिकारी अपनी पीठ थपथपाने में लगे हैं लेकिन इन कॉलेजों में दाखिला लेने वाले स्टूडेंट्स को पढ़ाएगा कौन? इस सवाल का जवाब आला अधिकारियों के पास नहीं है। हालात इस कदर बदतर हैं कि कई मेडिकल कॉलेजों में प्रोफेसरों के 20 से 24 नियमित पदों पर केवल एक या दो प्रोफेसरों की ही नियुक्ति हो सकी है। कुछ जगहों पर तो एक भी असिस्टेंट प्रोफेसर है ही नहीं। ज्यादातर कॉलेजों में शिक्षकों के 50% से 70% तक नियमित पद खाली पड़े हैं। इस बीच इस साल जनवरी से अब तक करीब 25 से 30 प्रोफेसरों के इस्तीफे ने नया संकट खड़ा कर दिया है। इस्तीफा देने वालों में झांसी और आगरा मेडिकल कॉलेज के कार्यवाहक प्रिंसिपल के नाम भी हैं।

जून में होने हैं दाखिले, जुलाई से कक्षाएं :
लखनऊ समेत प्रदेश भर के मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस दाखिले के लिए जून में काउंसलिंग होनी है। इसके बाद जुलाई से कक्षाएं शुरू होंगी। इस बीच सरकारी मेडिकल कॉलेजों में शिक्षकों की कमी ने नया संकट खड़ा कर दिया है। चिकित्सा शिक्षा विभाग ने जिस तेजी से नए मेडिकल कॉलेज खोलने में दिलचस्पी दिखायी, उतनी तेजी यहां कक्षाएं चलाने लायक शिक्षकों की भर्ती को लेकर नहीं दिखायी गई। नतीजा हुआ कि शासन को हाल ही में भेजी गई रिपोर्ट के मुताबिक इन कॉलेजों में प्रोफेसर, असिस्टेंट प्रोफेसर और लेक्चरर के ज्यादातर पद खाली हैं। पिछले साल तक संविदा के भरोसे किसी तरह कक्षाएं चलायी गईं लेकिन इसके बावजूद 30 फीसदी तक शिक्षकों की कमी बनी रही। बदहाली की यह तस्वीर इस साल ज्यादा बुरी होने की आशंका है।

इस्तीफे ने बढ़ायी चिंता :
शिक्षकों के भारी संकट से जूझ रहे झांसी, आगरा, इलाहाबाद, कन्नौज, गोरखपुर और मेरठ मेडिकल कॉलेजों के करीब 25 से 30 शिक्षकों ने अचानक अपना इस्तीफा शासन को भेज दिया। इनमें से ज्यादातर प्रोफेसर हैं। झांसी और आगरा में तो कार्यवाहक प्रिंसिपलों तक ने अपना इस्तीफा भेज दिया है।

कहीं 1 तो कहीं 2 प्रोफेसरों के भरोसे पढ़ायी :
नए मेडिकल खोलने को अपनी उपलब्धि बता रहे चिकित्सा शिक्षा विभाग के अधिकारियों ने यहां कक्षाएं चलाए जाने और गुणवत्ता परक शिक्षा की कोई परवाह नहीं की। यही वजह है कि कई मेडिकल कॉलेज ऐसे हैं जो महज एक या दो प्रोफेसरों के भरोसे चल रहे हैं। अम्बेडकर नगर, जालौन, आजमगढ़, बांदा और बदायूं मेडिकल कॉलेजों में प्र्रोफेसर के 20 से 24 पद हैं लेकिन कहीं भी दो से ज्यादा प्रोफेसरों के पद नहीं भरे जा सके हैं। सहारनपुर मेडिकल कॉलेज में तो केवल एक प्रोफेसर हैं और यहां असिस्टेंट प्रोफेसर की एक भी भर्ती नहीं हो सकी है जबकि इसके 27 पद हैं। कन्नौज मेडिकल कॉलेज को लेकर पिछली सरकार काफी गंभीर थी, इसके बावजूद यहां प्रोफेसर के 24 पदों में से केवल चार पर नियमित भर्ती हो सकी।

कहां कितना संकट :
कानपुर मेडिकल कॉलेज :
पद पदों की संख्या नियमित खाली
प्रोफेसर 50 19 31
असिस्टेंट प्रोफेसर       54 12 42

इलाहाबाद मेडिकल कॉलेज :
पद पदों की संख्या नियमित खाली
प्रोफेसर 37 15 22
असिस्टेंट प्रोफेसर      51 22 29

आगरा मेडिकल कॉलेज:
पद पदों की संख्या नियमित खाली
प्रोफेसर 44 18 26
असिस्टेंट प्रोफेसर       71 19 53

झांसी मेडिकल कॉलेज :
पद पदों की संख्या नियमित खाली
प्रोफेसर 22 7 15
असिस्टेंट प्रोफेसर      42 12 30

मेरठ मेडिकल कॉलेज :
पद पदों की संख्या नियमित खाली
प्रोफेसर 33 20 13
असिस्टेंट प्रोफेसर       54 16 38

कानपुर मेडिकल कॉलेज :
पद पदों की संख्या     नियमित खाली
प्रोफेसर 50 19 31
असिस्टेंट प्रोफेसर     54 12 42

गोरखपुर मेडिकल कॉलेज :
पद पदों की संख्या      भरे       खाली
प्रोफेसर 19 12 5
असिस्टेंट प्रोफेसर       37 23         15

अम्बेडकर नगर मेडिकल कॉलेज :
पद पदों की संख्या भरे खाली
प्रोफेसर 24 3     21
असिस्टेंट प्रोफेसर        29 2 27

कन्नौज मेडिकल कॉलेज :
पद पदों की संख्या भरे    खाली
प्रोफेसर 24 4 20
असिस्टेंट प्रोफेसर          28 13 15

जालौन मेडिकल कॉलेज :
पद पदों की संख्या भरे   खाली
प्रोफेसर 23 1 22
असिस्टेंट प्रोफेसर          25              4 21

आजमगढ़ मेडिकल कॉलेज :
पद पदों की संख्या भरे खाली
प्रोफेसर 24 2 22
असिस्टेंट प्रोफेसर          26 6 20

सहारनपुर मेडिकल कॉलेज :
पद पदों की संख्या भरे खाली
प्रोफेसर 22 1 21
असिस्टेंट प्रोफेसर             27 0      27

बांदा मेडिकल कॉलेज :
पद पदों की संख्या      भरे खाली
प्रोफेसर 14 3       11
असिस्टेंट प्रोफेसर             19 3        16

बदायूं मेडिकल कॉलेज :
पद पदों की संख्या        भरे   खाली
प्रोफेसर 7 2        5
असिस्टेंट प्रोफेसर             17 1        16

सभी झूठ पकड़े गए तो मानी गलती, चहेतों की नियुक्ति का आदेश स्थगित

(रणविजय सिंह, 27 अप्रैल 2017, लोहिया इंस्टीट्यूट पार्ट छह)

लोहिया इंस्टीट्यूट में असिस्टेंट प्रोफेसरों के खाली पदों पर लोहिया अस्पताल के चहेते डॉक्टरों की नियुक्ति का आदेश स्थगित कर दिया गया है। एनबीटी की खबरों का संज्ञान लेते हुए चिकित्सा शिक्षा विभाग की प्रमुख सचिव अनीता भटनागर जैन ने नियुक्ति से जुड़ी रिपोर्ट तलब कर ली है। डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफेसर बनाए जाने के तौर तरीकों पर भी सवाल उठाते हुए उन्होंने लोहिया इंस्टीट्यूट में हर विभाग के मुताबिक शिक्षकों की कमी का ब्योरा तैयार करने को कहा है। इसके अलावा लोहिया अस्पताल से प्रतिनियुक्ति पर अगर किसी डॉक्टर को इन विभागों में असिस्टेंट प्रोफेसर के लिए लिए जाने की जरूरत है, तो इसके लिए लोहिया अस्पताल के विभागों में डॉक्टरों की वरिष्ठता सूची तैयार करायी जाए। इस सूची के मुताबिक ही जरूरत पड़ने पर चयन किया जा सकेगा।
लोहिया इंस्टीट्यूट के निदेशक प्रो़ दीपक मालवीय ने सात अप्रैल को लोहिया अस्पताल के 10 डॉक्टरों को इंस्टीट्यूट में असिस्टेंट प्रोफेसर के तौर पर नियुक्ति का आदेश जारी कर दिया था। एनबीटी की पड़ताल में सामने आया कि यह सभी डॉक्टर पिछली सरकार के कद्दावर नेता, मंत्री और सीएम कार्यालय में तैनात आईएस अधिकारियों के रिश्तेदार थे या फिर करीबी। इसका खुलासा होने के बाद इससे जुड़ी गड़बड़ियां परत दर परत खुलती गईं। पता चला कि इंस्टीट्यूट के अधिकारियों ने एमसीआई के औचक निरीक्षण का बहाना बनाकर अस्पताल के चहेते डॉक्टरों की नियुक्ति का आदेश जारी कर दिया था, ताकि बाद में इन्हें नियमित किया जा सके। यही नहीं असिस्टेंट प्रोफेसर के पद खाली रखने की नीयत से इन पदों के लिए हुए इंटरव्यू में कई आवेदकों को कॉल लेटर तक नहीं भेजा गया। एनबीटी ने इन तमाम पहलुओं को प्रमुखता से प्रकाशित किया था। इसपर प्रमुख सचिव ने लोहिया इंस्टीट्यूट से भर्ती प्रक्रिया इन गड़बड़ियों से जुड़ी पूरी रिपोर्ट तलब कर ली है। यही नहीं इंस्टीट्यूट में शिक्षकों के खाली पदों और लोहिया अस्पताल के डॉक्टरों का ब्योरा भी देने को कहा है।

रिश्तेदारों का जमावड़ा :
लोहिया अस्पताल के कई विभागों में 30 से 40 फीसदी पदों पर यहां तैनात डॉक्टर, एचओडी और अधिकारियों के रिश्तेदार जमे हुए हैं। विभागों में तैनात कइ डॉक्टर तो ऐसे हैं, जिनका चयन करने वाली चयन समिति तक में उनके रिश्तेदार शामिल थे। यही नहीं अस्पताल में संविदा पर हुई भर्तियों में भी जमकर भाई भतीजावाद किया गया है। भ्रष्टाचार मुक्त भारत के मोहम्म्द शारिक खान का आरोप है कि पिछली सरकार में लोहिया इंस्टीट्यूट को यहां के अधिकारियों ने  आईएएस अधिकारियों, नेता, मंत्रियों और अपने करीबियों का एंप्लायमेंट हाउस बना दिया गया था। शारिक खान ने लोहिया इंस्टीट्यूट में पिछले पांच वर्ष के दौरान हुई नियुक्तियों और मैन पावर एजेंसियों की जांच की मांग की है।

मैने लोहिया इंस्टीट्यूट के निदेशक के रिपोर्ट तलब कर ली है। जिन डॉक्टरों को उन्होंने नियुक्ति दिखायी है, उन्हें नियुक्ति नहीं दी जा सकती। लोहिया अस्पताल के वरिष्ठ डॉक्टरों की सूची तैयार करायी जा रही है। प्रतिनियुक्ति पर तैनाती की जरूरत महसूस हुई तो वरिष्ठता के मुताबिक ही चयन होगा।
अनीता भटनागर जैन, प्रमुख सचिव
चिकित्सा शिक्षा

चहेतों को नियुक्त करने के लिए बाकियों को कॉल लेटर ही नहीं भेजा



(रणविजय सिंह, 23 अप्रैल 2017, लोहिया इंस्टीट्यूट पार्ट फाइव)

चहेतों को असिस्टेंट प्रोफेसर बनाने के लिए लोहिया इंस्टीट्यूट के अधिकारियों ने हर वो दांव इस्तेमाल किया जो वो कर सकते थे। पिछली सरकार में इन पदों के लिए विज्ञापन करने से लेकर चुनाव के दौरान प्रतिनियुक्ति का प्रस्ताव, इंटरव्यू और बीजेपी सरकार में गुपचुप तैनाती को लेकर अब कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आ रहे हैं।
एनबीटी की पड़ताल में सामने आया कि विज्ञापन के बाद आवेदन करने वाले कई अभ्यर्थियों को इंटरव्यू के लिए बुलाया ही नहीं गया। जिन्हें बुलाया उन्हें भी महज दो दिन पहले कॉल लेटर भेजा, ताकि दूर दराज के अभ्यर्थी समय से आ ही ना सकें। इसके बावजूद जो इंटरव्यू के दिन पहुंच गए, उनके अनुभव प्रमाणपत्रों और एनओसी समेत दूसरे मानकों की बारीक पड़ताल हुई और मामूली कमियां बताकर उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। यह तमाम तौर तरीके इस्तेमाल करने के बाद भी जिन विभागों में अधिकारी अपने चहेतों की भर्ती करने में सफल होते नहीं दिख रहे थे, उन विभागों का इंटरव्यू ही स्थगित कर दिया। इन तौर तरीकों का इस्तेमाल करते हुए मानसिक रोग, स्किन और आई विभाग को छोड़कर इंटरव्यू के जरिए बाकी विभागों में केवल इतने पदों पर भर्ती की गई ताकि असिस्टेंट प्रोफेसर 10 पद खाली रह जाएं। इस तरह हर विभागों के लिए दर्जनों काबिल आवेदकों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया और सात अप्रैल को एमसीआई की टीम आयी तो आपात स्थिति का हवाला देते हुए इन पदों पर लोहिया अस्पताल के 10 डॉक्टरों को प्रतिनियुक्ति पर तैनाती दे दी।
_ स्वास्थ्य निदेशालय में अपर निदेशक (प्रशासन) रहे डॉ़ आरवी सिंह ने लोहिया इंस्टीट्यूट में असिस्टेंट प्रोफेसर और मेडिकल सुपरीटेंडेंट के लिए आवेदन किया था। उन्हें कॉल लेटर नहीं भेजा गया। बतौर डॉ़ आरवी सिंह आवेदन करने के बाद वे कई बार निदेशक प्रो़ दीपक मालवीय, प्रमुख सचिव चिकित्सा शिक्षा अनीता भटनागर जैन एवं महानिदेशक डॉ़ बीएन त्रिपाठी से भी मिले लेकिन उन्हें इंटरव्यू में शामिल करना तो दूर इसकी सूचना तक नहीं दी गई।
_ गोरखपुर मेडिकल कॉलेज के डॉ़ मनीष सिंह ने कम्युनिटी मेडिसिन विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर के लिए आवेदन किया था। इन्हें महज दो दिन पहले कॉल लेटर भेजा गया। सभी मानक पूरे करने के बावजूद चयन नहीं हुआ और आज तक लोहिया इंस्टीट्यूट ने कोई रिजल्ट वेबसाइट या दूसरे तरीकों से सार्वजनिक नहीं किया, जिसे देखकर डॉ़ मनीष को यह भी नहीं पता चला कि उनका चयन हुआ है या नहीं।
_ लखनऊ स्थित निजी मेडिकल कॉलेज के एक डॉक्टर ने आवेदन किया था लेकिन लोहिया इंस्टीट्यूट ने उन्हें कॉल लेटर नहीं भेजा। पूछने पर बताया गया कि उन्होंने जिस कॉलेज का टीचिंग एक्सपीरिएंस लगाया है, उसमें एक साल एमबीबीएस के दाखिले नहीं हुए थे। लिहाजा उनका तीन साल का टीचिंग एक्सपीरियंस नहीं माना जा सकता। इसके उलट इसी कॉलेज के एक अन्य आवेदक को कॉल लेटर भेज दिया गया। इस मनमानी पर पूछताछ हुई तो निदेशक प्रो़ दीपक मालवीय ने कोई सीधा जवाब नहीं दिया।
_ लोहिया इंस्टीट्यूट के लिए जारी विज्ञापन में पैथोलॉजी विभाग के लिए कोई विज्ञापन ही नहीं हुआ। इसके बावजूद एमसीआई के निरीक्षण में इस विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर की कमी दिखाते हुए लोहिया अस्पताल के डॉ़ संजय जायसवाल की नियुक्ति दिखा दी गई। यही नहीं साइकियाट्री, डरमैटोलॉजी एंड लेप्रोसी और ऑप्थेलमोलॉजी विभाग में कोई इंटरव्यू ही नहीं कराया गया और शिक्षकों की कमी दिखाते हुए अस्पातल से डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफसर बना दिया।

दीपक मालवीय से बातचीत :
सवाल : आवेदन करने वाले कई डॉक्टरों को कॉल लेटर नहीं भेजा गया।
जवाब : सभी आवेदनों पर विचार के लिए स्क्रीनिंग कमिटी बनी थी। इस कमिटी की सिफारिश पर ही कॉल लेटर भेजे गए। जिन्हें योग्य नहीं पाया गया, उन्हें नहीं भेजा गया।
सवाल : कई विभागों में इंटरव्यू नहीं कराए गए?
जवाब : हां, शेड्यूल नहीं होने के कारण तीन विभागों में इंटरव्यू नहीं हो सके थे। जल्द ही इन विभागों के इंटरव्यू कराने की तैयारी है।
सवाल : लखनऊ स्थित एक निजी मेडिकल कॉलेज के एक डॉक्टर को कॉल लेटर भेजा गया और दूसरे को नहीं भेजा गया। ऐसा क्यों?
जवाब : यह जवाब तो स्क्रीनिंग कमिटी ही दे सकती है कि ऐसा क्यों हुआ। कई बार गलती से भी हो जाता है लेकिन जहां तक मेरी जानकारी है, इस कॉलेज के जिस अभ्यर्थी को कॉल लेटर गया था, उसे सिलेक्ट नहीं किया गया।
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मैने लोहिया इंस्टीट्यूट में मेडिकल सुपरीटेंडेंट और असिस्टेंट प्रोफेसर के लिए सभी मानक पूरे करते हुए आवेदन किया था। मुझे कॉल लेटर तक नहीं भेजा गया। अब पता चला रहा है कि भर्तियां हो चुकी हैं।
डॉ़ आरवी सिंह, पूर्व अपर निदेशक

चहेतों को नियुक्त करने के लिए जो नियम नहीं थे, उन्हें मान लिया



(रणविजय सिंह, 22 अप्रैल 2017, लोहिया इंस्टीट्यूट पार्ट फोर)

लोहिया इंस्टीट्यूट में अधिकारियों ने अपने चहेतों को असिस्टेंट प्रोफेसर बनाने के लिए विज्ञापन की शर्तों से इतर उन्हें योग्य साबित करने के लिए जो नियम जहां से मिला, उसे मान लिया। अस्पताल का लोहिया इंस्टीट्यूट में विलय नहीं हुआ था लेकिन अधिकारियों ने विलय मानते हुए उन्हें प्रतिनियुक्ति पर तैनात करने का तर्क दिया। लोहिया के 10 डॉक्टरों के पास असिस्टेंट प्रोफेसर पद पर आवेदन के लिए तीन साल का टीचिंग एक्सपीरिएंस नहीं था तो अधिकारियों ने इन डॉक्टरों के लिए विज्ञापन से इतर दिल्ली के ईएसआई अस्पतालों के नियम लगा दिए। यही नहीं अस्पताल के वरिष्ठ डॉक्टरों के रहते जूनियर को मौका देने के लिए बहना बना दिया कि सीनियर तो जल्द ही रिटायर होने वाले हैं, लिहाजा उन्हें नहीं लिया जा सकता।
लोहिया इंस्टीट्यूट में असिस्टेंट प्रोफेसरों की नियुक्ति में बड़े पैमाने पर गड़बड़ियां हुई हैं। कैबिनेट मंत्री, आईएएस और इंस्टीट्यूट के आला अधिकारियों ने अपने चहेते डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफेसर बनाने के लिए विज्ञापन के नियमों में जमकर मनमानी की। नियमों को न सिर्फ तोड़ा गया, बल्कि मनमानी को सही साबित करने के लिए इधर उधर के नियम लगा दिए गए। लोहिया इंस्टीट्यूट के निदेशक प्रो़ दीपक मालवीय का तर्क है दिल्ली के ईएसआई अस्पतालों में डॉक्टरों के अनुभव  को टीचिंग के लायक माना जाता है। हालांकि उनके पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि जो नीति यूपी में लागू नहीं है, उसे केवल एक संस्थान में कैसे लागू किया जा सकता है। वहीं लोहिया अस्पातल का विलय न होने की स्थिति में भी केवल वहीं के चुनिंदा 10 डॉक्टरों के चयन पर अधिकारियों के पास जवाब नहीं है।

सीएम से मिलकर नीति बनाने की मांग :
प्रांतीय चिकित्सा सेवा संघ ने मुख्यमंत्री से मिलकर सरकारी अस्पताल के डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफेसर बनाए जाने की नीति बनाए जाने की मांग की है। अध्यक्ष डॉ़ अशोक यादव ने लोहिया अस्पताल के चुनिंदा डॉक्टरों को लोहिया इंस्टीट्यूट में असिस्टेंट प्रोफेसर बनाए जाने को गलत बताया। उन्होंने कहा कि प्रदेश के करीब 1200 डॉक्टर एमडी, एमएस डिग्री धारक हैं। इन सभी के पास असिस्टेंट प्रोफेसर बनने की योग्यता है। ऐसे में केवल कुछ डॉक्टरों को मौका दिया जाना सही नहीं है। उन्होंने सीएम को यह भी  सुझाव दिया कि अस्पतालों के इन 1200  डॉक्टरों की मदद से मेडिकल कॉलेजों में असिस्टेंट प्रोफेसरों की कमी को दूर किया जा सकता है लेकिन इसके लिए कोई पारदर्शी नीति बनायी जाए, ताकि मनमानी न होने पाए।

रिश्तेदारों का जमावड़ा :
लोहिया अस्पताल के कई विभागों में 30 से 40 फीसदी पदों पर यहां तैनात डॉक्टर, एचओडी और अधिकारियों के रिश्तेदार जमे हुए हैं। विभागों में तैनात कइ डॉक्टर तो ऐसे हैं, जिनका चयन करने वाली चयन समिति तक में उनके रिश्तेदार शामिल थे। यही नहीं अस्पताल में संविदा पर हुई भर्तियों में भी जमकर भाई भतीजावाद किया गया है। भ्रष्टाचार मुक्त भारत के मोहम्म्द शारिक खान का आरोप है कि पिछली सरकार में लोहिया इंस्टीट्यूट को एक खास राजनीतिक दल के करीबी नेता और अधिकारियों का एंप्लायमेंट हाउस बना दिया गया था।

एमसीआई से कहा 'तत्काल नियुक्ति', शासन से कहा 'अनुमति मिली तब चयन'


(रणविजय सिंह, 20 अप्रैल 2017, लोहिया इंस्टीट्यूट पार्ट थ्री)

लोहिया अस्पताल के 10 डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफेसर बनाने का खाका खींचने के बाद लोहिया इंस्टीट्यूट के अधिकारियों ने मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) और शासन को गुमराह करने के लिए दो अलग अलग पत्र तैयार किए थे। आला अधिकारियों ने शासन से कहा कि इनके चयन का प्रस्ताव है, मंजूरी मिलने के बाद चयन होगा, जबकि मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के अधिकारियों को सौंपे दस्तावेज में इन सभी को इंस्टीट्यूट में तत्काल प्रभाव से नियुक्ति देने की बात लिखी थी। चौंकाने वाली बात यह है कि इस पत्र में इंस्टीट्यूट के निदेशक प्रो़ दीपक मालवीय के दस्तखत भी हैं।

सवाल जिनके जवाब अधिकारियों के पास नहीं हैं :
_ लोहिया इंस्टीट्यूट और लोहिया अस्पताल का विलय अभी तक नहीं हुआ है। लोहिया अस्पताल का काम चिकित्सा स्वास्थ्य विभाग के तहत आता है जबकि लोहिया इंस्टीट्यूट चिकित्सा शिक्षा विभाग के अधीन है। ऐसे में बिना दोनों विभागों के प्रमुख सचिव और महानिदेशकों की जानकारी के लोहिया अस्पताल के 10 डॉक्टरों को लोहिया इंस्टीट्यूट में प्रतिनियुक्ति पर तैनाती का फैसला क्यों और किसके दबाव में किया गया?
_ चिकित्सा शिक्षा के महानिदेशक डॉ़ बीएन त्रिपाठी और चिकित्सा स्वास्थ्य के महानिदेशक डॉ़ पद्माकर ने डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफेसर बनाए जाने या उनके चयन के प्रस्ताव तक की जानकारी से खुद को अनजान बताया। वहीं चिकित्सा स्वास्थ्य के प्रमुख सचिव अरुण सिन्हा ने भी इस मामले में जानकारी न दिए जाने की बात कही और चिकित्सा शिक्षा विभाग की प्रमुख सचिव अनीता भटनागर जैन भी पूरे मामले से अनजान हैं।
_ अस्पताल के 10 डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर तैनाती दी गई। इनमें से दो डॉक्टरों ने बकायदा शासन से इसके लिए एनओसी मांगी। बाकी डॉक्टरों ने क्यों नहीं मांगी। ऐसे में अगर इन 10 की नियुक्ति के तौर तरीकों को सही भी मान लें तो या एनओसी न लेने वाले आठ डॉक्टर सही हैं या फिर एनओसी लेने वाले दो डॉक्टर। इसके बावजूद इंस्टीट्यूट ने सभी 10 डॉक्टरों पर अपनी कृपा एक समान तरीके से बरसायी।
_ शासनादेश के मुताबिक लोहिया अस्पताल और लोहिया इंस्टीट्यूट के संबंध में कोई भी फैसला लेने के लिए शासन स्तर पर मुख्य सचिव की अध्यक्षता में कमिटी बनी हुई है। इसमें प्रमुख सचिव (वित्त), प्रमुख सचिव (चिकित्सा स्वास्थ्य), प्रमुख सचिव (चिकित्सा स्वास्थ्य) और निदेशक (लोहिया इंस्टीट्यूट) को सदस्य बनाया गया है। ऐसे में डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफेसर बनाए जाने का फैसला इस कमिटी के जरिए क्यों नहीं किया गया?

नियुक्ति अभी नहीं हुई है, हमने शासन से अनुमति मिलने की आशा में यह नाम भेजे हैं। वहां से मंजूरी के बाद नियुक्ति होगी। हालांकि एमसीआई के सामने इन्हें असिस्टेंट प्रोफेसर ही दिखाया गया था, क्योंकि ऐसा न करते तो इस साल हमें एमबीबीएस की 150 सीटों की मान्यता न मिल पाती।
प्रो़ दीपक मालवीय, निदेशक
लोहिया इंस्टीट्यूट

अभी विलय को लेकर अंतिम फैसला होना है। इससे पहले लोहिया अस्पताल और उसके डॉक्टरों को लेकर किसी भी तरह का फैसला लोहिया इंस्टीट्यूट नहीं कर सकता। डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफेसर बनाए जाने या उनका नाम भेजे जाने की कोई सूचना मुझे नहीं है।
अरुण सिन्हा, प्रमुख सचिव
चिकित्सा स्वास्थ्य

योग्यता थी, न आवेदन किया, न इंटरव्यू दिया, फिर भी हो गया चयन


(रणविजय सिंह, 18 अप्रैल 2012, लोहिया इंस्टीट्यूट पार्ट टू)

लोहिया इंस्टीट्यूट में असिस्टेंट प्रोफेसर के लिए जिन 10 डॉक्टरों की नियुक्ति का आदेश डॉ़ दीपक मालवीय के दस्तखत से जारी हुआ, उनमें से आठ डॉक्टर ऐसे हैं जिन्होंने इन पदों के लिए आवेदन तक नहीं किया था। यही नहीं विज्ञापन के मुताबिक इनके पास असिस्टेंट प्रोफेसर के लायक योग्यता थी, ना उन्हें चिकित्सा स्वास्थ्य विभाग से आवेदन की एनओसी मिली थी और न ही उन्होंने इंटरव्यू ही दिया। इसके बावजूद लोहिया इंस्टीट्यूट ने सात अप्रैल को मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के सामने इन डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफेसर के तौर पर उसी दिन पेश कर, उनकी नियुक्ति को मंजूरी के लिए शासन में फाइल भेज दी। वहीं जिन अभ्यर्थियों ने योग्यता पूरी करते हुए आवेदन किया और इंटरव्यू के बाद चयनित हुए, उन्हें एमसीआई का निरीक्षण होने के एक दिन बाद आठ अप्रैल और उसके बाद नियुक्ति पत्र सौंपा गया।
लोहिया इंस्टीट्यूट में एमबीबीएस की 150 सीटों के लिए मान्यता का निरीक्षण एमसीआई की टीम को सात अप्रैल को करना था। इसके लिए खाली पदों पर भर्ती का विज्ञापन पिछले साल आठ सितंबर को हुआ था। विज्ञापन के मुताबिक असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर आवेदन के लिए तीन साल की टीचिंग एक्सपीरिएंस होना अनिवार्य था। सूत्रों के मुताबिक इन पदों पर हुए आवेदन के लिए इंटरव्यू समेत नियुक्ति की कवायद 20 मार्च को पूरी हो गई थी। इसके बावजूद अधिकारी छइ अप्रैल तक इंटरव्यू के रिजल्ट रोके रखे। इस बीच सात अप्र्रैल को एमसीआई का निरीक्षण होना था। ऐसे में आपात स्थिति दिखाते हुए लोहिया इंस्टीट्यूट के निदेशक प्रो़ दीपक मालवीय ने अस्पताल के 10 डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफेसर बताते हुए पेश कर दिया। एमसीआई को दिए गए कागज में इन्हें असिस्टेंट प्रोफेसर बताया गया, जबकि शासन को भेजी गई फाइल में अधिकारियों ने अपनी गरदन बचाने के लिए 'शासन की अनुमति मिलने की प्रत्याशा में असिस्टेंट प्रोफेसर' लिख दिया गया।

केवल दो डॉक्टरों ने ली है एनओसी :
लोहिया अस्पताल के जिन 10 डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफेसर बनाया गया है, उनमें से केवल दो डॉक्टरों डॉ़ देवाशीष और डॉ़ सुरेश अहिरवार ने ही शासन से एनओसी लेकर आवेदन किया है और इंटरव्यू फेस करते हुए सिलेक्ट हुए हैं। इन दोनों डॉक्टरों को शासन की मंजूरी चिकित्सा स्वास्थ्य विभाग के पास मंजूरी के लिए पड़ी हुई है। सूत्रों के मुताबिक बाकी किसी भी डॉक्टर को स्वास्थ्य विभाग ने आवेदन के लिए एनओसी नहीं दी है।

सीनियरिटी का भी ख्याल नहीं रखा :
लोहिया इंस्टीट्यूट के निदेशक प्रो़ दीपक मालवीय का कहना है कि एमसीआई का निरीक्षण अचानक होना था, लिहाजा मान्यता बचाने के लिए विभागों के सबसे सीनियर डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफेसर के तौर पर पेश किया गया। एनबीटी ने उनके इस तर्क की पड़ताल की तो पता चला कि उनका दावा पूरी तरह से सही नहीं है। मेडिसिन विभाग में डॉ़ एसी श्रीवास्तव और डॉ़ एससी मौर्या सबसे सीनियर हैं लेकिन उन्हें नहीं सिलेक्ट किया गया। वहीं जनरल सर्जरी में डॉ़ एसी द्विवेदी सबसे सीनियर हैं लेकिन लिस्ट में उनका नाम नहीं है। वहीं आप्थॉल्मोलॉजी में डॉ़ राकेश शर्मा सीनियर हैं लेकिन उनसे जूनियर डॉ़ प्रीति गुप्ता का सिलेक्शन कर लिया गया। वहीं विज्ञापन के मुताबिक पैथोलॉजी विभाग में कोई पद ही नहीं था, बावजूद इसके शासन को भेजी गई सूची में इस विभाग के लिए डॉ़ संजय जायसवाल का नाम जोड़ दिया गया।


यह सही है कि इंटरव्यू 20 अप्रैल को हुए थे लेकिन उसका रिजल्ट चुनाव के चलते जारी नहीं किया गया। सरकार बनने के बाद इसके लिए मुख्य सचिव से मंजूरी ली जानी थी। इसमें थोड़ी देर हुई और सात अप्रैल को अचानक एमसीआई की टीम निरीक्षण के लिए आ गई। ऐसे में हमने इमरजेंसी जैसे हालात में लोहिया अस्पताल से सीनियारिटी के लिहाज से 10 डॉक्टरों को चुना और उन्हें शासन की अनुमति मिलने की आशा में बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर दिखा दिया। ऐसा करने के पीछे हमारी कोई गलत मंशा नहीं थी, बल्कि ऐसा नहीं करते तो एमबीबीएस की मान्यता एक साल के लिए पिछड़ जाती।
प्रो़ दीपक मालवीय, निदेशक
लोहिया इंस्टीट्यूट 

रसूखदार के रिश्तेदारों की परीक्षा ना इंटरव्यू, सीधे नियुक्ति पत्र


(रणविजय सिंह, 17 अप्रैल 2017, लोहिया इंस्टीट्यूट पार्ट वन)

सरकार बदलते ही लोहिया इंस्टीट्यूट में असिस्टेंट प्रोफेसरों की भर्ती में भारी गड़बड़ी सामने आयी है। इस महीने सात अप्रैल को लोहिया इंस्टीट्यूट के निदेशक प्रो़ दीपक मालवीय की तरफ से लोहिया अस्पताल के 10 डॉक्टरों को असिस्टेंट प्रोफेसर के पद नियुक्ति दे दी गई। यही नहीं एमबीबीएस की मान्यता के मानक पूरे दिखाने के लिए लोहिया इंस्टीट्यूट ने इन सभी को मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया की टीम के सामने बतौर शिक्षक पेश भी कर दिया, जबकि यह सारे लोहिया इंस्टीट्यूट के बजाय आज भी लोहिया अस्पताल की ओपीडी में ही बैठ रहे हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि चिकित्सा स्वास्थ्य के महानिदेशक डॉ़ पद्माकर सिंह और लोहिया अस्पताल के निदेशक डॉ़ सीएस नेगी को इस बात की जानकारी ही नहीं है कि उनके 10 डॉक्टरों को लोहिया इंस्टीट्यूट में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति मिल चुकी है।

तौर तरीकों और टाइमिंग पर सवाल :
लोहिया अस्पताल का लोहिया इंस्टीट्यूट में विलय होने पर यहां के करीब 50 डॉक्टरों ने असिस्टेंट प्रोफेसर के पदों पर प्रतिनियुक्ति पाने का आवेदन कर रखा है। लोहिया इंस्टीट्यूट ने एमबीबीएस की 150 सीटों के मानक पूरे करने के लिए पिछले साल 8 अक्टूबर को कई विभागों में शिक्षकों के पदों पर विज्ञापन जारी किया। इस बीच विधानसभा चुनाव शुरू हो गए, लिहाजा नई नियुक्तियों और तैनाती पर रोक लग गई। इसके बावजूद लोहिया इंस्टीट्यूट ने इस साल नौ फरवरी को सात डॉक्टरों की सूची चिकित्सा शिक्षा अनुभाग 2 को भेज दी। इसमें बताया गया था कि इन सातों डॉक्टरों को प्रतिनियुक्ति पर तैनात किए जाने का प्रस्ताव है। इस बीच सरकार बदल गई। इसके बावजूद सात अप्रैल को निदेशक प्रो़ दीपक मालवीय ने पत्र जारी कर इस सूची में तीन नए डॉक्टरों के नाम जोड़े और सभी को प्रतिनियुक्ति पर तैनात किए जाने का आदेश जारी कर दिया।

इन्हें दी गई तैनाती :
डॉ़ संदीप चौधरी (मेडिसिन), डॉ़ सुशील कुमार श्रीवास्तव (मेडिसिन), डॉ़ अजय कुमार सिंह (जनरल सर्जरी), डॉ़ शैलेश कुमार श्रीवास्तव (जनरल सर्जरी), डॉ़ निर्मेश भल्ला (आर्थो), डॉ़ संजय जैन (पीडियाट्रिक्स), डॉ़ देवाशीष शुक्ला (साइकियाट्रिक्स), डॉ़ सुरेश अहिरवार (चर्म एवं गुप्त रोग), डॉ़ प्रीति गुप्ता (आप्थोल्मोलॉजी) और डॉ़ संजय जायसवाल (पैथोलॉजी)। सूत्रों के मुताबिक डॉ़ प्रीति गुप्ता सपा सरकार में सचिव मुख्यमंत्री रहे आईएएस अधिकारी अमित गुप्ता की पत्नी हैं। वहीं डॉ़ संजय जायसवाल को सूचना आयुक्त सुदेश कुमार का रिश्तेदार बताया जाता है। यही नहीं डॉ़ निर्मेश भल्ला, डॉ़ शैलेश कुमार श्रीवास्तव, डॉ़ संदीप चौधरी और डॉ़ सुरेश अहिरवार को मुख्यमंत्री के सलाहकार डॉ़ आरसी अग्रवाल का करीबी माना जाता था। इसके अलावा डॉ़ संजय भल्ला और डॉ़ सुशील कुमार श्रीवास्तव उन डॉक्टरों में शुमार किए जाते थे, जिन्हें जरूरत के वक्त सपा परिवार के सदस्यों को देखने लोहिया अस्पताल से भेजा जाता था। वहीं डॉ़ अजय कुमार सिंह को सपा सरकार के कैबिनेट मंत्री रहे राजा भईया का करीबी होने की अटकलें लगायी जाती हैं।

लोहिया इंस्टीट्यूट हमारे डॉक्टरों को तैनाती कैसे दे सकता है। हमने अभी तक किसी डॉक्टर को रिलीव तक नहीं किया है। ऐसे में अगर उन्होंने ऐसा कुछ किया है तो गलत है। हमें इस संबंध में जानकारी भी नहीं दी गई है। लोहिया अस्पातल और इंस्टीट्यूट के विलय को अभी केवल सैद्धांतिक मंजूरी मिली है। मुझसे पूछा गया था लेकिन मैने साफ कह दिया है कि कर्मचारी, डॉक्टर और दूसरे संसाधनों की शर्तें तय किए बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते।
डॉ़ पद्माकर सिंह, महानिदेशक
चिकित्सा स्वास्थ्य

हमारे किसी डॉक्टर को लोहिया इंस्टीट्यूट में प्रतिनियुक्ति पर तैनाती दिए जाने की कोई सूचना मुझे नहीं है। हमने ना तो इसके लिए अपनी सहमति दी है और न ही इंस्टीट्यूट की तरफ से हमें इस बारे में कुछ बताया गया है।
डॉ़ सीएस नेगी, निदेशक
लोहिया अस्पताल

प्रो़ दीपक मालवीय से सीधी बात :
सवाल : लोहिया अस्पताल के कितने डॉक्टरों को प्रतिनियुक्ति पर बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर तैनाती दी गई है?
जवाब : अभी तैनाती नहीं दी गई है। इसका प्रस्ताव है।
सवाल : लेकिन आपकी तरफ से सात अप्रैल को पत्र जारी कर नियुक्ति दिए जाने की बात कही गई है।
जवाब : हां, लेकिन वह शासन से मंजूरी की प्रत्याशा में जारी की गई थी।
सवाल : उस पत्र में शासन से प्रत्याशा पर नियुक्ति का तो कोई जिक्र नहीं है।
जवाब : नहीं, नहीं। ऐसा नहीं होगा। मैं दिखवाता हूं। एमसीआई के सामने मानक पूरे दिखाने के लिए इन्हें शासन से मंजूरी की प्रत्याशा में ही प्रतिनियुक्ति पर दिखाया गया था।
सवाल : अभी इन डॉक्टरों को चिकित्सा स्वास्थ्य से रिलीव नहीं किया गया है। ऐसे में कैसे तैनाती दे दी गई?
जवाब : नहीं जो कुछ भी होगा मानकों के मुताबिक होगा। मैं दिखवाता हूं।

तो क्या बड़े अस्पताल मरीज को भर्ती कर डकैती डालने पर आमादा हैं

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