Sunday, 15 September 2019

आईटी चौराहे के लिए ढलवाया गया देश का पहला घुमावदर ‘यू गर्डर’

(रणविजय सिंह, मेट्रो पार्ट 14, 28 फरवरी 2019)

‘एलयू से आईटी कॉलेज के लिए सड़क 90 अंश पर घूमी है लेकिन जमीन से 12 मीटर ऊंचाई पर मेट्रो के लिए भी इतना ही तेज घुमावदार ट्रैक नहीं बिछाया जा सकता। चौराहे के एक तरफ आईटी कॉलेज है और दूसरी तरफ निजी डिवेलपर के अपार्टमेंट्स, लिहाजा इतनी जमीन भी नहीं है घुमाव (कर्व) कम किया जा सके।‘

साइट इंजिनियर की बात सुनकर चीफ इंजिनियर कभी एलयू से आईटी कॉलेज की तरफ प्रस्तावित ट्रैक का डिजाइन देखते तो कभी आईटी चौराहे के आसपास जमीन की रिपोर्ट। काफी विचार विमर्श और बैठकों के बाद भी आईटी चौराहे पर घुमावदार ट्रैक के लिए कोई उपाय नहीं सूझा। डिजाइन में बदलाव और आसपास की जमीनें अस्थायी तौर पर लेकर काम शुरू करने की तमाम कोशिशों के बावजूद यहां इतनी जमीन नहीं मिली कि 130 अंश से ज्यादा घुमावदार ट्रैक बनाया जा सके। समाधान का एक रास्ता खुला तो नयी समस्या खड़ी हो गई।

यू गर्डर तो सीधे ढलवाए गए हैं, उसे कैसे घुमाएंगे :
जमीन से 12 मीटर ऊंचाई पर मेट्रो ट्रैक के लिए आईटी कॉलेज चौराहे के एक तरफ बने पिलर की दूरी इसके दूसरी तरफ बने पिलर्स से 30 मीटर थी। आम तौर पर मेट्रो ट्रैक के लिए दो पिलर्स के बीच औसतन इतनी ही दूरी होती है और उसपर रखने के लिए इतना ही लंबा यू गर्डर ढलवाया जाता है। इंजिनियर ने पूछा कि कास्टिंग यार्ड में 30 मीटर लंबाई के ही यू गर्डर ढाले जा रहे हैं, जो एकदम सीधे होते हैं। ऐसे में चौराहे पर घुमावदार ट्रैक कैसे बिछाया जा सकेगा? इसका समाधान सुझाते हुए कास्टिंग यार्ड के प्रभारी ने जवाब दिया कि हम 10 10 मीटर के यू गर्डर तैयार कर सकते हैं, जिन्हें चौराहे के ऊपर घुमावदार तरीके से इंस्टॉल किया जा सकता है। इतना सुनते ही साइट इंजिनियर ने आपत्ति दर्ज कराते हुए कहा कि ‘चौराहे पर दो पिलर बनकर तैयार हैं, जिनके बीच 30 मीटर की दूरी है। ऐसे में 10 - 10 मीटर के यू गर्डर इंस्टॉल करने का फैसला हुआ तो हमें यहां सड़क पर इतनी ही दूरी पर दो नए पिलर बनाने होंगे, ऐसा हुआ तो सड़क का बड़ा हिस्सा मेट्रो के पिलर्स से घिर जाएगा, जिसपर ट्रैफिक विभाग से लेकर पीडब्लूडी की भी आपत्ति हो सकती है’

तो धुमावदार यू गर्डर ही क्यों ना ढलवा लिया जाए :
समाधान के लिए चीफ इंजिनियर ने मीटिंग बुलायी। इसमें कास्टिंग यार्ड के प्रभारी बार बार छोटे यू गर्डर ढलवाकर उन्हें नए पिलर्स बनाकर धुमावदार तरीके से इंस्टॉल करने की पैरवी करते रहे। इस बीच सिविल इंजिनियर इसपर सहमत नहीं दिख रहे थे। ऐसे में चीफ इंजिनियर ने पूछा कि पूरे 30 मीटर का घुमावदार यू गर्डर की ढलाई क्यों नहीं हो सकती? यार्ड के प्रभारी ने तुरंत जवाब दिया कि आज तक देश के किसी भी प्रॉजेक्ट में ऐसा यू गर्डर ना तो ढाला गया है और ना ही इस्तेमाल ही किया गया है। इसपर चीफ इंजिनियर ने सिविल वर्क से जुड़े इंजिनियरों से पूछा कि अगर ऐसा गर्डर मिल जाए तो उसका इस्तेमाल हो सकता है या नहीं? कुछ हिचकते हुए इंजिनियरों ने हामी भरी लेकिन चीफ इंजिनियर इस प्लान के सफल होने को लेकर इतने आश्वास्त थे कि उन्होंने तुरंत ही इस बारे में आला अधिकारियों से बात की और घुमावदार यू गर्डर की ढलायी शुरू हो गई। एक महीने के भीतर देश के पहले घुमावदार यू गर्डर तैयार हो गए और उन्हें आईटी चौराहे पर लगा भी दिया गया।

सबसे देर में शुरू हुआ और सबसे पहले बनकर तैयार हो गया

(रणविजय सिंह, मेट्रो पार्ट 13, 28 फरवरी 2019)

‘सर, बीरबल साहनी पुरावनस्पति संस्थान ( बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट) की तरफ से जमीन को लेकर अब तक एनओसी नहीं मिली है। उनकी हां, ना और देखेंगे के चक्कर में विवि मेट्रो स्टेशन का काम जमीन पर शुरू भी नहीं हो सका है, जबकि बाकी स्टेशन आधे से ज्यादा बनकर तैयार भी हो चुके हैं।‘ इससे पहले कि चीफ कोई जवाब देते साइट इंजिनियर ने अपनी बात पूरी करते हुए कहा ‘जल्द ही एनओसी नहीं मिली या हमने दूसरी योजना पर काम शुरू नहीं किया तो इस स्टेशन के चलते पूरा प्रॉजेक्ट लेट हो जाएगा।‘ पूरी बात सुनने के बाद चीफ इंजिनियर ने चिंतित स्वर में कहा ‘मुझे नहीं लगता कि बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट की जमीन हमें मिल सकेगी, शासन का दबाव जब तक काम करेगा, तब तक हमारा काम काफी पीछे जा चुका होगा। हमें दूसरी योजना पर ही काम करना होगा‘।

चीफ इंजिनियर ने आला अधिकारियों को ग्राउंड रिपोर्ट भेजकर जल्द फैसला लेने का अनुरोध किया। रिपोर्ट के मुताबिक डिजाइन में बदलाव कर मेट्रो के विवि स्टेशन को बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट के सामने से हटाकर एलयू के गेट नंबर तीन पर बनाया जाना था। शासन को हालात से अवगत कराते हुए लखनऊ युनिवर्सिटी प्रशासन से एनओसी मांगी गई। एलयू के मेन गेट (सिंह द्वार) से गेट नंबर चार तक सड़क की तरफ से चहारदीवार पहले ही मेट्रो निर्माण के लिए तोड़ी जा चुकी थी। ऐसे में एलयू ने गेट नंबर तीन पर स्टेशन के लिए भी जमीन देने में कोई संकोच नहीं जताया। एलयू से जमीन मिलने के बाद डिजाइन में बदलाव को भी मंजूरी मिल गई। जमीन मिलने के बाद भी विवि स्टेशन का काम देख रहे अधिकारी और इंजिनियरों के सामने इस रूट के बाकी स्टेशनों से पिछड़ने और जल्दी काम पूरा करने की चुनौती बनी हुई थी। चीफ इंजिनियर ने सबकी चिंताओं को दूर करते हुए ऐसी बात कही जिसपर किसी के लिए भी यकीन करना मुश्किल था। चीफ इंजिनियर बोले ‘चारबाग से मुंशीपुलिया के बीच सबसे पहले बनकर तैयार होने वाला स्टेशन विवि मेट्रो स्टेशन होगा’। साथी इंजिनियर ने चौंकते हुए पूछा ‘कैसे?’ चीफ इंजिनियर ने सधा हुआ जवाब दिया ‘अब तक गर्डर, से लेकर पीयर कैप तक अमौसी स्थ्ज्ञित कास्टिंग यार्ड से आता था, जिसमें 12 से 24 घंटे का समय लगता था लेकिन अब एलयू स्टेशन के सामने ही नया कास्टिंग यार्ड भी बनकर तैयार हो चुका है। ऐसे में विवि स्टेशन की जरूरत का हर सामान चंद कदम दूर इसी कास्टिंग यार्ड से मिलना है।’



नए कास्टिंग यार्ड ने बढ़ायी काम की तेजी :

मेट्रो के प्रियॉरिटी रूट (टीपी नगर सेचारबाग) का काम पूरा होने के बादअमौसी स्थित कास्टिंग यार्ड से चारबाग के आगे वाले मेट्रो रूट से काफी दूर पड़ रहा था। इस बीच विवि मेट्रो स्टेशन के लिए एलयू की जमीन मिलने के साथ ही काल्विन में चार हेक्टेयर जमीन पर नया कास्टिंग यार्ड भी बनकर तैयार हो गयाा। ऐसे में केडी सिंह बाबू स्टेडियम से लेकर मुंशीपुलिया तक के लिए गर्डर, पाइल और पियर कैप समेत जिन चीजों की आपूर्ति अमौसी स्थित कास्टिंग यार्ड से हो रहा था, वो अब काल्विन कॉलेज पर बने कास्टिंग यार्ड से होने लगा। इसका सबसे बड़ा फायदा विवि मेट्रो स्टेशन को मिला, क्योंकि इसके ठीक सामने ही नया कास्टिंग यार्ड था। ऐसे में निर्माण से जुड़ी हर चीज स्टेशन  के सामने से ही आ जाती थी। यही नहीं विवि की परीक्षाएं भी लगभग खतम हो चुकी थीं, लिहाजा अगले करीब चार से पांच महीने तक विवि कैंपस स्टूडेंट्स से खाली था। ऐसे में यहां 24 घंटे बिना किसी बड़ी बाधा के काम जारी रखने का मौका मिल गया।



सही साबित हुआ दावा :

एलयू की जमीन मिलना प्रॉजेक्ट के लिए काफी फायदेमंद साबित हुआ। यहां सिवाय चहारदीवारी के कुछ भी तोड़े बिना पाइलिंग के लिए बड़े पैमाने पर खाली जमीन मिल गई। यही नहीं सामने ही कास्टिंग यार्ड था, लिहाजा वहां से पाइलिंग, पाइल कैप और पियर कैप आसानी से पहुंचाए जाते रहे। नतीजा हुआ कि इस स्टेशन की खोदायी शुरू होने के वक्त जो स्टेशन 50 फीसदी बन चुके थे, उनकी फिनिशिंग होने से पहले ही विवि स्टेशन पूरी तरह से तैयार हो चुका था। विवि स्टेशन मार्च 2018 के पहले सप्ताह में बनना शुरू हुआ और इसी साल सितंबर के अंत तक बनकर तैयार हो गया।

पाइलिंग धंसने के बावजूद गोमती को रोका ना डायवर्ट किया, बना दिया विशेष पुल

(रणविजय सिंह, मेट्रो पार्ट 12, 17 फरवरी 2019)

'सर, हनुमान सेतु की तरफ गोमती में बन रही एक पाइल धंस गई...' मोबाइल पर हांफते हुए इंजिनियर ने चीफ इंजिनियर को यह सूचना दी। खबर मिलते ही चीफ इंजिनियर मौके पर पहुंचे। दूर से ही उन्हें दिख गया कि गोमती में पानी बढ़ा हुआ है। कुछ करीब पहुंचे तो नदी में एक तरफ धंसी हुई पाइल और उसके चारों तरफ उफनाती गोमती साफ दिखायी देने लगी।
चीफ इंजिनियर के मौके पर पहुंचते ही वहां पहले से मौजूद एलएमआरसी और कार्यदायी संस्था एलएंडटी के इंजिनियर भी जमा हो गए। चीफ इंजिनयर कभी धंसी हुई पाइल को देखते और कभी गोमती के उफान को। उन्हें परेशान देख साथी इंजिनियर ने गोमती की धारा रोककर या उसे डायवर्ट करने के बाद ही नए सिरे से पाइलिंग की मजबूरी बतायी। इसपर चीफ इंजिनियर ने ऐसा करने की मंजूरी ना मिलने की बात कह सबकी परेशानी बढ़ा दी। कुछ देर चुप रहने के बाद इंजिनियरों ने पूछा 'इस समय यह सबसे बड़ी दिक्कत है, बिना इसका समाधान खोजे काम आगे कैसे बढ़ेगा? एक बार यह दिक्कत दूर हो गई तो मवैया से दुर्गापुरी की तर्ज पर यहां भी विशेष पुल बनाने में दिक्कत नहीं आएगी'। पूरी बात सुनने के बाद चीफ इंजिनियर ने कहा 'गोमती पर पाइलिंग के बाद विशेष पुल बनाना भी आसान नहीं है। दुर्गापुरी में विशेष पुल सीधा बनाया जाना था, जबकि गोमती पर 'एस' आकार में बनेगा। दुर्गापुरी में नीचे से जा रही ट्रेनें रोकने की अनुमति नहीं थी और यहां हमें गोमती के पानी को डायवर्ट करने या उसकी धारा को रोकने की अनुमति नहीं है'। इसपर साथी इंजिनियरों ने पूछा '...तो किया क्या जाए'

चार के बजाय छह पाइल बनाए गए :
गोमती पर विशेष पुल के लिए केवल दो पिलर बनाए जाने थे। अमूमन एक पिलर के लिए जमीन के नीचे करीब 20 मीटर गहरायी तक चार पाइल बनायी जाती है। गोमती नदी के हनुमान सेतु वाले हिस्से की तरफ बन रहे ऐसे ही चार पाइल में से एक पाइल धंसी थी। ऐसे में इसे मजबूत करने के लिए उसके चारों तरफ दो अतिरिक्त पाइल बिनायी गई। पाइल तक पाने पहुंचने से रोकने के लिए नदी से लगातार पंपिंग कर पानी निकाला जाता रहा। इसके साथ एक बड़े हिस्से को मिट्टी से पाटकर स्टील की अस्थायी दीवारें बनाई गईं और उसके भीतर लकड़ी के पट्टे लगाए गए। इन छह पाइल के गोमती नदी की सतह वाले सिरे पर पाइल कैप बना और उसके ऊपर पिलर बनाने का काम शुरू हुआ।

'कैंटी लीवर' तकनीक से बना एस आकार का पुल :
गोमती के दोनों किनारों पर पिलर बनकर तैयार होने के बाद कैंटी लीवर तकनीक से इनके बीच पुल बनाया जाना था। दोनों पिलर्स के बीच 87 मीटर की दूरी थी और इनके ऊपर कांक्रीट का पुल बनाया जाना था। कैंटी लीवर तकनीक का इस्तेमाल करते हुए दोनों पिलर्स के बीच हवा में दो दो मीटर कांक्रीट का पुल बनाया जाता रहा और जब वो मजबूत हो जाते तो उनके आगे इतना ही नया ढांचा बनाकर उसके मजबूत होने का इंतजार किया जाता। हर दो मीटर आगे बढ़ने के लिए तीन दिन लग रहे थे। करीब डेढ़ महीने तक इस एहतियात के साथ काम करते हुए दोनों तरफ से पुल आगे बढ़ते हुए बीच में मिल गया।

नीचे टनल खोदी जाती रही लेकिन ऊपर से मजार हटी, ना रास्ता बंद किया

(रणविजय सिंह, मेट्रो पार्ट 11, 13 फरवरी 2019)

'बापू भवन के सामने जिस जगह से सुरंग के लिए टनल बोरिंग मशीन (टीबीएम) खोदायी शुरू होनी है, उसके ठीक ऊपर मजार है। दूसरी तरफ सेवेंथ डे स्कूल और इससे कुछ दूरी पर मानसरोवर आई हॉस्पिटल। ना तो मजार हटायी जा सकती है और ना ही वहां आने वाले श्रद्धालुओं को ही रोका जा सकता है। स्कूल और अस्पताल के ठीक सामने से डी वॉल बनायी जानी है जिसके लिए ना तो स्टूडेंट्स को रोका जा सकता है और ना ही मरीजों के आने जाने पर पाबंदी लग सकती है...'

अंडरग्राउंड मेट्रो स्टेशन और टनल बना रहे टाटा गुलेरमक के इंजिनियर लखनऊ मेट्रो रेल कारपोरेशन के चीफ इंजिनियर को मौके की नजाकत से वाकिफ कराने के बाद चुप हो गए। चीफ इंजिनियर ने मुस्कुराते हुए कहा 'इसके अलावा जमीन के नीचे से जो नाला जा रहा है, उसे भी डायवर्ट करना है। हमारे डिजाइन के मुताबिक स्टेशन के ठीक ऊपर से नाला जा रहा है, जिसमें जरा सा झटका या दरार पड़ने पर सारा पानी टनल के भीतर आने लगेगा'। समाधान पूछने आए इंजिनियरों को चीफ इंजिनियर ने नई समस्या बताकर उनकी परेशानी बढ़ा दी। इसके बाद इस चुनौती से निपटने की कवायद शुरू करते हुए चीफ इंजिनियर ने टाटा गुलेरमक और एलएमआरसी इंजिनियरों के साथ बैठक की। इसमें तय हुआ कि ना तो मजार को हटाया जाएगा और ना ही स्कूल या अस्पताल को बंद करने की जरूरत है।

30 मीटर कच्चे नाले को कांक्रीट का बना दिया :
मेट्रो स्टेशन के ठीक ऊपर से जा रहे कच्चे नाले की सतह और उसके दो तरफ की दीवार को मजबूत करने का फैसला हुआ। इकसे लिए नाले के तीनों तरफ कांक्रीट की दीवार खड़ी की गई। इसके लिए सेवेंथ डे स्कूल की तरफ से नाले को डायवर्ट किया गया। यहां पाइप लगाकर नाले का पानी पंप की मदद से सामने की तरफ बस्ती के नाले में गिराया जाता रहा। इस बीच मेट्रो स्टेशन के ऊपर से जा रहे नाले को 30 मीटर लंबाई तक कांकीट का बना दिया गया। इसके बाद सेवेंथ डे स्कूल के सामने से नाले को इस कंक्रीट के नाले से जोड़ दिया गया और नाला पहले की तरह बहता रहा और इसके ठीक नीचे मेट्रो का स्टेशन बन गया। इसके बावजूद ना तो नाले से लीकेज हुआ और ना ही कभी इसमें दरार पड़ने की आशंका ही पैदा हुई।

7 बार बदला गया मजार तक आने जाने का रास्ता :
निर्माण कार्य के दौरान मजार को हटाना तो दूर एक दिन के लिए भी बंद नहीं किया गया। हालांकि यहां आने वालों की सुरक्षा के लिए सात बार डायवर्जन प्लान में बदलाव किया गया। मजार के ठीक नीचे टनल बोरिंग मशीन खोदायी शुरू कर चुकी थी लेकिन मजार पर इसका कोई असर नहीं होने दिया गया। यहां आने वालों के लिए कभी समाने तो कभी पीछे की तरफ से वैकल्पिक रास्ता बना दिया जाता था। महिलाएं, बुजुर्ग और बच्चों तक की सुरक्षा का पूरा इंतजाम मेट्रो की तरफ से किया जाता रहा।

एक दिन में बना दी गई डी वॉल :
सेंवेंथ डे स्कूल और मानसरोवर आई हॉस्पिटल के सामने डी वॉल बनायी जानी थी, जिसमें सामान्य तौर पर तीन से चार दिन लगते हैं। हालांकि यहां ना तो स्टूडेंट्स को रोका जा सकता था और ना ही मरीजों के आने जाने पर पाबंदी लग सकती थी। ऐसे में इसे हुसैनगंज की तरह एक दिन में बनाने का फैसला हुआ। यहां गनीमत यह थी कि इमारतें ज्यादा पुरानी नहीं थीं। लिहाजा इन दोनों जगहों पर इमारत के काफी करीब से सड़क के किनाने जमीन के 20 मीटर नीचे तक डी वॉल बना दी गई।

सर्जिकल स्ट्राइक से कम नहीं था जर्जर इमारतों से 16 इंच दूर खोदायी करना

(रणविजय सिंह, मेट्रो पार्ट 9, 4 फरवरी 2019)

'जमीन के नीचे मेट्रो रूट की सुरंग से आगे जैसे ही स्टेशन के लिए जमीन खोदी जाएगी तो उसके आसपास की मिट्टी खाली हुए हिस्से की तरफ धंसेगी। ऐसा हुआ तो सुरंग के ऊपर सड़क के दोनों तरफ बनी इमारतों का बचना मुश्किल है। इस हादसे की आशंका को टालने के लिए सड़क के दोनों तरफ करीब 100 मीटर लंबाई में जमीन की 20 मीटर गहरायी तक कांक्रीट की दीवार (डी वॉल) बनानी पड़ेगी। ऐसा होने से सुरंग खोदे जाने के बाद उसके अगल बगल की मिट्टी के धंसने की आशंका लगभग खतम हो जाएगी लेकिन...' इतना बोलने के साथ ही इंजिनियर ने चुप्पी साध ली।
चीफ इंजिनियर ने पूछा 'लेकिन क्या? अंडरग्राउंड स्टेशन बनाते समय ऐसा करना पड़ेगा, यह तो पता ही था।' इस पर इंजिनियर ने परेशान लहजे में जवाब दिया 'पहले से पता था कि यह करना पड़ेगा लेकिन यह नहीं पता था कि जर्जर इमारतों से 16 इंच की दूरी पर खोदायी कर डी वॉल बनानी पड़ेगी' कुछ देर रुककर इंजीनियर ने फिर बोलना शुरू किया 'बिना डी-वॉल बनाए यहां अंडरग्राउंड स्टेशन के लिए जमीन के नीचे काम शुरू नहीं हो सकता और सड़क के ऊपर दोनों तरफ की जर्जर इमारतों का जहां से दरवाजा खुलता है, ठीक वहीं से 'डी वॉल' के लिए खोदायी करनी पड़ेगी।' सारी बात सुनने के बाद चीफ इंजिनियर को असल परेशानी का आभास हुआ। गंभीर लहजे में धीरे से बोले 'यानी जमीन के नीचे सुरंग की खोदायी से भी इमारत के गिरने की आशंका और ऐसा होने से बचाने का उपाय करने पर भी इमारत के गिरने की आशंका...' इससे पहले कि चीफ इंजिनियर आगे कुछ बोलते इंजीनियर ने दोबारा बोलना शुरू कर दिया 'यही नहीं ऐसी इमारतों में एक निजी स्कूल भी है, जिसमें स्कूली बच्चों और स्टाफ के आने जाने का एक ही रास्ता है और वो सड़क के उसी हिस्से की तरफ खुलता है जहां हमें खोदायी करनी है। ना तो स्कूल की छुट्टी करायी जा सकती है और ना ही उसमें आने जाने का दूसरा रास्ता बनाया जा सकता है। काम के दौरान एक भी बच्चे या स्टाफ को चोट लगी तो दिक्कत हो जाएगी'। पूरी बात सुनकर चीफ इंजिनियर सोंच में पड़ गए कि आखिर ऐसा क्या किया जाए ताकि सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे।

इमारतों पर दर्जनों कैमरे लगाए, पल पल की रिपोर्ट :
जर्जर इमारतों के अलग अलग कोनों पर कैमरे और मॉनीटर लगा दिया गया। यह उपकरण इमारत की मामूली से मामूली हलचल को भी तुरंत पकड़ सकती थी। इन उपकरणों को प्रॉजेक्ट देख रहे सभी इंजिनियर और अधिकारियों के मोबाइल से जोड़ दिया गया। यही नहीं कंट्रोल रूम में भी चौबीसों घंटे इनके इनपुट पर नजर रखी जा रही थी। टनल की खोदायी से इमारत पर होने वाली कोई भी हरकत एक पल में इससे जुड़े सभी इंजिनियर और अधिकारियों को मिल जाती। इसके बाद इमारतों को मजबूती देने के लिए भीतर जैक लगाया गया। इसके बाद शुरू हुआ जमीन के नीचे 20 मीटर गहरायी तक कांक्रीट की 'डी वॉल' बनाने का काम। इसके लिए खोदायी के दौरान मिट्टी की कठोरता को कम करने के लिए इस्तेमाल होने वाले कैमिकल की मात्रा भी बढ़ा दी गई, जिसके कारण मिट्टी के धंसने की आशंका कम होती है।

अवकाश के दिन 24 घंटे में बना डाली डी वॉल :
हुसैनगंज अंडरग्राउंड स्टेशन के लिए स्कूल के गेट से सटे हुए हिस्से में खोदायी कर डी वॉल बनायी जानी थी, जिसमें तीन से चार दिन लग सकते थे। इसके बावजूद स्कूल छुट्टी करने को तैयार था और ना ही पीछे की तरफ से कोई रास्ता ही बनाने की गुंजाईश थी। ऐसे में इंजिनियरों ने रविवार के दिन स्कूल के सामने होने वाला सारा काम पूरा करने का फैसला किया। इसके लिए चारबाग में केकेसी के पास 10-10 मीटर की सरिया की चादरें बनायी गईं और उन्हें क्रेन की मदद से हुसैनगंज पहुंचाया जाता रहा और 24 घंटे तक लगातार जमीन खोदी जाती रही और जमीन के 20 मीटर गहरायी तक सरिया का जाल बिछाते हुए उसमें कांक्रीट भरकर डी वॉल बना दी गई। अगले दिन स्कूल आम दिनों की तरह खुला और वहां आने वाले स्कूली बच्चों को पता भी नहीं चला कि दरवाजे के ठीक सामने जमीन के नीचे इतना बड़ा काम हो गया।

इंजीनियरिंग के लिहाज से सबसे आसान स्टेशन पर ट्रैफिक ने छुड़ाए पसीने

(रणविजय सिंह, मेट्रो पार्ट 9, 23 जनवरी 2019)

यहां चौबीस घंटे ट्रेनें आती रहेंगी और जाती रहेंगी। हर ट्रेन के साथ सैकड़ों लोगों की भीड़ सड़क पर आएगी। ट्रेनों की छुट्टी भी नहीं होती लिहाजा हमें ऐसा एक दिन भी नहीं मिलने वाला कि सड़क पर भीड़ कम हो। सड़क बंद करने या ट्रैफिक रोकने की अनुमति देने को रेलवे तैयार नहीं। यही नहीं स्टेशन के सामने से डायवर्जन मुमकिन नहीं क्योंकि पूरा शहर चारबाग स्टेशन तक पहुंचने का एक ही रास्ता जानता है और वो है मेन रोड, जिसके ऊपर मेट्रो स्टेशन बनाया जाना है। यहां भीड़ कभी थमेगी नहीं और किसी भी यात्री के सिर पर एक इंट भी गिरने का मतलब होगा, शहर का सबसे बड़ा हादसा।

इंजीनियरिंग के लिहाज सबसे आसान समझे जा रहे चारबाग स्टेशन पर ट्रैफिक से निपटने को लेकर सामने आयी इस चुनौती ने मेट्रो के चीफ इंजीनियर से लेकर आला अधिकारियों तक के माथे पर पसीना ला दिया था। इस बीच आलमबाग बस स्टेशन बंद होने के कारण वहां की सारी बसें चारबाग आने लगीं। इसका नतीजा हुआ कि चारबाग बस स्टेशन के सामने खड़ी होने वाली बसों से इस पूरे इलाके में बिना मेट्रो का काम शुरू हुए ही भीषण ट्रैफिक जाम होने लगा। ऐसे में चौबीस घंटे सड़क पर भीड़ के ऊपर हजारों टन का मलबा और भारी उपकरणों के साथ काम करना ऐसी चुनौती थी, जिसमें जरा सी चूक जानमाल के लिए बड़ा खतरा बन सकती थी और इसका असर प्रॉजेक्ट पर भी पड़ता।

रेलवे और ट्रैफिक पुलिस भी चारबाग रेलवे स्टेशन के सामने मेट्रो स्टेशन के लिए सड़क बंद करने की मंजूरी देने को तैयार नहीं था। ऐसे में हादसे की आशंका को टालते हुए काम करने के लिए चीफ इंजीनियर ने नई योजना पर काम शुरू किया। इसके तहत सड़क के किनारे बनाए जा रहे पिलर्स की लोकेशन उन्होंने रेलवे स्टेशन की चहारदीवारी के भीतर तक कर दी, वहीं दूसरी तरफ के पिलर्स को सड़क से होटलों की तरफ खिसका दिया। ऐसा होने से पिलर्स के कारण घिर रही सड़क का काफी हिस्सा खाली हो गया। इसके बाद इस स्टेशन को तीन टुकड़ों में बनाने का फैसला हुआ। सबसे पहले चारबाग स्टेशन की चहारदीवारी की तरफ बेरिकेडिंग कर निर्माण कराया गया और फिर होटलों की तरफ बेरिकेडिंग कर काम हुआ और दोनों तरफ डिवाइडर की तरफ से ट्रैफिक चलता रहा। सड़क के दोनों तरफ दो हिस्सों में काम होने के बाद वहां से बेरिकेडिंग हटाकर ट्रैफिक उस तरफ खोल दिया गया और डिवाइडर की तरफ वाले हिस्से में बेरिकेडिंग कर मेट्रो स्टेशन के बीच वाले हिस्से में निर्माण कार्य शुरू हुआ। हालांकि इसके बाजवूद ट्रैफिक जाम की समस्या खड़ी होने लगी तो मेट्रो ने यहां करीब 30 से 50 बाउंसर लगाकर ट्रैफिक संभालना शुरू किया लेकिन इस बीच आलमबाग बस स्टेशन बंद होने से वहां की बसें चारबाग में आने लगीं। बस स्टेशन में जगह कम होने पर सारी बसें सड़क पर ही खड़ी हो रही थीं और चारबाग मेट्रो स्टेशन से निकलते ही सारा ट्रैफिक यहां ब्लॉक हो जा रहा था। इससे निपटने के लिए मेट्रो अधिकारियों ने परिवहन विभाग के साथ बात की और सड़क को बसों से खाली कराने पर सहमति बनी। बसों को अलग अलग जगहों पर खड़ा किया जाने लगा और हर बस अपने समय पर ही स्टेशन में दाखिल होती थी, जिसके कारण ट्रैफिक में सुधार हुआ। इस तरह की चुनौतियों से जूझते हुए एलएमआरसी ने छह महीने तक काम किया और बिना कोई हादसा हुए, काम पूरा कर लिया गया।

Sunday, 8 September 2019

25 हजार वोल्ट की 12 लाइनों के ऊपर से बना दिया 105 मीटर लंबा पुल


(रणविजय सिंह, मेट्रो पार्ट 8, 19 जनवरी 2019)

कान में फोन लगाए चीफ इंजीनियर के चेहरे पर परेशानी के भाव साफ पढ़े जा सकते थे। फोन काटने से पहले ही उनके सामने बैठे साथी इंजीनियरों को किसी बड़ी परेशानी का आभास हो चुका था। 'क्या हुआ सर...' सवाल सुनते ही चीफ इंजीनियर ने मायूसी भरे लहजे में कहा 'मवैया से दुर्गापुरी के बीच ट्रैक का अलाइनमेंट बदलना पड़ेगा। रेलवे अपनी कॉलोनी के भीतर से जा रहे ट्रैक को मंजूरी देने को तैयार नहीं। मंजूरी मिल जाती तो उनके ट्रेनिंग सेंटर के पास से एलेवेटेड ट्रैक आसानी से बन जाता लेकिन अब'। इससे पहले कि वो अपनी बात पूरी करते साथी इंजीनियर ने उनकी बात काटते हुए कहा '...लेकिन अब क्या सर, जैसे कॉलोनी के भीतर से बनाते, वैसे ही अलाइनमेंट बदलने के बाद बनाएंगे'
'लेकिन अब ये है कि पहले हमें कॉलोनी के भीतर से जगह मिल रही थी, जहां काफी जमीनें खाली पड़ी थीं। उनपर हमारी क्रेनें खड़ी हो सकती थीं। अब नया अलाइनमेंट सड़क की तरफ जा रहा है। यहां हमें ट्रैफिक भी देखना है और क्रेनें खड़ी करने के लिए जगह भी तलाशनी है। इससे भी बड़ी दिक्कत यह है कि हमें 25 हजार वोल्ट की 12 लाइनों के ऊपर से बिना पिलर 105 मीटर लंबा पुल बनाना है। इस बीच एक भी दिन नीचे से जा रही ट्रेनों को रद्द करने या उन्हें डायवर्ट करने की गुंजाइश नहीं है। यानी रोजना 25 हजार वोल्ट की 12 लाइनों के नीचे दर्जनों ट्रेनें चलती रहेंगी और ऊसके ऊपर हमें बिना रुके काम करते रहना होगा' एक ही सांस में चीफ इंजीनियर ने नए अलाइनमेंट के कारण अचानक पैदा हुई चुनौती के बारे में बता दिया। पूरी बात सुनकर इंजीनियरों के माथे पर भी बल पड़ गए। 'नीचे से जा रही ट्रेनों को कुछ दिनों के लिए तो रोका जा सकता है, इसमें क्या दिक्कत है...' मीटिंग में बैठे इंजीनियर ने झुंझलाते हुए पूछा। इसपर चीफ इंजीनियर ने बताया कि कुछ दिनों के लिए रद्द होने वाली ट्रेनों के कारण रेलवे को होने वाले नुकसान की भरपायी मेट्रो को करनी पड़ेगी, जो कि बजट संकट के चलते मुमकिन नहीं है। इसके अलावा ऐसा होने के बाद उनकी जितनी भी ट्रेनें लेट चलेंगी, उन सबका जिम्मा मेट्रो के सिर पर ही फोड़ा जाएगा।

स्पीड़ कम करायी और फायर प्रूफ तिरपाल लगाकर किया काम :
इसके बाद चीफ इंजीनियर ने रेलवे के साथ बात करके यहां से गुजरने वाली ट्रेनों की स्पीड़ कम करवाने का अनुरोध किया, जिसे मंजूर कर लिया गया। इसके बाद रेलवे के 12 ट्रैक के दोनों तरफ 105 मीटर के अंतर पर दो पिलर बनाकर खड़े कर दिए गए। इन पिलर्स के बीच विशेष पुल (बिना पिलर के बनने वाला पुल) बनाने का काम शुरू हुआ। दोनों तरफ से रोजाना दो मीटर कांक्रीट का हिस्सा आगे की तरफ बनाकर छोड़ दिया जाता और उसमें मजबूती आने के बाद फिर उसके आगे दो मीटर की ढलाई की जाती थी। इसी तरीके से 30, 40 या 50 नहीं पूरे 105 मीटर लंबा पुल बिना नीचे से किसी पिलर का सहारा लिए बनाया जाना था। जरा सी चूक से यह पूरा हिस्सा रेलवे ट्रैक पर गिरता और ऐसा होने पर रेलवे ट्रैक के साथ ही 25 हजार वोल्ट की लाइन भी नहीं बचती। इन तमाम चुनौतियों के बीच रेलवे ट्रैक के ऊपर काम शुरू हुआ तो नई समस्या खड़ी हो गई। मेट्रो ट्रैक पर चल रहे काम के दौरान नीचे पानी गिरने से 25 हजार वोल्ट का करंट ऊपर आने की आशंका जतायी जाने लगी। ऐसा होने पर ऊपर काम कर रहे मजदूरों की जान खतरे में पड़ जाती, लिहाजा नीचे तिरपाल बांधकर काम शुरू हुआ। कुछ दिनों बाद ऊपर हो रही वेल्डिंग की चिंगारी से तिरपाल में जगह जगह छेद हो गया। इसकी जानकारी होने के बाद इंजीनियरों ने काम रुकवाकर नीचे फायर प्रूफ तिरपाल बंधवाया ताकि चिंगारी से तिरपाल में छेद ना हो और ऊपर से पानी नीचे बिजली के तार पर ना गिरे। इन तमाम एहतियात के बीच दोनों पिलर की तरफ से हवा में दो दो मीटर कांक्रीट का पुल बनता रहा। एक महीने बाद दोनों तरफ से बनकर बढ़ रहा पुल ठीक बराबर एक दूसरे से मिल गया। ना एक इंच ऊपर ना एक इंच नीचे।

अवैध कब्जेदारों को पैसा देकर हटाया :
नए अलाइनमेंट में रेलवे ट्रैक के बाहर बनने वाले पिलर के लिए जो जगह मिली, वहां बड़े पैमाने पर अवैध तरीके से झुग्गियां बनी हुई थीं। इन्हें हटाने के लिए रेलवे की तरफ से अभियान चलाया जाना था लेकिन उसमें काफी समय लग सकता था। ऐसे में मेट्रो की तरफ से उन्हें अभियान का खौफ दिखाते हुए अपने आप हटने पर मुआवजे का आश्वासन दिया गया। इसपर झुग्गी वाले अपने आप वहां से हट गए।

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