रणविजय सिंह
लखनऊ, 15 फरवरी : मौसम की तमाम चुनौतियों के बीच लगातार हो रही गोलाबारी। तूफान के थपेड़े हों या दुश्मनों की गोलियां, हर वार सीने पर झेलते हुए देश के कई सपूतों ने अपनी आहुति दी। शहीद होती आंखों में जिस भारत का सपना था, उसे पूरा करने की जिम्मेदारी अब मतदाताओं के कंधों पर है। विशेषकर युवाओं के। राजधानी के कई आंगन अपनी यादों में आज भी उन शहीदों के सपनों को संजोए हुए हैं। एक उम्मीद के साथ, कि जिस देश के लिए उनके लाल ने अपनी जान दे दी, उसके लिए इस देश के बेटे क्या एक वोट नहीं दे सकते?
परमवीर चक्र विजेता शहीद कैप्टन मनोज कुमार पांडेय (23) के पिता गोपीचंद पांडेय को तीन जुलाई 1999 की तारीख कभी नहीं भूलती। इसी दिन उन्हें बेटे की शहादत की सूचना मिली। चर्चा के बीच आंखों की नमी पोंछते हैं। यादों की पोटली टटोलते हुए कहते हैं कि मनोज को मतदान के सहारे व्यवस्था परिवर्तन पर पूरा भरोसा था। वह अक्सर कहता था कि देश और समाज की भाग्य विधाता जनता ही है। उसके हाथ में वोट की ताकत है, बस जरूरत है उसके सही इस्तेमाल की। कारगिल की पहली शहादत सुनील जंग (22) के रूप में 15 मई 1999 को हुई। 64 वर्षीय उनके पिता सूबेदार नर नारायण जंग अस्वस्थ हैं। खांसते हुए कहते हैं कि 19 को मतदान है, हर हाल में वोट डालने जाऊंगा। मेरे बेटे ने जिस देश के लिए सीमाओं पर पांच वर्ष लगातार जूझते हुए बिता दिए, उसके लिए मैं कुछ घंटे तो लाइन में खड़ा हो ही सकता हूं। एक वोट के सहारे बदलाव की उम्मीद शहीद नवनीत राय (22) के पिता दिनेश नारायण राय के सीने में भी है। कहते हैं कि बेटा स्वस्थ राजनीति को बदलाव का वाहक समझता था। छात्र राजनीति में भी सक्रिय रहा लेकिन सेना उसकी प्राथमिकता थी। कारगिल के दौरान कुपवाड़ा में 29 जनवरी 2001 में आतंकवादियों का सामना करते हुए शहीद हुआ। बेटे को याद करते हुए कहते हैं कि अन्ना हजारे के आंदोलन से उम्मीद बंधी है। उनको मिला समर्थन अगर भ्रष्टाचार के खिलाफ वोटों की शक्ल अख्तियार कर ले तो व्यवस्था की गंदगी दूर हो सकती है। शहीद परिवारों का कहना है कि बदलाव के लिए बंदूक उठाने की जरूरत नहीं, उसके लिए बस पोलिंग बूथ तक जाकर वोट करना ही काफी होता है।
लखनऊ, 15 फरवरी : मौसम की तमाम चुनौतियों के बीच लगातार हो रही गोलाबारी। तूफान के थपेड़े हों या दुश्मनों की गोलियां, हर वार सीने पर झेलते हुए देश के कई सपूतों ने अपनी आहुति दी। शहीद होती आंखों में जिस भारत का सपना था, उसे पूरा करने की जिम्मेदारी अब मतदाताओं के कंधों पर है। विशेषकर युवाओं के। राजधानी के कई आंगन अपनी यादों में आज भी उन शहीदों के सपनों को संजोए हुए हैं। एक उम्मीद के साथ, कि जिस देश के लिए उनके लाल ने अपनी जान दे दी, उसके लिए इस देश के बेटे क्या एक वोट नहीं दे सकते?
परमवीर चक्र विजेता शहीद कैप्टन मनोज कुमार पांडेय (23) के पिता गोपीचंद पांडेय को तीन जुलाई 1999 की तारीख कभी नहीं भूलती। इसी दिन उन्हें बेटे की शहादत की सूचना मिली। चर्चा के बीच आंखों की नमी पोंछते हैं। यादों की पोटली टटोलते हुए कहते हैं कि मनोज को मतदान के सहारे व्यवस्था परिवर्तन पर पूरा भरोसा था। वह अक्सर कहता था कि देश और समाज की भाग्य विधाता जनता ही है। उसके हाथ में वोट की ताकत है, बस जरूरत है उसके सही इस्तेमाल की। कारगिल की पहली शहादत सुनील जंग (22) के रूप में 15 मई 1999 को हुई। 64 वर्षीय उनके पिता सूबेदार नर नारायण जंग अस्वस्थ हैं। खांसते हुए कहते हैं कि 19 को मतदान है, हर हाल में वोट डालने जाऊंगा। मेरे बेटे ने जिस देश के लिए सीमाओं पर पांच वर्ष लगातार जूझते हुए बिता दिए, उसके लिए मैं कुछ घंटे तो लाइन में खड़ा हो ही सकता हूं। एक वोट के सहारे बदलाव की उम्मीद शहीद नवनीत राय (22) के पिता दिनेश नारायण राय के सीने में भी है। कहते हैं कि बेटा स्वस्थ राजनीति को बदलाव का वाहक समझता था। छात्र राजनीति में भी सक्रिय रहा लेकिन सेना उसकी प्राथमिकता थी। कारगिल के दौरान कुपवाड़ा में 29 जनवरी 2001 में आतंकवादियों का सामना करते हुए शहीद हुआ। बेटे को याद करते हुए कहते हैं कि अन्ना हजारे के आंदोलन से उम्मीद बंधी है। उनको मिला समर्थन अगर भ्रष्टाचार के खिलाफ वोटों की शक्ल अख्तियार कर ले तो व्यवस्था की गंदगी दूर हो सकती है। शहीद परिवारों का कहना है कि बदलाव के लिए बंदूक उठाने की जरूरत नहीं, उसके लिए बस पोलिंग बूथ तक जाकर वोट करना ही काफी होता है।
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