Wednesday, 15 February 2012

क्या आप एक वोट नहीं दे सकते ?

रणविजय सिंह 
लखनऊ, 15 फरवरी : मौसम की तमाम चुनौतियों के बीच लगातार हो रही गोलाबारी। तूफान के थपेड़े हों या दुश्मनों की गोलियां, हर वार सीने पर झेलते हुए देश के कई सपूतों ने अपनी आहुति दी। शहीद होती आंखों में जिस भारत का सपना था, उसे पूरा करने की जिम्मेदारी अब मतदाताओं के कंधों पर है। विशेषकर युवाओं के। राजधानी के कई आंगन अपनी यादों में आज भी उन शहीदों के सपनों को संजोए हुए हैं। एक उम्मीद के साथ, कि जिस देश के लिए उनके लाल ने अपनी जान दे दी, उसके लिए इस देश के बेटे क्या एक वोट नहीं दे सकते? 
           परमवीर चक्र विजेता शहीद कैप्टन मनोज कुमार पांडेय (23) के पिता गोपीचंद पांडेय को तीन जुलाई 1999 की तारीख कभी नहीं भूलती। इसी दिन उन्हें बेटे की शहादत की सूचना मिली। चर्चा के बीच आंखों की नमी पोंछते हैं। यादों की पोटली टटोलते हुए कहते हैं कि मनोज को मतदान के सहारे व्यवस्था परिवर्तन पर पूरा भरोसा था। वह अक्सर कहता था कि देश और समाज की भाग्य विधाता जनता ही है। उसके हाथ में वोट की ताकत है, बस जरूरत है उसके सही इस्तेमाल की। कारगिल की पहली शहादत सुनील जंग (22) के रूप में 15 मई 1999 को हुई। 64 वर्षीय उनके पिता सूबेदार नर नारायण जंग अस्वस्थ हैं। खांसते हुए कहते हैं कि 19 को मतदान है, हर हाल में वोट डालने जाऊंगा। मेरे बेटे ने जिस देश के लिए सीमाओं पर पांच वर्ष लगातार जूझते हुए बिता दिए, उसके लिए मैं कुछ घंटे तो लाइन में खड़ा हो ही सकता हूं। एक वोट के सहारे बदलाव की उम्मीद शहीद नवनीत राय (22) के पिता दिनेश नारायण राय के सीने में भी है। कहते हैं कि बेटा स्वस्थ राजनीति को बदलाव का वाहक समझता था। छात्र राजनीति में भी सक्रिय रहा लेकिन सेना उसकी प्राथमिकता थी। कारगिल के दौरान कुपवाड़ा में 29 जनवरी 2001 में आतंकवादियों का सामना करते हुए शहीद हुआ। बेटे को याद करते हुए कहते हैं कि अन्ना हजारे के आंदोलन से उम्मीद बंधी है। उनको मिला समर्थन अगर भ्रष्टाचार के खिलाफ वोटों की शक्ल अख्तियार कर ले तो व्यवस्था की गंदगी दूर हो सकती है। शहीद परिवारों का कहना है कि बदलाव के लिए बंदूक उठाने की जरूरत नहीं, उसके लिए बस पोलिंग बूथ तक जाकर वोट करना ही काफी होता है।

Monday, 13 February 2012

किसानों के खेतों पर वोटों की फसल


                                      रणविजय सिंह
लखनऊ, 12 फरवरी : गेहूं कट चुका था। किसान खरीफ की तैयारी में लगे हुए थे। इसी बीच एक खबर से किसानों के पैर ठिठक गए। कई अखबारों में लखनऊ औद्योगिक विकास प्राधिकरण के लिए सरोजनीनगर की जमीनों के अधिग्रहण की सूचना छपी। विरोध का स्वर मुखर भी नहीं हुआ था कि क्षेत्र में यह चर्चा आम हो गई कि जमीन न देने वाले किसानों से सरकार जबरन भूमि ले लेगी। फिर क्या था, आनन-फानन संगठन खड़ा हुआ और संघर्ष की रणनीति बन गई। सभी सियासी दलों से सहयोग मांगा गया। ऐन वक्त पर बसपा प्रत्याशी ने चुनाव की खेती में इस मुद्दे पर वोटों की फसल काटी। जीतकर विधानसभा पहुंचे, लेकिन मुड़कर पीछे नहीं देखा। किसान ठगे से रह गए। इन चुनावों में वह प्रत्याशी मैदान में नहीं हैं, लेकिन किसान उसी जगह खड़ा है।
छह वर्ष पहले (2006) प्रदेश सरकार ने लखनऊ औद्योगिक विकास प्राधिकरण के लिए जमीन अधिग्रहण का निर्णय लिया। इसके लिए लखनऊ और उन्नाव के करीब 90 गांवों के करीब 40,000 से ज्यादा किसानों की खेतिहर जमीन ली जानी थी। जानकारी मिलने पर किसानों के विरोध पर वार्ताओं का दौर शुरू हुआ। सरकार डीएम सर्किल रेट पर मुआवजा दे रही थी, जबकि किसान बाजार भाव चाह रहे थे। वार्ताओं में एक वर्ष बीत गया और इसी बीच विधानसभा चुनाव आ गया। प्रोजेक्ट समाजवादी पार्टी की सरकार में आया था लिहाजा बहुजन समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी इरशाद खां ने इसे मुद्दा बनाकर किसानों से 33 लाख रुपये प्रति बीघा दिलवाने का वादा किया। इसका असर भी हुआ, वे विधायक बन गए, लेकिन मुआवजा नहीं बढ़ा। पुरानी दरों पर ही अधिग्रहण के प्रयासों का किसानों ने एक बार फिर संगठित होकर विरोध किया। तमाम प्रयासों के बावजूद सरकार केवल कुडौनी ग्राम सभा की जमीन ही ले सकी है। इस विधानसभा चुनावों में एक बार फिर किसान इस मुद्दे पर संगठित हैं। उनके वोट परिणाम पर असर डालेंगे। इस बात से सभी दल परिचित हैं, लिहाजा पांच वर्ष तक किसानों से दूरी बनाने वाले नेता भी उनकी दहलीज पर चक्कर लगा रहे हैं। तमाम वादों और दावों के बीच किसान खामोश हैं। शायद उसके बंद लबों में छुपा फैसला ईवीएम मशीन के जरिए बाहर आए।
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औद्योगिक विकास से हमारा कोई बैर नहीं है, लेकिन सरकार और व्यवस्था में शामिल लोगों की नीयत पर विश्र्वास करना मुश्किल है। राजधानी के 70 प्रतिशत औद्योगिक इकाइयों में से ज्यादातर बंदी की कगार पर हैं। ऐसे में खेती योग्य जमीनों का अधिग्रहण वो भी औने पौने दामों पर नहीं होने देंगे। खेत देने के बाद रोजगार की भी व्यवस्था होनी चाहिए। 
मनोज सिंह, 
अध्यक्ष लखनऊ औद्योगिक विकास प्राधिकरण किसान संघर्ष समिति
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प्रभावित क्षेत्र
 बंथरा, नरकुर, तिनवर, कुडौनी, बीबीपुर, भावापुर, खसवारा, पहाड़पुर, वखतखेड़ा, सराय शाहजादी, दादूपुर, औरावां, रामचौरा, गढ़ी चुनौटी, भटकांव, बेती, हरौनी, लतीफ नगर, रहीमनगर, पडि़याना, बनी, मेमोरा समेत करीब सरोजनीनगर के 45 गांव।

Saturday, 11 February 2012

आपन वोट खराब तौ नाई करब

रणविजय सिंह 
लखनऊ, 9 फरवरी : सियासी दलों के वादों से ऊबे लेकिन गांव के विकास की आस नहीं टूटी। नेताओं पर भरोसा खत्म हुआ, लेकिन लोकतंत्र से विश्र्वास नहीं डिगा। 55 वर्ष पहले जिस विकास की आस में पहली बार वोट डाला था वह आज भी पूरी नहीं हुई। चुनाव दर चुनाव दल और प्रत्याशियों ने सड़क, बिजली, पानी के वादे किए और भूल गए। क्षेत्र की लगातार हुई उपेक्षा के बावजूद 74 वर्षीय रामअवतार को अपने वोट की ताकत पर भरोसा है। लड़खड़ाती हुई लेकिन उम्मीद भरी आवाज में कहते हैं वोट तो देनै है, आपन वोट खराब तौ नाइ करब..। बुजुर्ग रामअवतार सरोजनीनगर विधानसभा क्षेत्र स्थित मोहिनीखेड़ा के निवासी हैं। करीब पांच सौ की दलित आबादी वाले इस इलाके के लिए बिजली, पानी और सड़क आज भी किसी सपने से कम नहीं। शहरी क्षेत्र की सीट होने के बावजूद संपर्क मार्ग के नाम पर यहां कच्ची पगडंडी और जलापूर्ति के लिए केवल एक हैंडपंप है। गांव की जो सूरत 50 वर्ष पहले थी आज भी करीब-करीब वैसी ही है। आजादी के इन वर्षो में विकास से अछूता रहने वाला सरोजनीनगर का मोहिनीखेड़ा अकेला मजरा नहीं है। रहीमनगर पडि़याना के नेवाली खेड़ा, महेंद्र, त्रिलोचन खेड़ा और सैतापुर भी वर्षो से उपेक्षा का दंश झेल रहे हैं। हर मजरे की आबादी दो से पांच सौ है। जीत हार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बावजूद यह क्षेत्र लगातार उपेक्षित रहे, बावजूद इसके यहां मतदान को लेकर उत्साह में कोई कमी नहीं आयी। कानुपर रोड स्थित बदालीखेड़ा में विकास कार्यो की उपेक्षा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि स्थानीय निवासी इसे बदहाली खेड़ा कहने लगे हैं। दशकों बाद भी क्षेत्रवासियों को पक्की सड़क नसीब नहीं हुई। जो है वह गढ्डों और जलभराव में लगभग गायब सी हो चुकी हैं। वादों के बावजूद यहां सीवेज लाइन नहीं बिछ सकी। यही सूरत बल्दी खेड़ा और खेड़वा की भी है। पिछले 50 वर्षो में यहां एक सार्वजनिक शौचालय भी नहीं बन सका। यहां के निवासी खुले में शौच करने को मजबूर हैं। चारों तरफ कॉलोनियों से घिरे इन दोनों गांव पूरी तरह विकास से महरूम हैं। सई नदी के किनारे रौतापुर, बरबौता और सैदपुर पुरही में एक बार फिर विकास के नाम पर वोट मांगा जा रहा है। बुजुर्ग रामअवतार समेत इन क्षेत्रों के सभी नागरिक दल और प्रत्याशियों के वादों को शंका की निगाह से देख रहे हैं। इसके बावजूद दिल में कहीं वोट के सहारे बदलाव की उम्मीद बाकी है। मोहिनीखेड़ा के ज्यादातर मतदाताओं का कहना है वोट तो जरूरै देब, तबै त विकास होई।

तो क्या बड़े अस्पताल मरीज को भर्ती कर डकैती डालने पर आमादा हैं

समय रहते रजनीश ने अपने नवजात शिशु को अपोलो मेडिक्स से जबरन डिस्चार्ज न कराया होता तो मुझे आशंका है कि 15 से 20 लाख रूपए गंवाने के बाद भी अपन...