Friday, 25 January 2019

जड़ समेत बरगद के 4 टुकड़े किए, चारों से बनाए नए पेड़



(रणविजय सिंह, पार्ट टू, 23 दिसंबर 2018)

लखनऊ : 'आप जुर्माना लगा दीजिए या मशीन सीज करवा दें, मैं काम नहीं कर सकता...'। इतना कहते हुए सरदार जी क्रेन के ड्राइवर को साथ लेकर डिपो से बाहर निकल गए। 'सर... एक क्रेन पहले ही जमीन में धंस चुकी है। बड़ी तलाश के बाद कानपुर से किसी तरह क्रेनें मंगवाईं थीं। अब अगर ये भी चली गईं तो काम कैसे होगा? पेड़ भी एक-दो नहीं 900 से ज्यादा हैं'। पर्यावरण अभियंता ने यह कहते हुए चीफ इंजिनियर की तरफ मायूसी से देखा। सबको परेशान देख उद्यान अधिकारी बोले, एक उपाय है लेकिन...। चीफ इंजिनियर ने पूछा, लेकिन क्या? उद्यान अधिकारी बोले, 'यह तरीका इतने पुराने और वजनी पेड़ों पर कीाी इस्तेमाल नहीं हुआ। इसलिए गारंटी नहीं ले सकता पेड़ बचाया जा सकेगा।
डिपो से लेकर चारबाग तक 120 से 130 टन तक के पेड़ निकालकर दूसरी जगह लगाए जाने हैं। इन्हें बचाना भी है। इस कोशिश में डिपो के भीतर दो क्रेनें धंस चुकी हैं। इसके बाद कोई दूसरा क्रेन मालिक आने को तैयार नहीं। हमारी क्रेन 130 टन के पेड़ जड़ समेत उठाकर ले जाने में सक्षम नहीं हैं। चीफ इंजिनियर ने एक सांस में सारी परेशानी उद्यान अधिकारी के सामने रखते हुए उपाय बताने को कहा। उद्यान अधिकारी के उपाय पर किसी को यकीन नहीं हुआ कि इसके बाद पेड़ बचेगा भी या नहीं। कोई और रास्ता नहीं सूझने पर चीफ इंजिनियर ने बताए गए तरीके से काम करने की मंजूरी दे दी।

अनिष्ट की आशंका में छंटाई को तैयार नहीं थे कर्मचारी :
योजना पर काम शुरू भी नहीं हुआ था कि नई समस्या आ गई। सुपरवाइजर ने बताया कि अनिष्ट की आशंका में कोई भी कर्मचारी पीपल के पेड़ों की टहनियां काटने को तैयार नहीं है। बिना कुछ बोले चीफ इंजिनियर कर्मचारियों की तरफ चल पड़े। पीपल के पेड़ के पास जमीन पर बैठे कर्मचारी उन्हें देखते ही हाथ जोड़कर खड़े हो गए। चीफ इंजिनियर ने समझाया, 'आप लोग पीपल काट नहीं रहे, बल्कि उसे बचा रहे हैं। टहनी नहीं कटेगी तो पूरा पेड़ काटना पड़ेगा। बचाने के लिए हल्का किया जाना जरूरी है। इसके बाद निकालकर शनि मंदिर के पास लगाया जाएगा। पेड़ कटने से बचेगा पाप नहीं पुण्य मिलेगा'। कर्मचारियों को बात समझ आ गई और छंटाई शुरू हो गई। हालांकि बरगद को हटाना अब भी सिरदर्द बना हुआ था। डिपो से लेकर टीपी नगर और चारबाग के बीच तमाम ऐसे पेड़ थे, जिन्हें बिना काटे, दूसरी जगह लगाना चुनौती था।
पहली बार जड़ समेत पेड़ के टुकड़े कर बचाया
चीफ इंजिनियर की मंजूरी के बाद उद्यान अधिकारी ने वह काम शुरू किया जो अब तक केवल किताबों में पढ़ा था। टहनियां कटवाने के बाद पेड़ का वजन करीब 130 टन आंका गया। पेंड़ के तने का व्यास करीब सात फुट था। तने के एक मीटर दायरे में जड़ की तरफ जमीन पर निशान लगाया गया। इसके बाद आधे हिस्से में दो से तीन मीटर तक खोदाई की गई। इसके बीच आने वाली जड़ों को काटा जाता रहा और उन्हें बचाने के लिए प्लांट हार्मोंस ऑक्सिन का लेप लगाया जाता रहा। इसमें 15 दिन लगे। इसके बाद यही कवायद बचे आधे हिस्से में की गई। चारों तरफ से जड़ समेत खोदाई होने और कटी जड़ों पर हार्मोंस के लेप के बाद बोरी से बांधकर 5 से 10 दिन के लिए छोड़ दिया गया। इसके बाद इस तने को ऊपर से लंबाई में जड़ तक चार टुकड़े में काटा गया। सभी हिस्सों पर प्लांट हार्मोंस ऑक्सिन का लेप किया गया। इसके बाद सामान्य क्रेन से टुकड़ों को डिपो की बाउंड्री के पास पहले से बनाए गए गड्ढे में लगाया गया। करीब छह महीने तक देखभाल की गई और चारों टुकड़े नए पेड़ बन गए।

डर के आगे जीत है :
पहले जिस पेड़ को बचाना मुश्किल लग रहा था, वहीं चार जगह हरियाली फैला रहा है। चीफ इंजीनियर समेत डिपो में मौजूद अधिकारियों के लिए भी यह किसी अजूबे से कम नहीं था। इसके बाद चीफ इंजिनियर ने उद्यान अधिकारी और वन अधिकारी को बुलाकर पूछा 'यह बताओ कि तुमने पहले से ही योजना बना ली थी या मौके का इंतजार कर रहे थे'। वन अधिकारी ने मुस्कुराते हुए कहा कि पहले ही सर्वे कर पेड़ों की नम्बरिंग कर ली थी। इसमें पेड़ों की उम्र, प्रजाति और मौसम देखकर दूसरी जगह लगाने की संभावनाओं को भी परख लिया था। कुछ देर चुप रहने के बाद चीफ इंजिनियर की तरफ रिपोर्ट बढ़ाते हुए कहा, इस प्रॉजेक्ट में टीपीनगर डिपो से चारबाग तक के रूट में 981 पेड़ काम के आड़े आ रहे थे। इनमें पीपल, बरगद, कचनार, मौलश्री, चितवन, टीक, कंजी और सेमल जैसे पेड़ थे। सभी पेड़ों को बचा लिया गया।

जरा सी चूक से उड जाती टीपी नगर की सड़क और ग्रीन गैस पंप

(रणविजय सिंह, पार्ट थ्री, 27 दिसंबर 2018)
आप समझ नहीं रहे हैं... रिग मशीन का जरा सा झटका लगेगा और टीपी नगर से अमौसी तक की ब्लास्ट होने लगेंगे। आसपास की इमारतें भी गिर सकती हैं... पूरे लखनऊ की सप्लाई ठप हो जाएगी सो अलग... फैसला आप लोगों को लेना है। इतना सुनते ही एलएमआरसी टीम के साथ आए आला अधिकारी सकते में आ गए... पूछा, 'क्यों भाई? क्या नीचे बारूद बिछा हुआ है'। अफसरों के चेहरे पर प्रॉजेक्ट लेट होने की आशंका और समय पर काम पूरा करने का दबाव साफ झलक रहा था। मामले को संभालने की कोशिश करते हुए साइट पर मौजूद इंजिनियर ने जवाब दिया...'सर, बारूद नहीं, लेकिन ग्रीन गैस की पाइप लाइन बिछी है, जो अमौसी के पंप से जुड़ी है। इसी लाइन से पूरे लखनऊ में ग्रीन गैस की सप्लाई होती है...। हमारी पाइलिंग ठीक इसके ऊपर है, रिग मशीन एक बार में जमीन के नीचे एक से डेढ़ मीटर तक खोद देती है...ऐसे में मशीन दायरे में आने पर ग्रीन गैस की पाइप का फटना तय है'।
इतना बोलकर इंजीनियर चुप हो गए और चारों तरफ सन्नाटा छा गया। चुप्पी तोड़ते हुए एलएमआरसी टीम के साथ आए अफसर ने लगभग चीखते हुए पूछा, ...तो इस पाइप लाइन को अब तक हटवाया क्यों नहीं गया? इस सवाल पर इंजिनियरों का जवाब सुनकर अफसरों के होश उड़ गए। उन्होंने कहा जमीन के नीचे पाइपों में ग्रीन गैस भरी हुई है, एजेंसी इसे शिफ्ट करने की मंजूरी देने को तैयार नहीं है, पाइप लाइन कितनी गहरायी पर है? यह भी उन्हें नहीं पता। पाइपों में गैस की मात्रा और लोकेशन भी एजेंसी साझा करने को तैयार नहीं है। इतना कहकर एक बार फिर इंजिनियर समाधान की आस में अफसरों का चेहरा देखने लगे। कुछ देर सोंचकर अफसरों ने एहतियात के साथ खोदायी के विकल्प पर विचार करते हुए पूछा कि हादसा होने पर बचाव के उपाय क्या हैं? जवाब मिला कि ग्रीन गैस की तरफ से ऐसे टिप्स या उपाय बताने में भी असमर्थता जता दी गई है। इतना सुनने के बाद टीपी नगर स्टेशन का काम अटकने की आशंका में अफसरों के चेहरे का रंग ही उड़ गया...।
नहीं हारे हिम्मत
ग्रीन गैस के साथ सामंजस्य के सारे रास्ते बंद होने के बाद सिविल इंजिनियरों की टीम ने समाधान का उपाय खोजना शुरू किया। चीफ इंजिनियर और अधिकारियों की घंटों की माथापच्ची के बाद तय हुआ कि अगर ग्रीन गैस की तरफ से पाइप लाइन की लोकेशन नहीं मिल रही तो एलएमआरसी खुद खोजेगा। इसके बाद भी समस्या का पूरा समाधान नहीं हुआ, क्योंकि लोकेशन मिलने के बाद भी पाइप लाइन हटाने के लिए ग्रीन गैस ने एनओसी देने से इनकार कर दिया। लेकिन कहते हैं कि जहां चाह वहां राह। एलएमआरसी ने भी काम करने की ठान ली थी। एक बार फिर मेट्रो ने ग्रीन गैस के अफसरों से बात करने पर डिजाइन और जमीन के नीचे पाइप लाइन की पहचान करने वाला लोकेटर मुहैया करवा दिया गया। हालांकि इस मशीन से भी जमीन के नीचे केवल दो मीटर तक की ही जानकारी मिल पा रही थी। ऐसे में जेसीबी से जमीन को दो मीटर तक खोदने के बाद गड्ढा बनाया गया। इसके बाद उसमें लोकेटर रखकर पाइप का पता लगाया गया और पाइप लाइन मिलने तक रिग मशीन के बजाय कर्मचारियों से करवाई।
ब्रिज तकनीक
एलएमआरसी टीम और सिविल इंजिनियरों ने समाधान के तौर जमीन के नीचे ब्रिज तकनीक का इस्तेमाल कर पाइलिंग करने का फैसला किया गया। देश के शायद ही किसी दूसरे मेट्रो प्रॉजेक्ट में इस तकनीक से पाइलिंग हुई होगी, लेकिन विवाद से बचते हुए समय पर काम करने के लिए दूसरा कोई चारा भी नहीं था। जमीन के नीचे 25 मीटर गहरायी तक पाइलिंग की गई लेकिन ग्रीन गैस के पाइप वाले हिस्से के चारों तरफ ब्रिज तकनीक के जरिए खाली छोड़ दिया गया। इसके लिए पाइलिंग के मूल डिजाइन में आंशिक बदलाव किया गया।

दलदली जमीन पर सैकड़ों टन की मशीनें चला डिपो बनाने की थी चुनौती

(रणविजय सिंह, पार्ट वन, 20 दिसंबर 2018)

लखनऊ: 'एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा' बुदबुदाते हुए मेट्रो डिपो के चीफ इंजिनियर हाथ बांधकर इधर से उधर टहलने लगे। उन्हें परेशान देख इंजिनियरों से चुप नहीं रहा गया। वे पूछ बैठे, 'क्या हुआ सर? अब क्या समस्या आ गई?' यह सुनकर चीफ इंजिनियर ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया 'अभी पता चला है कि डिपो के लिए जो जमीन मिली है, उसका बड़ा हिस्सा दलदली है। सैकड़ों टन की मशीनें उसके आसपास भी गईं तो जमीन भी धंस जाएगी।'
'पूरी तरह से खाली जमीन पर डिपो बनाने में औसतन दो साल लगता है, लेकिन हमें एक साल में काम पूरा करना है। इसके बावजूद हमें पीएसी की वह जमीन दी गई है, जिस पर पहले से स्कूल, मकान, मंदिर और ऑफिस बने हैं। इन्हें भी एक तरफ से तोड़ने के बजाय हमें पीएसी के लिए ये इमारतें दूसरी जगह बनाकर देनी हैं। इसके बाद यहां लगे पेड़ों को भी काटने के बजाय उन्हें जड़ समेत निकालकर दूसरी जगह लगाना है। यह सब करते हुए भी दो साल का काम हम एक साल में करने की तैयारी कर रखी थी लेकिन...'। एक सांस में ही यह सब बताने के बाद चीफ इंजिनियर कुछ देर रुके और फिर बोले, '...और अब पता चल रहा है कि जमीन भी दलदली है।'
डिपो की डिजाइन में बदलाव कर अहम इमारतों को जमीन के दलदली हिस्से के बजाय दूसरी जगह शिफ्ट किया जा सकता था, लेकिन उसके लिए भी समय नहीं था। इस बीच 15 जून 2015 को काम शुरू करने का ऐलान हो गया। एक सप्ताह तक सोच-विचार के बाद हुई बैठक में अचानक चीफ इंजिनियर आए और बोले 'डिजाइन के मुताबिक जिस जमीन पर जो इमारत बननी है, वह वहीं बनेगी।' इससे पहले कि कोई कुछ समझता, उन्होंने जमीन का जियोलॉजिकल सर्वे करवाने के अलावा तहसीलदार और इंजिनियरों को जमीनों की दोबारा पैमाइश करने को कहा।
अगले दिन चीफ इंजिनियर के दफ्तर पहुंचने से पहले ही टेबल पर पूरी रिपोर्ट पड़ी थी। साथी इंजिनियरों के बीच उन्होंने बुदबुदाते हुए रिपोर्ट पढ़ी, '46 एकड़ कुल जमीन में से नौ एकड़...' इतना सुनते ही सामने बैठे इंजिनियर ने कहा, 'मतलब करीब 20 फीसदी जमीन तो दलदली ही है। रिपोर्ट दोबारा टेबल पर रखते हुए उन्होंने 15 दिन के भीतर दलदली हिस्से की खोदाई कर वहां बालू से भरने को कहा। इसके बाद जेसीबी लगाकर 15 दिन में दलदली जमीन की खोदाई की गई और 30 ट्रक से ज्यादा बालू भरी गई। फिर कच्ची मिट्टी डाली गई। इसके बाद भी डिपो में रिसीविंग सब स्टेशन के लिए तय जमीन इतनी मजबूत नहीं हो सकी कि वहां भारी मशीनें चढ़ाई जा सकें।
अब क्या करें? साथी इंजीनियरों के इस सवाल पर चीफ इंजिनियर ने कहा, 'अब इस पूरी जमीन पर कंक्रीट पाइलिंग करनी होगी। 5000 वर्ग फुट से ज्यादा क्षेत्रफल में कंक्रीट की चादर बिछानी पड़ेगी।' यब सुनकर बगल में खड़े इंजिनियर बोल पड़े, '...लेकिन यह तकनीक तो एलेवेटेड रूट पर पिलर्स को मजबूती देने में इस्तेमाल होती है। आज तक किसी भी मेट्रो प्रॉजेक्ट के डिपो में इसका इस्तेमाल नहीं सुना।' इसके बाद काम शुरू हुआ और एक महीने बाद पूरे डिपो में अफसरों ने सैकड़ों टन की मशीनों को दौड़ते देखा। प्रॉजेक्ट में देरी की आशंका से घबराए इंजिनियरों को काम होने के बाद चीफ इंजीनियर ने बुलाया और बोले कि 'मैं न कहता था कि ऐसा कुछ नहीं जो इंजिनियर न बना सके।' इतना सुनते ही सबके चेहरे पर मुस्कान बिखर गई।

तो क्या बड़े अस्पताल मरीज को भर्ती कर डकैती डालने पर आमादा हैं

समय रहते रजनीश ने अपने नवजात शिशु को अपोलो मेडिक्स से जबरन डिस्चार्ज न कराया होता तो मुझे आशंका है कि 15 से 20 लाख रूपए गंवाने के बाद भी अपन...