Friday, 30 December 2011

रिश्ता खतम

लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र संघ भवन में एक कैंटीन है. मोटाराम की कैंटीन. मोटाराम गल्ले पर बैठे हों तो कोई रिश्ता नहीं मानते. दूकान के भीतर केवल ग्राहक और दुकानदार का रिश्ता. ग्राहक यहाँ चाय से ज्यादा उसकी मसखरी सुनने आते है.
खैर दिन भर इधर उधर की मगजमारी के बाद मै, दिवस चतुर्वेदी और कुछ मित्र मोटाराम की दूकान पर पहुचे. कुछ सोच कर हम लोग दूकान के बाहर रुके और वहीँ चाय मांगा ली. मोटाराम ने तिरछी नजर से देखा और कातिल मुस्कान फेकते हुए बोला अरे पैसा कोन देगा. इतना सुनते ही दिवस भाई उग्र हो गए. 'क्यों बे मोटा, मैंने तुम्हारा पैसा कम मारा है.' इतना सुनते ही मोटा दूकान से बहार आ गया. दिवस को गले लगाकर बोला 'अरे भैया तुम्हे थोड़े कह रहे थे.ये तुम्हारे साथ (मेरी तरफ इशारा करते हुए) जो घुच घुच आये है इनसे कह रहे थे.' बात खतम नहीं हुई की नौकर चाय ले आया. सबने पी तो मोटा को भी जबरदस्ती पिलाई गयी. हसी खुशी के बीच चाय खतम हुई तो सबसे बड़ा सवाल खडा हो गया. वही पुराना सवाल की पैसा कोन देगा. काफी सोच विचार के बाद सबने मेरी तरफ देखते हुए कहा की जो सबसे सीनीयर वही पैसा देगा. यह सुनते ही मोटाराम भी खुशी से झूम उठा. लेकिन थोड़ी देर में उसकी खुशी गायब हो गयी. मैंने कहा की सबसे सीनीयर तो मोटाराम है, और इस समय गल्ले पर भी नहीं है. दूकान के बाहर सबके साथ चाय भी पिए है, इसलिए पैसा मोटाराम ही देंगे. इतना कहते हुयी हम लोग मोटाराम को हमेशा की तरह चीखता हुआ छोड कर चल दिए. जब मोटा को लगा की हम लोग रुकेंगे नहीं तो रिश्ते की दुहाई देते हुए बोला 'पैसा दिए बिना जावोगे तो आज से रिश्ता खतम'. इस पर हम सबने लगभग एक साथ कहा 'ठीक है आज का रिश्ता खतम कल नए रिश्ते के साथ...'

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