Sunday, 20 December 2020

तो क्या बड़े अस्पताल मरीज को भर्ती कर डकैती डालने पर आमादा हैं

समय रहते रजनीश ने अपने नवजात शिशु को अपोलो मेडिक्स से जबरन डिस्चार्ज न कराया होता तो मुझे आशंका है कि 15 से 20 लाख रूपए गंवाने के बाद भी अपने बच्चे के जीवन को ना बचा पाता... रजनीश की आपबीत सुनकर मुझे यह भी आशंका होने लगी कि उसके बच्चे को वास्तव में कोई दिक्कत हुई थी, या फिर महज वसूली के लिए उसे बड़े अस्पतालों ने अपना जरिया बनाया था... घटनाक्रम ऐसा है जिसे सुनने के बाद आप भी यह सोंचने पर मजबूर हो जाएंगे कि क्या कथित तौर पर बड़े अस्पताल इलाज के नाम पर मरीज भर्ती कर तीमारदारों की जेब पर डकैती डालने पर आमादा हो गए हैं? 

मेरे बचपन के दोस्त रजनीश की पत्नी पिछले महीने अवध हॉस्पिटल में भर्ती हुईं। जिनका लगातार इलाज डॉक्टर मिताली दास साहा चल रहा था,  गर्भावस्था के दरम्यान हुए सभी टेस्ट में सब कुछ नॉर्मल था। ऑपरेशन होने तक सब नॉर्मल था और सर्जरी के बाद पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। इसके तुरंत बाद अचानक अस्पताल प्रबंधन ने बच्चे को दिक्कत होने की सूचना दी। बच्चे को पहले सीपैप ऑक्सीजन में रखा और फिर एनआईसीयू में भर्ती कर दिया। पूछने पर कोई ठोस वजह या दिक्कत बताने के बजाय केवल इतना ही बताते थे कि बच्चे की हालत काफी गंभीर है। कर्मचारी रजनीश को दवाओं, इंजेक्शन और सिरिंज की पर्ची पकड़ाते और हजारों रूपए की दवाएं अस्पताल के ही दवा काउंटर से खरीद कर भीतर भिजवा दी जातीं। दो दिन बाद डॉक्टरों ने कहा कि अब बच्चा सांस खींच नहीं पा रहा। ऐसे में इससे ज्यादा देर तक बच्चे को ऑक्सीजन पर नहीं रख सकते उसे वेंटीलेटर पर रखना होगा। शाम को रजनीश ने बहुत परेशान होते हुए मुझे फोन किया। उसने पूरी बात बताते हुए केजीएमयू या पीजीआई में कुछ जुगाड़ करने  बात की किया। मैने अपने करीबी दोस्त दिवस चतुर्वेदी को फोन किया। ऐरा मेडिकल कॉलेज में वेंटीलेटर की सुविधा है और वहां नवजात शिशुओं के विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो़ श्रीश भटनागर दिवस के परिचित हैं। मैने दिवस के जरिए उनसे बात की लेकिन पता
चला कि एरा मेडिकल कॉलेज को सरकार कोविड के लिए आरक्षित कर रखा है। ऐसे में नवजात शिशु को वहां भर्ती नहीं किया जा सकता। इसके बाद मैने अपने साथी जीशान से रात सात बजे बात की और केजीएमयू या पीजीआई में एक बच्चे को वेंटीलेटर पर भर्ती कराने का अनुरोध किया। जीशान ने केजीएमयू में बात की लेकिन वहां डॉक्टरों ने अगले दिन सुबह तक वेंटीलेटर खाली होने की उम्मीद जताते हुए करीब 10 बजे बच्चे को लाने का विकल्प  दिया। रजनीश को बताया तो उसने हामी भर दी। यह बात रजनीश ने अवध अस्पताल के डॉक्टरों को भी बता दी। इस बीच रात एक बजे अचानक अवध प्रबंधन (डॉ. जया भवनानी) बच्चे की हालत बहुत खराब होने की बात कहते हुए लगभग हाथ खड़े कर दिए और कारण यह बताया गया कि अवध हॉस्पिटल में बच्चों का वेंटिलेटर नहीं है वेंटिलेटर वाली एंबुलेंस  भी नहीं है इसलिए  उसे सहारा अस्पताल या अवध अस्पताल के ही पास बने नए अपोलो मेडिक्स में ले जाने की सलाह दी। इतनी (02:00am) रात किसे फोन करें, किसकी सलाह लें, किससे मदद मांगे? अवध हॉस्पिटल का  लगभग एक से डेढ़ लाख रुपए का बिल देने के बाद डिस्चार्ज कर बच्चों की डॉक्टर  (डॉ. जया भवनानी) सलाह पर रजनीश ने अपने नवजात बच्चे को अपोलो मेडिक्स में भर्ती करा दिया। बाद में कुछ लोगों ने बताया कि अवध हॉस्पिटल और अपोलो हॉस्पिटल प्रबंधन के बीच मरीजों को लेकर तालमेल है। कई विभागों के डॉक्टर भी दोनों जगह एक ही हैं। वहां पहुंचकर पता चला कि एक दिन की फीस इनके सारे चार्जेस मिलाकर है लगभग ₹100000 पड़ेगी। दूसरे दिन ही पैसा जमा करने के बाद इलाज कर रहे डॉक्टर से बात करने की इच्छा जतायी तो पता चला कि गलियारे में चलते हुए बात हो सकती है। रजनीश राजी हो गया तो उसे बताया गया कि उसके लिए भी कंसल़्टेंसी फीस जमा करनी पड़गी। चिंता, परेशानी और गुस्से को काबू में करते हुए रजनीश ने फीस भरी। इसके बाद चलते हुए डॉक्टर से बच्चे के बारे में पूछा तो डॉक्टर साहब (बच्चों के डॉ. निरंजन कुमार सिंह ) ने बताया कि बच्चे की हालत काफी खराब है। जांच के लिए एक सैंपल भेजा है जिसकी रिपोर्ट 10-15 दिन में आएगी। तब तक बच्चे को वेंटीलेटर पर ही रखना पड़ेगा। इतना कह डॉक्टर चले गए और रजनीश  गलियारे में खड़ा कांपते पैरों से वो बाहर आकर कुर्सी पर बैठा और उसके बाद लगा जैसे शरीर की सारी ताकत खतम हो गई। उठने का मन ही नहीं कर रहा था। बैठे बैठे सोंचने लगा  एक दिन का खर्च एक लाख और बच्चे को 15 -20 दिन रखना होगा  यानी कम से कम 15-20 लाख का खर्चा करने के बाद भी बच्चा बचेगा या नहीं? इसकी डॉक्टर  कोई गारंटी नहीं ले रहा। क्या करें क्या करें?  दिमाग ने काम करना बंद कर दिया...

इसी बीच जैसे भगवान ने मदद भेजना शुरू कर दिया। बडी बहन पूर्णिमा हाईकोर्ट में कार्यरत हैं। भाई की दिक्कत का जिक्र उन्होंने हाईकोर्ट में कार्यरत शैलेंद्र यादव जी से किया। शैलेंद्र जी ने अपने छोटे भाई जीतू यादव से बात की  जिनका स्वास्थ्य विभाग में अच्छा परिचय है अपने परिचित डॉ़  से फोन कर परामर्श किया तो पता चला कि इंदिरा नगर में (नेलसन हॉस्पिटल ,कपूरथला) डॉ़ अजय कुमार मिश्रा ऐसे मामलों के जानकार हैं। इसके बाद फोन पर डॉ़ मिश्रा से बात हुई तो उन्होंने बहुत ही सकारात्मक तरीके से बच्चे को लाने को कहा। इसके बाद रजनीश ने अपने रिस्क पर बच्चे को ओपोलो से डिस्चार्ज कराकर डॉ़ मिश्रा के पास ले गया। उन्होंने बच्चे को वेंटीलेटर पर रख इलाज शुरू किया। चार घंटे बाद ही बच्चे की हालत में सुधार देखते हुए उन्होंने उसे वेंटीलेटर से हटाकर ऑक्सीजन पर वापस ले लिया और 10 घंटे बाद बच्चे की हालत में इतना सुधार हो गया कि उसे ऑक्सीजन की जरूरत भी नहीं रही। बच्चा अपने आप सामान्य तरीके से सांस लेने लगा। इसके बाद एहतियातन डॉ़ मिश्रा ने बच्चे को 10 दिन तक अपनी निगरानी में रखा और 11वें दिन उसे डिस्चार्ज किया। रजनीश को इस पूरे 11 दिनों की कुल फीस जमा करनी पड़ी महज 60 हजार रूपए… 

अब सोंचिए जिस बच्चे के इलाज में अपोलो अस्पताल हर रोज एक लाख फीस जमा करा रहा था और जिंदगी बचने की गारंटी भी लेने को तैयार नहीं था। उसी बच्चे को महज एक दिन में ठीक कर 10 दिन भर्ती रखकर एक डॉक्टर ने महज 60 हजार रूपए में इलाज कर दिया इसे क्या कहेंगे? या तो इस मामले में अपोलो मेडिक्स के विशेषज्ञ इस मामले में मर्ज पकड़कर सही इलाज करने में फेल रहे या फिर इलाज जानते हुए भी वो जबरन मामले को उलझाकर वसूली कर रहे थे या फिर रजनीश अपने बच्चे को बड़े अस्पताल से निकालकर जिन दूसरे डाक्टर साहब के पास ले गए वहां चमत्कार हो गया…

Saturday, 10 October 2020

अमेरिका में रजिस्ट्रेशन के बिना भारत में ही भारतीय कंपनियों से खरीद नहीं

मेक इन इंडिया पर भरोसा कर सस्ते, टिकाऊ और उपयोगी मेडिकल उपकरण बनाने वाली भारतीय कंपनियों के सामने यूपी में नई समस्या खड़ी हो गई है। जिलों के सीएमओ इन कंपनियों से तब तक सामान खरीदने को तैयार नहीं है जब तक ये अमेरिका के यूएस एफडीए से रजिस्ट्रेशन नहीं करवा लेते। अब ये कंपनियां उत्पाद तो बना सकती हैं लेकिन अमेरिका में जाकर यूएस एफडीए से रजिस्ट्रेशन की औपचारिकताएं कैसे करवाएं? उप्र के मेडिकल हेल्थ् एंड फैमिली वेलफेयर विभाग को सौंपे गए शिकायती पत्र और दस्तावेजों के मुताबिक पिछले साल ही यूएस एफडीए के रजिस्ट्रेशन समेत अनावश्यक शर्तों की अनिवार्यता समाप्त कर दी थी। आरोप लग रहे हैं कि अफसर अपनी चहेती कंपनियों से दो गुना कीमत पर उपकरण खरीदने के लिए इस शर्त को अब भी हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं।

            कोरोना संक्रमण के बीच यूपी में मेडिकल उपकरणों की खरीद फरोख्त में बड़े पैमाने पर गड़बड़ी के आरोप लग रहे हैं। ताजा मामला सेमी ऑटोमेटिक बायो केमिस्ट्री एनेलाइजर की खरीद का है। मेडिकल हेल्थ एंड फैमिली वेलफेयर को भेजी गई शिकायत के मुताबिक दर्जनों जिलों में यह उपकरण बड़ी मात्रा में खरीदा गया। जेम पोर्टल के जरिए यह खरीद हुई चौंकाने वाली बात यह है कि मेक इन इंडिया के तहत भारतीय कंपनियां यह उपकरण महज 77 हजार रूपए की दर से दे रही थीं जबकि अफसरों ने यही उपकरण डेढ़ लाख की दर से खरीदा। भारतीय कंपनियों को बाहर करने के लिए अफसरों ने अपने स्तर से तय कर लिया कि केवल उन्हीं कंपनियों से खरीद होगी, जिनके पास अमेरिका की यूएस एफडीए का रजिस्ट्रेशन नंबर होगा।  इसके बाद एक झटके में ही सभी भारतीय कंपनियां दौड़ से बाहर हो गईं और अफसरों ने दो गुना महंगी मशीनें खरीदीं। ऐसा करने वालों में प्रतापगढ़, हरदोई, आगरा, बदायूं, बरेली, मेरठ, शाहजहांपुर, अलीगढ़, उन्नाव, बुलंदशहर, मथुरा, कन्नौज, देवरिया और अम्बेडकर नगर समेत कई जिलों के नाम आ रहे हैं। शिकायती पत्र के मुताबिक यूएस एफडीए का रजिस्ट्रेशन नंबर लेने के लिए अमेरिका जाकर वहां पांच से छह महीने दौड़भाग और औपचारिकताएं पूरी करना आसान नहीं है। ऐसे में अफसरों ने अपने चहेती कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए इस शर्त को लागू कर दिया है।

भारतीय लाइसेंस के बजाय अमेरिकी लाइसेंस पर भरोसा :
भारतीय कंपनियां सेंट्रल ड्रग स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन के मानकों पर खरी हैं उनके पास ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया का लाइसेंस भी है। इसके बावजूद यूपी का स्वास्थ्य महकमा इन एजेंसियों के मानक और लाइसेंस को अहमियत देने को तैयार नहीं है।

कॉमर्स एंड इंडस्ट्री मंत्रालय का आदेश् दरकिनार कर जोड़ी गई शर्त :
भारत सरकार के कॉमर्स एंड इंडस्ट्री विभाग की तरफ से पिछले साल 20 जून को जारी आदेश के मुताबिक अगर भारतीय कंपनियां आईसीएमआर, भारतीय कंपनियां सेंट्रल ड्रग स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन और ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया के मानकों को पूरा करती हैं तो अन्य किसी भी संस्था से रजिस्ट्रेशन की शर्त नहीं लगा सकती इसके बावजूद अफसर मनमानी पर आमादा हैं।

खरीद में गड़बड़ी की शिकायतें मिली थीं, जिसकी जांच चल रही है। हालांकि यूएस एफडीए को लेकर सामने आ रहे नए तथ्यों की पड़ताल की जाएगी। इस मामले में संबंधित सीएमओ से भी पूछताछ होगी। इंडस्ट्री विभाग की तरफ से पाबंदी हटाने के बावजूद शर्त लागू करने की जांच होगी।
डॉ़ डीएस नेगी, महानिदेशक

Monday, 7 September 2020

भारतीय कंपनियों को छोड़ चाइनीज कंंपनी से दो गुना महंगा ऐनेलाइजर खरीदा


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प्रतापगढ़ में पिछले सप्ताह ऑटोमेटेड हेमेटोलॉजी एनेलाइजर के लिए जेम पोर्टल पर ऑन लाइन टेंडर हुआ। इसमें अफसरों ने बेनेस्फेरा एच31 मॉडल को हरी झंडी दे दी। चौंकाने वाली बात यह है कि भारतीय कंपनियां ऐसा ही उपकरण महज डेढ़ लाख में देने को तैयार थीं लेकिन उन सभी को छोड़कर अफसरों ने चाइनीज कंपनी के इस उपकरण को हरी झंडी दे दी। वो प्रति उपकरण तीन लाख 30 हजार रूपए की दर से। यानी ढाई गुना महंगा। अफसरों ने चाइनीज कंपनियों पर यह मेहरबानी तब बरसाने का साहस किया जबकि भारत सरकार चाइनीज कंपनियों के उत्पादों को इस्तेमाल न करने का बकायदा सर्कुलर जारी कर चुकी है। अब भारतीय कंपनियों ने टेंडर में गड़बड़ी और चाइनीज कंपनियों के उपकरण दो गुना से ज्यादा कीमत पर खरीदे जाने की शिकायत मेडिकल हेल्थ एंड वेलफेयर डिपार्टमेंट के अलावा संबंधित जिलो के सीएमओ से भी कर दी है।

                शिकायत के मुताबिक प्रतापगढ़ में डेढ़ लाख के बजाय तीन लाख तीस हजार की दर से 24 ऑटोमेटेड हेमेटोलॉजी एनेलाइजर का ऑर्डर जारी कर दिया गया है। शिकायत करने वाली भारतीय कंपनी ट्रांसएशिया बायो मेडिकल लिमिटेड के मुताबिक डॉ लाल पैथोलॉजी से लेकर कोकिलाबेन अम्बानी हॉस्पिटल समेत देश की 50 हजार से ज्यादा पैथोलॉजी लैब में महज डेढ लाख में इस मशीन की सप्लाई कर रहे हैं। इसक बावजूद उनके प्रॉडक्ट को लेकर बोली लगाने वाले तीनों संस्थाओं को सीएमओ की कमिटी ने डिस्वालीफाई कर दिया। भारत के अलावा विदेशों में भी इतने कम रेट पर कोई उपकरण सप्लाई नहीं कर सकता। इसके बावजूद सिर्फ प्रतापगढ़ बल्कि कई जिलों में सीएमओ धड़ल्ले से यह मशीन तीन लाख तीस हजार के रेट से खरीद रहे हैं। वो भी तब जबकि इनके लिंक चाइना से हैं और भारत सरकार ने चाइनीज कंपनियों पर प्रतिबंध लगा रखा है।

 

तीन कंपनियां चयनित, तीनों के चाइनीज प्रॉडक्ट :

प्रतापगढ़ में चौंकाने वाली बात यह भी है कि अफसरों ने टेंडर में तीन बोलदाताओं को चुना। तीनों ने चाइनीज कंपनी के उपकरण बेनेस्फेरा के मॉडल एच31 को कोट किया। तीनों चयनित हो गए। भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के मुताबिक टेंडर में सफल होने के बाद भी अगर पता चल जाए कि चाइनीज कंपनी है तो ऑर्डर निरस्त किया जा सकता है। इसके उलट शिकायत के बावजूद अफसरों ने खरीद को हरी झंडी दे दी।

 

हर जिले में तीन नाम, तीनों में से एक चयनित :

शिकायत के मुताबिक शाहजहांपुर, बदायूं और प्रतापगढ़ समेत कई जिलों में जेम पोर्टल पर टेंडर के लिए सिलेक्ट होने वाली तीन कंपनियां डीएम एंटरप्राइजेजे, पार्श्वनाथ एंटरप्राइजेजे और सरस्वती एसोसिएट्स हैं। यह तीनों चाइनीज उपकरणों को लेकर बिड में शाामिल होती हैं। इनमें से एक को मंजूरी मिल जाती है।

 

जेम पोर्टल पर चाइनीज उपकरण हैं तो इसकी जिम्मेदारी सीएमओ की नहीं है। डेढ़ लाख में उपकरण वालों को तकनीकी परीक्षण में बाहर किया गया है। उन्हें कारण बताने की कोई वजह नहीं है। कमिटी ने डिस्क्वालीफाई किया है, इसकी जानकारी उन्हें हुई होगी।

डॉ़ अरविंद कुमार श्रीवास्तव, सीएमओ

प्रतापमगढ़

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यह खरीद पिछले साल दिसंबर में हुई थी। उपकरण चाइनीज हैं या नहीं, इसकी जांच करानी पड़ेगी। मैने अभी कुछ महीने पहले ही चार्ज लिया है। जेम पोर्टल पर किसी कंपनी को डिस्क्वालीफाइ करने में सीएमओ की कोई भूमिका नहीं होती।

डॉ़ यशपाल सिंह, सीएमओ

बदायूं

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हमने इस पूरे मामले की शिकायत यूपी मेडिकल हेल्थ एंड फैमिली वेलफेयर डिपार्टमेंट और सीएमओ से कर दी है। जब हम महज डेढ लाख में वही उपकरण दे रहे हैं तो अफसर तीन लाख तीस हजार में क्यों खरीद कर रहे हैं। हमारे प्रॉडक्ट को डिस्वालिफाई कर दिया गया लेकिन कोई कारण तक नहीं बताया जा रहा।

एलबी गौतम, जनरल मैनेजर

ट्रांसएशिया बायो मेडिकल लिमिटेड

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कई जिलों से इस तरह की शिकायतें रही हैं। मुझे भी शिकायत मिली है। दो तीन दिन पहले ही मैने ऐसे सभी जिलों के सीएमओ से रिपोर्ट मांगी है। रिपोर्ट मिलने के बाद ही तय होगा कि टेडर निरस्त करना है या नहीं। जानबूझकर गड़बड़ी साबित हुई तो अधिकारियों पर कार्यवाही भी होगी।

डॉ़ देवेंद्र नेगी, महानिदेशक

चिकित्सा स्वास्थ्य
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Sunday, 15 September 2019

आईटी चौराहे के लिए ढलवाया गया देश का पहला घुमावदर ‘यू गर्डर’

(रणविजय सिंह, मेट्रो पार्ट 14, 28 फरवरी 2019)

‘एलयू से आईटी कॉलेज के लिए सड़क 90 अंश पर घूमी है लेकिन जमीन से 12 मीटर ऊंचाई पर मेट्रो के लिए भी इतना ही तेज घुमावदार ट्रैक नहीं बिछाया जा सकता। चौराहे के एक तरफ आईटी कॉलेज है और दूसरी तरफ निजी डिवेलपर के अपार्टमेंट्स, लिहाजा इतनी जमीन भी नहीं है घुमाव (कर्व) कम किया जा सके।‘

साइट इंजिनियर की बात सुनकर चीफ इंजिनियर कभी एलयू से आईटी कॉलेज की तरफ प्रस्तावित ट्रैक का डिजाइन देखते तो कभी आईटी चौराहे के आसपास जमीन की रिपोर्ट। काफी विचार विमर्श और बैठकों के बाद भी आईटी चौराहे पर घुमावदार ट्रैक के लिए कोई उपाय नहीं सूझा। डिजाइन में बदलाव और आसपास की जमीनें अस्थायी तौर पर लेकर काम शुरू करने की तमाम कोशिशों के बावजूद यहां इतनी जमीन नहीं मिली कि 130 अंश से ज्यादा घुमावदार ट्रैक बनाया जा सके। समाधान का एक रास्ता खुला तो नयी समस्या खड़ी हो गई।

यू गर्डर तो सीधे ढलवाए गए हैं, उसे कैसे घुमाएंगे :
जमीन से 12 मीटर ऊंचाई पर मेट्रो ट्रैक के लिए आईटी कॉलेज चौराहे के एक तरफ बने पिलर की दूरी इसके दूसरी तरफ बने पिलर्स से 30 मीटर थी। आम तौर पर मेट्रो ट्रैक के लिए दो पिलर्स के बीच औसतन इतनी ही दूरी होती है और उसपर रखने के लिए इतना ही लंबा यू गर्डर ढलवाया जाता है। इंजिनियर ने पूछा कि कास्टिंग यार्ड में 30 मीटर लंबाई के ही यू गर्डर ढाले जा रहे हैं, जो एकदम सीधे होते हैं। ऐसे में चौराहे पर घुमावदार ट्रैक कैसे बिछाया जा सकेगा? इसका समाधान सुझाते हुए कास्टिंग यार्ड के प्रभारी ने जवाब दिया कि हम 10 10 मीटर के यू गर्डर तैयार कर सकते हैं, जिन्हें चौराहे के ऊपर घुमावदार तरीके से इंस्टॉल किया जा सकता है। इतना सुनते ही साइट इंजिनियर ने आपत्ति दर्ज कराते हुए कहा कि ‘चौराहे पर दो पिलर बनकर तैयार हैं, जिनके बीच 30 मीटर की दूरी है। ऐसे में 10 - 10 मीटर के यू गर्डर इंस्टॉल करने का फैसला हुआ तो हमें यहां सड़क पर इतनी ही दूरी पर दो नए पिलर बनाने होंगे, ऐसा हुआ तो सड़क का बड़ा हिस्सा मेट्रो के पिलर्स से घिर जाएगा, जिसपर ट्रैफिक विभाग से लेकर पीडब्लूडी की भी आपत्ति हो सकती है’

तो धुमावदार यू गर्डर ही क्यों ना ढलवा लिया जाए :
समाधान के लिए चीफ इंजिनियर ने मीटिंग बुलायी। इसमें कास्टिंग यार्ड के प्रभारी बार बार छोटे यू गर्डर ढलवाकर उन्हें नए पिलर्स बनाकर धुमावदार तरीके से इंस्टॉल करने की पैरवी करते रहे। इस बीच सिविल इंजिनियर इसपर सहमत नहीं दिख रहे थे। ऐसे में चीफ इंजिनियर ने पूछा कि पूरे 30 मीटर का घुमावदार यू गर्डर की ढलाई क्यों नहीं हो सकती? यार्ड के प्रभारी ने तुरंत जवाब दिया कि आज तक देश के किसी भी प्रॉजेक्ट में ऐसा यू गर्डर ना तो ढाला गया है और ना ही इस्तेमाल ही किया गया है। इसपर चीफ इंजिनियर ने सिविल वर्क से जुड़े इंजिनियरों से पूछा कि अगर ऐसा गर्डर मिल जाए तो उसका इस्तेमाल हो सकता है या नहीं? कुछ हिचकते हुए इंजिनियरों ने हामी भरी लेकिन चीफ इंजिनियर इस प्लान के सफल होने को लेकर इतने आश्वास्त थे कि उन्होंने तुरंत ही इस बारे में आला अधिकारियों से बात की और घुमावदार यू गर्डर की ढलायी शुरू हो गई। एक महीने के भीतर देश के पहले घुमावदार यू गर्डर तैयार हो गए और उन्हें आईटी चौराहे पर लगा भी दिया गया।

सबसे देर में शुरू हुआ और सबसे पहले बनकर तैयार हो गया

(रणविजय सिंह, मेट्रो पार्ट 13, 28 फरवरी 2019)

‘सर, बीरबल साहनी पुरावनस्पति संस्थान ( बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट) की तरफ से जमीन को लेकर अब तक एनओसी नहीं मिली है। उनकी हां, ना और देखेंगे के चक्कर में विवि मेट्रो स्टेशन का काम जमीन पर शुरू भी नहीं हो सका है, जबकि बाकी स्टेशन आधे से ज्यादा बनकर तैयार भी हो चुके हैं।‘ इससे पहले कि चीफ कोई जवाब देते साइट इंजिनियर ने अपनी बात पूरी करते हुए कहा ‘जल्द ही एनओसी नहीं मिली या हमने दूसरी योजना पर काम शुरू नहीं किया तो इस स्टेशन के चलते पूरा प्रॉजेक्ट लेट हो जाएगा।‘ पूरी बात सुनने के बाद चीफ इंजिनियर ने चिंतित स्वर में कहा ‘मुझे नहीं लगता कि बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट की जमीन हमें मिल सकेगी, शासन का दबाव जब तक काम करेगा, तब तक हमारा काम काफी पीछे जा चुका होगा। हमें दूसरी योजना पर ही काम करना होगा‘।

चीफ इंजिनियर ने आला अधिकारियों को ग्राउंड रिपोर्ट भेजकर जल्द फैसला लेने का अनुरोध किया। रिपोर्ट के मुताबिक डिजाइन में बदलाव कर मेट्रो के विवि स्टेशन को बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट के सामने से हटाकर एलयू के गेट नंबर तीन पर बनाया जाना था। शासन को हालात से अवगत कराते हुए लखनऊ युनिवर्सिटी प्रशासन से एनओसी मांगी गई। एलयू के मेन गेट (सिंह द्वार) से गेट नंबर चार तक सड़क की तरफ से चहारदीवार पहले ही मेट्रो निर्माण के लिए तोड़ी जा चुकी थी। ऐसे में एलयू ने गेट नंबर तीन पर स्टेशन के लिए भी जमीन देने में कोई संकोच नहीं जताया। एलयू से जमीन मिलने के बाद डिजाइन में बदलाव को भी मंजूरी मिल गई। जमीन मिलने के बाद भी विवि स्टेशन का काम देख रहे अधिकारी और इंजिनियरों के सामने इस रूट के बाकी स्टेशनों से पिछड़ने और जल्दी काम पूरा करने की चुनौती बनी हुई थी। चीफ इंजिनियर ने सबकी चिंताओं को दूर करते हुए ऐसी बात कही जिसपर किसी के लिए भी यकीन करना मुश्किल था। चीफ इंजिनियर बोले ‘चारबाग से मुंशीपुलिया के बीच सबसे पहले बनकर तैयार होने वाला स्टेशन विवि मेट्रो स्टेशन होगा’। साथी इंजिनियर ने चौंकते हुए पूछा ‘कैसे?’ चीफ इंजिनियर ने सधा हुआ जवाब दिया ‘अब तक गर्डर, से लेकर पीयर कैप तक अमौसी स्थ्ज्ञित कास्टिंग यार्ड से आता था, जिसमें 12 से 24 घंटे का समय लगता था लेकिन अब एलयू स्टेशन के सामने ही नया कास्टिंग यार्ड भी बनकर तैयार हो चुका है। ऐसे में विवि स्टेशन की जरूरत का हर सामान चंद कदम दूर इसी कास्टिंग यार्ड से मिलना है।’



नए कास्टिंग यार्ड ने बढ़ायी काम की तेजी :

मेट्रो के प्रियॉरिटी रूट (टीपी नगर सेचारबाग) का काम पूरा होने के बादअमौसी स्थित कास्टिंग यार्ड से चारबाग के आगे वाले मेट्रो रूट से काफी दूर पड़ रहा था। इस बीच विवि मेट्रो स्टेशन के लिए एलयू की जमीन मिलने के साथ ही काल्विन में चार हेक्टेयर जमीन पर नया कास्टिंग यार्ड भी बनकर तैयार हो गयाा। ऐसे में केडी सिंह बाबू स्टेडियम से लेकर मुंशीपुलिया तक के लिए गर्डर, पाइल और पियर कैप समेत जिन चीजों की आपूर्ति अमौसी स्थित कास्टिंग यार्ड से हो रहा था, वो अब काल्विन कॉलेज पर बने कास्टिंग यार्ड से होने लगा। इसका सबसे बड़ा फायदा विवि मेट्रो स्टेशन को मिला, क्योंकि इसके ठीक सामने ही नया कास्टिंग यार्ड था। ऐसे में निर्माण से जुड़ी हर चीज स्टेशन  के सामने से ही आ जाती थी। यही नहीं विवि की परीक्षाएं भी लगभग खतम हो चुकी थीं, लिहाजा अगले करीब चार से पांच महीने तक विवि कैंपस स्टूडेंट्स से खाली था। ऐसे में यहां 24 घंटे बिना किसी बड़ी बाधा के काम जारी रखने का मौका मिल गया।



सही साबित हुआ दावा :

एलयू की जमीन मिलना प्रॉजेक्ट के लिए काफी फायदेमंद साबित हुआ। यहां सिवाय चहारदीवारी के कुछ भी तोड़े बिना पाइलिंग के लिए बड़े पैमाने पर खाली जमीन मिल गई। यही नहीं सामने ही कास्टिंग यार्ड था, लिहाजा वहां से पाइलिंग, पाइल कैप और पियर कैप आसानी से पहुंचाए जाते रहे। नतीजा हुआ कि इस स्टेशन की खोदायी शुरू होने के वक्त जो स्टेशन 50 फीसदी बन चुके थे, उनकी फिनिशिंग होने से पहले ही विवि स्टेशन पूरी तरह से तैयार हो चुका था। विवि स्टेशन मार्च 2018 के पहले सप्ताह में बनना शुरू हुआ और इसी साल सितंबर के अंत तक बनकर तैयार हो गया।

पाइलिंग धंसने के बावजूद गोमती को रोका ना डायवर्ट किया, बना दिया विशेष पुल

(रणविजय सिंह, मेट्रो पार्ट 12, 17 फरवरी 2019)

'सर, हनुमान सेतु की तरफ गोमती में बन रही एक पाइल धंस गई...' मोबाइल पर हांफते हुए इंजिनियर ने चीफ इंजिनियर को यह सूचना दी। खबर मिलते ही चीफ इंजिनियर मौके पर पहुंचे। दूर से ही उन्हें दिख गया कि गोमती में पानी बढ़ा हुआ है। कुछ करीब पहुंचे तो नदी में एक तरफ धंसी हुई पाइल और उसके चारों तरफ उफनाती गोमती साफ दिखायी देने लगी।
चीफ इंजिनियर के मौके पर पहुंचते ही वहां पहले से मौजूद एलएमआरसी और कार्यदायी संस्था एलएंडटी के इंजिनियर भी जमा हो गए। चीफ इंजिनयर कभी धंसी हुई पाइल को देखते और कभी गोमती के उफान को। उन्हें परेशान देख साथी इंजिनियर ने गोमती की धारा रोककर या उसे डायवर्ट करने के बाद ही नए सिरे से पाइलिंग की मजबूरी बतायी। इसपर चीफ इंजिनियर ने ऐसा करने की मंजूरी ना मिलने की बात कह सबकी परेशानी बढ़ा दी। कुछ देर चुप रहने के बाद इंजिनियरों ने पूछा 'इस समय यह सबसे बड़ी दिक्कत है, बिना इसका समाधान खोजे काम आगे कैसे बढ़ेगा? एक बार यह दिक्कत दूर हो गई तो मवैया से दुर्गापुरी की तर्ज पर यहां भी विशेष पुल बनाने में दिक्कत नहीं आएगी'। पूरी बात सुनने के बाद चीफ इंजिनियर ने कहा 'गोमती पर पाइलिंग के बाद विशेष पुल बनाना भी आसान नहीं है। दुर्गापुरी में विशेष पुल सीधा बनाया जाना था, जबकि गोमती पर 'एस' आकार में बनेगा। दुर्गापुरी में नीचे से जा रही ट्रेनें रोकने की अनुमति नहीं थी और यहां हमें गोमती के पानी को डायवर्ट करने या उसकी धारा को रोकने की अनुमति नहीं है'। इसपर साथी इंजिनियरों ने पूछा '...तो किया क्या जाए'

चार के बजाय छह पाइल बनाए गए :
गोमती पर विशेष पुल के लिए केवल दो पिलर बनाए जाने थे। अमूमन एक पिलर के लिए जमीन के नीचे करीब 20 मीटर गहरायी तक चार पाइल बनायी जाती है। गोमती नदी के हनुमान सेतु वाले हिस्से की तरफ बन रहे ऐसे ही चार पाइल में से एक पाइल धंसी थी। ऐसे में इसे मजबूत करने के लिए उसके चारों तरफ दो अतिरिक्त पाइल बिनायी गई। पाइल तक पाने पहुंचने से रोकने के लिए नदी से लगातार पंपिंग कर पानी निकाला जाता रहा। इसके साथ एक बड़े हिस्से को मिट्टी से पाटकर स्टील की अस्थायी दीवारें बनाई गईं और उसके भीतर लकड़ी के पट्टे लगाए गए। इन छह पाइल के गोमती नदी की सतह वाले सिरे पर पाइल कैप बना और उसके ऊपर पिलर बनाने का काम शुरू हुआ।

'कैंटी लीवर' तकनीक से बना एस आकार का पुल :
गोमती के दोनों किनारों पर पिलर बनकर तैयार होने के बाद कैंटी लीवर तकनीक से इनके बीच पुल बनाया जाना था। दोनों पिलर्स के बीच 87 मीटर की दूरी थी और इनके ऊपर कांक्रीट का पुल बनाया जाना था। कैंटी लीवर तकनीक का इस्तेमाल करते हुए दोनों पिलर्स के बीच हवा में दो दो मीटर कांक्रीट का पुल बनाया जाता रहा और जब वो मजबूत हो जाते तो उनके आगे इतना ही नया ढांचा बनाकर उसके मजबूत होने का इंतजार किया जाता। हर दो मीटर आगे बढ़ने के लिए तीन दिन लग रहे थे। करीब डेढ़ महीने तक इस एहतियात के साथ काम करते हुए दोनों तरफ से पुल आगे बढ़ते हुए बीच में मिल गया।

नीचे टनल खोदी जाती रही लेकिन ऊपर से मजार हटी, ना रास्ता बंद किया

(रणविजय सिंह, मेट्रो पार्ट 11, 13 फरवरी 2019)

'बापू भवन के सामने जिस जगह से सुरंग के लिए टनल बोरिंग मशीन (टीबीएम) खोदायी शुरू होनी है, उसके ठीक ऊपर मजार है। दूसरी तरफ सेवेंथ डे स्कूल और इससे कुछ दूरी पर मानसरोवर आई हॉस्पिटल। ना तो मजार हटायी जा सकती है और ना ही वहां आने वाले श्रद्धालुओं को ही रोका जा सकता है। स्कूल और अस्पताल के ठीक सामने से डी वॉल बनायी जानी है जिसके लिए ना तो स्टूडेंट्स को रोका जा सकता है और ना ही मरीजों के आने जाने पर पाबंदी लग सकती है...'

अंडरग्राउंड मेट्रो स्टेशन और टनल बना रहे टाटा गुलेरमक के इंजिनियर लखनऊ मेट्रो रेल कारपोरेशन के चीफ इंजिनियर को मौके की नजाकत से वाकिफ कराने के बाद चुप हो गए। चीफ इंजिनियर ने मुस्कुराते हुए कहा 'इसके अलावा जमीन के नीचे से जो नाला जा रहा है, उसे भी डायवर्ट करना है। हमारे डिजाइन के मुताबिक स्टेशन के ठीक ऊपर से नाला जा रहा है, जिसमें जरा सा झटका या दरार पड़ने पर सारा पानी टनल के भीतर आने लगेगा'। समाधान पूछने आए इंजिनियरों को चीफ इंजिनियर ने नई समस्या बताकर उनकी परेशानी बढ़ा दी। इसके बाद इस चुनौती से निपटने की कवायद शुरू करते हुए चीफ इंजिनियर ने टाटा गुलेरमक और एलएमआरसी इंजिनियरों के साथ बैठक की। इसमें तय हुआ कि ना तो मजार को हटाया जाएगा और ना ही स्कूल या अस्पताल को बंद करने की जरूरत है।

30 मीटर कच्चे नाले को कांक्रीट का बना दिया :
मेट्रो स्टेशन के ठीक ऊपर से जा रहे कच्चे नाले की सतह और उसके दो तरफ की दीवार को मजबूत करने का फैसला हुआ। इकसे लिए नाले के तीनों तरफ कांक्रीट की दीवार खड़ी की गई। इसके लिए सेवेंथ डे स्कूल की तरफ से नाले को डायवर्ट किया गया। यहां पाइप लगाकर नाले का पानी पंप की मदद से सामने की तरफ बस्ती के नाले में गिराया जाता रहा। इस बीच मेट्रो स्टेशन के ऊपर से जा रहे नाले को 30 मीटर लंबाई तक कांकीट का बना दिया गया। इसके बाद सेवेंथ डे स्कूल के सामने से नाले को इस कंक्रीट के नाले से जोड़ दिया गया और नाला पहले की तरह बहता रहा और इसके ठीक नीचे मेट्रो का स्टेशन बन गया। इसके बावजूद ना तो नाले से लीकेज हुआ और ना ही कभी इसमें दरार पड़ने की आशंका ही पैदा हुई।

7 बार बदला गया मजार तक आने जाने का रास्ता :
निर्माण कार्य के दौरान मजार को हटाना तो दूर एक दिन के लिए भी बंद नहीं किया गया। हालांकि यहां आने वालों की सुरक्षा के लिए सात बार डायवर्जन प्लान में बदलाव किया गया। मजार के ठीक नीचे टनल बोरिंग मशीन खोदायी शुरू कर चुकी थी लेकिन मजार पर इसका कोई असर नहीं होने दिया गया। यहां आने वालों के लिए कभी समाने तो कभी पीछे की तरफ से वैकल्पिक रास्ता बना दिया जाता था। महिलाएं, बुजुर्ग और बच्चों तक की सुरक्षा का पूरा इंतजाम मेट्रो की तरफ से किया जाता रहा।

एक दिन में बना दी गई डी वॉल :
सेंवेंथ डे स्कूल और मानसरोवर आई हॉस्पिटल के सामने डी वॉल बनायी जानी थी, जिसमें सामान्य तौर पर तीन से चार दिन लगते हैं। हालांकि यहां ना तो स्टूडेंट्स को रोका जा सकता था और ना ही मरीजों के आने जाने पर पाबंदी लग सकती थी। ऐसे में इसे हुसैनगंज की तरह एक दिन में बनाने का फैसला हुआ। यहां गनीमत यह थी कि इमारतें ज्यादा पुरानी नहीं थीं। लिहाजा इन दोनों जगहों पर इमारत के काफी करीब से सड़क के किनाने जमीन के 20 मीटर नीचे तक डी वॉल बना दी गई।

तो क्या बड़े अस्पताल मरीज को भर्ती कर डकैती डालने पर आमादा हैं

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