नोटबंदी के बाद आम आदमी अपने ही दो हजार
रुपयों के लिए बैंकों के बाहर धूप में खड़ा है लेकिन इन्हीं बैंकों से
करीब आठ लाख करोड़ रुपया कर्ज लेकर हजम कर चुके करीब तीन हजार औद्योगिक घरानों को सरकार और विपंक्ष जनता के सामने खड़ा करने को तैयार नहीं है। हमारी संसद स्विस बैंक में भारतियों के खातों की जानकारी देने को भी तैयार नहीं है। चौंकाने वाली बात यह है कि नोटबंदी के बाद राज्य सभा और लोकसभा में हुई बहस के दौरान विपक्ष ने इन दोनों मुद्दों पर सरकार को मजबूती से घेरने के बजाय पीएम मोदी की व्यक्तिगत आलोचना और हंगामे में समय बिता दिया। यह दोनों सवाल ऐसे हैं, जिसे अगर विपक्ष मुद्दा बनाकर जनता के बीच ले जाता तो बैंकों के बाहर घंटों कतार में खड़ी जनता सरकार को कोसते हुए चर्चा जरूरत करती। वहीं डिफॉल्टर औद्योगिक घरानों और स्विस बैंक खाता धारकों के नाम सार्वजनिक करने या ऐसा करने से इंकार करने पर सरकार के लिए असहज स्थिति पैदा हो जाती।
करीब आठ लाख करोड़ रुपया कर्ज लेकर हजम कर चुके करीब तीन हजार औद्योगिक घरानों को सरकार और विपंक्ष जनता के सामने खड़ा करने को तैयार नहीं है। हमारी संसद स्विस बैंक में भारतियों के खातों की जानकारी देने को भी तैयार नहीं है। चौंकाने वाली बात यह है कि नोटबंदी के बाद राज्य सभा और लोकसभा में हुई बहस के दौरान विपक्ष ने इन दोनों मुद्दों पर सरकार को मजबूती से घेरने के बजाय पीएम मोदी की व्यक्तिगत आलोचना और हंगामे में समय बिता दिया। यह दोनों सवाल ऐसे हैं, जिसे अगर विपक्ष मुद्दा बनाकर जनता के बीच ले जाता तो बैंकों के बाहर घंटों कतार में खड़ी जनता सरकार को कोसते हुए चर्चा जरूरत करती। वहीं डिफॉल्टर औद्योगिक घरानों और स्विस बैंक खाता धारकों के नाम सार्वजनिक करने या ऐसा करने से इंकार करने पर सरकार के लिए असहज स्थिति पैदा हो जाती।
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक करीब 40 सूचिबद्ध बैंकों से करीब तीन हजार उद्योगपतियों ने 4,43,691
करोड़ रुपए कर्ज लेकर वापस ही नहीं किया। वहीं अगर
उद्योगपतियों को दिए गए ऐसे कर्जों को भी जोड़ लिया जाए, जिनका वापस मिलना मुश्किल
होता जा रहा है तो यह रकम आठ लाख करोड़ रुपये तक पहुंच जाएगी। जनता की गाढ़ी कमाई कर्ज
के तौर पर लेकर ऐश करने वाले डिफॉल्टर उद्योगपतियों का नाम सार्वजनिक करने को सरकार
तैयार नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से यह नाम पूछे उसके बावजूद सरकार डिफाल्टर
उद्योगपतियों के साथ गलबहियां डाले खड़ी दिख रही है। ऐसे में सवाल यह उठ रहा है कि
राज्य सभा और लोकसभा में विपक्ष ने इतने मजबूत मुद्दे को हाथ से क्यों जाने दिया? चर्चा
की शुरूआत करने वालों ने नोटबंदी को लेकर पीएम नरेंद्र मोदी की तुलना हिटलर, गद्दाफी
और मुसोलिनी से की, जिसका सरकार या मोदी की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी और मोदी सरकार पर इस तरह के व्यक्तिगत हमले होने से वे असहज नहीं होते
बल्कि उनकी ताकत ही बढ़ती है। विपक्ष की तरफ से किसी ने नहीं पूछा कि देश के बैकों
में लगभग अस्सी लाख करोड़ रुपपे की जमापूंजी जसका पचहत्तर प्रतिशत राशि छोटे बचतकर्ताओं
और आम लोगों की है, वह बड़े औद्योगिक घरानों के पास कर्ज की शक्ल में क्यों और कैसे
चली गई? अगर लोन तय नियमों के तहत दिया गया तो उन्होंने तय नियमों के तहत वह रकम लौटायी
क्यों नहीं? न उसे केवल दाबे बैठे हैं बल्कि गुलछर्रे उड़ा रहे हैं, बाावजूद सरकार उनपर
इतनी मेहरबान क्यों है? किसी ने नहीं पूछा कि डिफॉल्टर औद्योगिक घरानों को सरकार से
राहत और बैंकों से आसानी से करोड़ों रुपये का कर्ज कैस मिल जाता है जबकि छोटे कर्जदारों
(किसानों) को मामूली रकम के लिए भी बैंकों के कई-कई चक्कर लगाने होते हैं?
डिफॉल्टर उद्योगपतियों के नाम पर ‘’पक्ष-विपक्ष
साथ साथ हैं’’ :
बैंकों के बाहर कतार में खड़ी जनता का
आठ लाख करोड़ रुपये दबाए बैठे उद्योगपतियों को सामने लाने में वर्तमान सरकार की दिलचस्पी
नहीं दिखती और पिछली सरकार में शामिल विपक्ष भी इसके लिए ज्यादा उत्साहित नहीं है।
असल बात यह है कि संसद में बैठे सभी ताकतवर और कमजोर दलों को पता है कि स्विस बैंक
में किनके खाते हैं और डिफॉल्टर उद्योगपति कौन हैं? कांग्रेस 50 साल तक सरकार में थी,
उसके साथ सपा, बसपा, कम्युनिस्ट पार्टी का एक धड़ा और दूसरे प्रांतों के क्षेत्रीय
दल भी केंद्र में सत्तासुख भोग चुके हैं। ऐसे में उनमें से कोई भी चाहे तो डिफॉल्टर
उद्योगपतियों और स्विस बैंक के भारतीय खाताधारकों के नाम सार्वजनिक कर सकता है लेकिन
वे ऐसा नहीं करेंगे। यह तो नहीं ही माना जा सकता कि संसद के बाहर मीडिया को जो बातें
लुकेछिपे पता चल जाती हैं कि उसकी जानकारी सत्ता में रहते हुए इन लोगों को नहीं होगी।
असल में ज्यादातर औद्योगिक घराने सभी राजनीतिक दलों को हर साल उनकी क्षमता के मुताबिक
बराबर बराबर चंदा देते हैं। न एक हजार रुपये ज्यादा न एक हजार कम। उप्र के एक औद्योगिक
घराने ने एक राष्ट्रीय स्तर की पार्टी को चंदा देने से मना कर दिया था, उसके बाद ताकत
में वापस लौटने वाली उस पार्टी ने सरकारी मशीनरी का पूरा इस्तेमाल करते हुए उस औद्योगिक
धराने का सहारा छिनने की स्थिति पैदा कर दी। सभी राजनीतिक दल जनता की गाढ़ी कमाई का
अरबों रुपये दबाए बैठे इन औद्योगिक घरानों से हर साल चंदे के तौर पर मोटी रकम वसूलते
हैं। यही वजह है कि कोई भी दल चाहे वो सत्ता में हो या विपक्ष में इनके नाम जनता के
सामने लाने को तैयार नहीं होता।
जनता की जेब कटती है और उसी से करवाते
हैं भरपाई :
बैंकों से अरबों रुपये लोन लेकर दबाए
बैठे उद्योगपतियों में से एक नाम किंग कॉरपोरेट के नाम से पहचाने जाने वाले विजय माल्या
हैं। इन्होंने सत्रह बैंकों का नौ हजार करोड़ रुपए कर्ज लिया। सरकारी मशीनरी ने माल्या
को जिस दरियादिली से कर्ज मुहैया कराया, उसी दरियादिली से उन्हें भारत छोड़कर जाने
भी दिया। इससे साफ है कि कर्ज के डूबने-डुबाने के खेल में राजनीति, नौकरशाही, कारोबार
और बैंक प्रबंधन का पूरा भ्रष्ट गठजोड़ शामिल है। इस तरह डुबायी जा रही जनता की रकम,
बैंक जनता से ही वसूलते हैं। बैंक कर्ज वापस न मिलने का बहाना बनाते हुए घाटा दिखा
देते हैं और सरकार आम खाता धारकों की ब्याज दरें घटाकर या उनकी सुविधाओं में कटौती
कर इस घाटे को पूरा कर लेती है।
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