इस देश में आम समझ वाला
आम आदमी भी यह बात समझता है कि आरक्षण को चुनौती देकर चुनाव नहीं जीता जा सकता है।
खासकर हिंदी पट्टी के प्रदेशों, उनमें भी यूपी और बिहार को लेकर तो ऐसा ही है। इसके
बावजूद सामाजिक विचारकों और बुद्धिजीवियों से भरे हुए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की
तरफ से आरक्षण की समीक्षा के बयान जारी किए गए। वह भी उस समय जब बिहार के चुनाव सिर
पर थे। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने चुनाव का ऐलान होने के कुछ ही दिनों बाद और फिर
पहले चरण के मतदान से एक दिन पहले आरक्षण को लेकर जो बयान दिए उसे चुनावी रणनीतिकार
भले गलत समय पर दिया गया गलत बयान बताएं लेकिन मुझे लगता है आरएसएस ने पूरी रणनीति
के तहत बिहार चुनाव को आरक्षण के लिटमस टेस्ट के लिए चुना है। वह भी इतने फुलप्रूफ
प्लानिंग के साथ कि नतीजे कुछ भी आएं लेकिन किसी भी सूरत में बीजेपी को ज्यादा लम्बे
समय तक नुकसान नहीं होगा।
बिहार जाति के लिहाज से सबसे कट्टरपंथी राज्य
है। पिछले 25 से 30 साल के दरम्यान जाति आधारित जितना रक्तपात हुआ उतना शायद ही किसी
राज्य में हुआ हो। हिंदी भाषी राज्यों में जातियों की सेनाएं केवल इसी राज्य में बनीं
जिनके मुटभेड़ों से पैदा हुई नफरत वहां की फिजाओं में अब भी मौजूद है। इसके बावजूद
आरएसएस ने बिहार चुनाव से पहले आरक्षण के जिन्न को बोतल से यूं ही निकाला। इससे पहले
पूरी तैयारी की गई। बिहार चुनाव को पांच चरणों में करवाने का फैसला हुआ। बिहार चुनाव के लिए निर्णायक माने जा रहे महादलित जीतन राम माझी की अगुवाई में बीजेपी के साथ हैं। लिहाजा बिना डरे पहले चरण से
पहले आरक्षण का बयान बिहार चुनाव के कैमिकल में डाला गया। इसका रिएक्शन पहले चरण के
मतदान के बाद चैनलों और अपने निजी संस्थाओं के एक्जिट पोल के जरिए सामने आ जाएगा। पहले चरण का मतदान भी बीजेपी के लिए ज्यादा डैमेजिंग न हो इसके लिए महंगाई, साहित्यकार
बनाम सरकार और गाय जैसे दूसरे भावनात्मक कैमिकल भी इस चुनाव के फ्लास्क में डाले गए। इतने फुलप्रूफ प्लान के साथ पहले चरण के
मतदान पर आरक्षण के बयान का असर देखा जाएगा। नतीजे ज्यादा विपरीत दर्ज किए गए तो बाकी
चार चरणों के लिए अलग से प्लान। पहले चरण के बाद दूसरे, तीसरे, चौथे और पांचवें चरण
के मतदान के लिए बयान, मूद्दों और घटनाओं की अलग श्रृंखलाएं पहले से तय हैं। इनमें
सबसे अहम केंद्र सरकार की तरफ से चुनाव जीतने के बाद बिहार के उद्योग, युवाओं को रोजगार
और खेती किसानी को चमकाने का खुला आश्वासन।
इन तमाम कोशिशों और के बाद दो नतीजे सामने आ
सकते हैं। एक यह कि बीजेपी चुनाव जीत जाए या फिर बीजेपी चुनाव हार जाए। अगर बीजेपी
चुनाव जीत गई तो यह आकलन लगाया जा सकता है कि देश में आरक्षण की समीक्षा हो सकती है।
इसके उलट अगर बीजेपी चुनाव हार गई तो प्रदेश में जनता दल युनाइटेड के नीतिश कुमार और
राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव की मिलीजुली सरकार बनेगी। नीतिश कुमार और लालू
प्रसाद यादव के काम करने की शैली बिल्कुल उलट है। नीतिश की क्षवि विकास और स्वच्छ प्रशासन
को तरजीह देने वाले नेता की है, वहीं लालू प्रसाद और उनकी टीम प्रशासन को अपने ठेंगे
पर रखकर शासन चलाने के लिए जाने जाते हैं। ऐसे में किसी को इसमें अचरज नहीं होना चाहिए
कि गठबंधन के बाद बनी सरकार अपने अंतरविरोधों के चलते छह महीने से ज्यादा न चल सके।
इसके बाद यहां केंद्र सरकार अपने मुताबिक नए चुनाव की तारीख तय करेगी। नए मुद्दों,
नए वादों, नए अनुभव और नई तैयारियों के साथ। साथ ही संघ के लिए भी यह फैसला करना आसान हो जाएगा कि देश में आरक्षण की समीक्षा का यह समय है या नहीं।